किसे चुने, किसे छोड़ें?
दिवाकर मुक्तिबोध
कांग्रेस में टिकिट के लिए घमासान कोई नई बात नहीं है. लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के प्रत्येक चुनाव में ऐसा होता ही रहा है. छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है. लेकिन ऐसा पहली बार है जब किसी संसदीय सीट पर प्रत्याशी के अंतिम चयन में कांग्रेस हाईकमान कोई निर्णय नहीं ले पा रहा हो. रायपुर लोकसभा सीट ऐसी ही सीट है जहां घोषित प्रत्याशी बदला गया, नया चुना गया, फिर नए को भी बदलकर पुराने पर मोहर लगाई गई और चंद घंटों के भीतर पुराने पर भी तलवार लटका दी गई.
छाया वर्मा, सत्यनारायण शर्मा और फिर छाया वर्मा लेकिन अब छाया वर्मा का बी फार्म रोके जाने से इस संभावना को बल मिला है कि उनके मामले में पुनर्विचार किया जा रहा है और बहुत संभव है उनके स्थान पर किसी और को टिकट दे दी जाए. मोहम्मद अकबर और प्रतिभा पांडे वे दावेदार हैं जिनके नाम पर नई दिल्ली में विचार-मंथन किया जा रहा है.
रायपुर में प्रत्याशी के चयन को लेकर ऐसी स्थिति पहले कभी निर्मित नहीं हुई. पार्टी में गुटबाजी इसकी प्रमुख वजह है. कांग्रेस की पहली सूची में जब छाया वर्मा का नाम आया तो यह हैरान करने वाली बात थी क्योंकि उन्हें भाजपा प्रत्याशी रमेश बैस के मुकाबले बेहद कमजोर माना जा रहा था और यह वास्तविकता भी थी क्योंकि बैस का यह सातवां चुनाव है. वे रायपुर लोकसभा सीट से लगातार जीत दर्ज करते रहे हैं. ऐसे अनुभवी एवं वरिष्ठ नेता के खिलाफ दमदार प्रत्याशी उतारने के बजाए कांग्रेस ने उस छाया वर्मा पर विश्वास जताया जिनके पास उपलब्धियों के नाम पर केवल जिला पंचायत के अध्यक्ष पद रहा है. उनकी सक्रियता पर भी प्रश्नचिन्ह है. लेकिन इसके बावजूद उन्हें टिकिट प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल की सिफारिश पर दे दी गई और इस तर्क के आधार पर दी गई कि वे जातीय समीकरण में फिट बैठती हैं.
यह तथ्यपरक है कि उन्हें टिकिट देने से भाजपा और कांग्रेस के बीच कुर्मी समाज के वोट विभाजित होंगे लेकिन इससे भी बड़ा सवाल था कि यदि वोटों का विभाजन हुआ तो वह किस अनुपात में होगा? छाया वर्मा की राजनीतिक हैसियत देखते हुए संशय है कि वे समाज के वोट बैंक में तगड़ी सेंध लगा पाएंगी?
बहरहाल उनकी उम्मीदवारी के बाद प्रदेश पार्टी में खलबली मची और तीव्र विरोध के बाद उनकी टिकिट काटकर विधायक सत्यनारायण शर्मा को टिकिट दे दी गई जो अपेक्षाकृत बेहतर उम्मीदवार थे. लेकिन दो दिन के भीतर ही उनकी टिकिट कट गई और दुबारा छाया वर्मा का नाम हाईकमान की ओर से घोषित किया गया. इसके विरोध में कांग्रेस भवन में जोरदार हंगामा हुआ, कुर्सियां तोड़ी गई तथा शर्मा समर्थकों ने जमकर आक्रोश व्यक्त किया.
इस घटना की खबर हाईकमान तक पहुंचने के बाद रायपुर के मामले पर फिर विचार मंथन का दौर शुरू हुआ लिहाजा छाया वर्मा की उम्मीदवारी पर दुबारा संशय के बादल छा गए हैं. बकौल भूपेश बघेल उनका बी फार्म रोक दिया गया है. इसमें इस चर्चा को बल मिल रहा है कि हाईकमान रायपुर के लिए नए नामों पर विचार कर रहा है जिनमें पूर्व विधायक मोहम्मद अकबर एवंं स्व.विद्याचरण शुक्ल की बेटी प्रतिभा पांडे प्रमुख हैं.
सवाल है, रायपुर के मामले में ऐसा क्यों हो रहा है? क्या योग्य प्रत्याशी का चयन इतना कठिन है कि हाईकमान निर्णय नहीं ले पा रहा है? क्या जीत की क्षमता रखने वाले प्रत्याशियों की भारी भरकम फौज है जिसमें से किसी एक को चुनना मुश्किल हो रहा है? या रायपुर लोकसभा क्षेत्र के राजनीतिक एवं सामाजिक समीकरण में प्राथमिकता किसे दी जाए, तय नहीं हो पा रहा है? या फिर पिछले 30 वर्षों से भारतीय जनता पार्टी के कब्जे वाली राज्य की सबसे महत्वपूर्ण सीट को कांग्रेस हर हालत में जीतना चाहती है इसलिए वह प्रत्याशी चयन के मामले में फूंक-फूंक कर कदम रख रही है और प्रयोग पर प्रयोग कर रही है.
दरअसल रायपुर लोकसभा के लिए प्रदेश कांग्रेस में कोई ऐसा बड़ा नेता नहीं है जो 6 बार के सांसद बैस को पराजित कर सके. विद्याचरण शुक्ल और श्यामाचरण शुक्ल जैसे दिग्गज उनके आगे टिक नहीं सके तो बाकी की बिसात क्या? लेकिन शुक्ल बंधुओं की पराजय के वक्त स्थितियां अलग थीं और अब अलग हैं. अब रमेश बैस के पक्ष में वह माहौल नहीं है जैसा पहले था. लोकसभा में उनका कमजोर प्रदर्शन तो एक वजह है ही, दूसरी बड़ी वजह है सांसद के रूप में उनकी भूमिका. 30 साल के अपने संसदीय कार्यकाल में उन्होंने ऐसा क्या किया जो लोग उन्हें याद रखें?
उन पर आरोप है कि उन्होंने अपने भाई-बंधुओं को स्थापित करने के अलावा क्षेत्र के लिए कुछ नहीं किया. न तो किसानों की समस्याएं सुलझीं और न ही उन्होंने उनके लिए लड़ाई लड़ी. राज्य में पार्टी की सरकार होने के बावजूद वे सरकार पर विकास कार्यों के लिए दबाव नहीं बना सके. इसी वजह से उनकी न केवल लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है बल्कि पार्टी कार्यकर्ताओं का एक वर्ग भी उनसे बेहद खफा है.
इस स्थिति की वजह से यदि कांग्रेस आक्रामक तरीके से और संगठित होकर चुनाव लड़ेगी तो वह रमेश बैस के लिए भारी मुसीबत का सबब बनेगी. लेकिन प्रदेश कांग्रेस में दमखम रखने वाले नेताओं का अभाव है इसीलिए टिकिट के मामले में अनिर्णय की स्थिति बनी हुई है. यह देखकर रमेश बैस का खुश होना स्वाभाविक है.
टिकिट का मसला नेताओं के अहम् के टकराव का भी परिणाम है. छत्तीसगढ़ की राजनीति में जातीय समीकरण कभी इतने प्रभावी नहीं हुए कि वे एकतरफा फैसला कर सके अलबत्ता उसका महत्व जरूर रहा है. रायपुर के मामले में भी ऐसा ही है. इस लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में कुर्मियों का बाहुल्य है और वे चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. भाजपा के रमेश बैस चूंकि इसी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं लिहाजा उनका उन्हें अच्छा समर्थन मिलता रहा है. छाया वर्मा को टिकिट देने के पीछे यही बात प्रमुख रही है. लेकिन जाति के आधार पर टिकिट फायनल करने के पूर्व यह देखा जाना जरूरी है कि प्रत्याशी की राजनीतिक हैसियत एवं जमीनी पकड़ कैसी है? ज्यादा महत्वपूर्ण जमीनी पकड़ है. चूंकि छाया वर्मा इस दृष्टि से कमजोर हैं अत: वे योग्य प्रत्याशी नहीं हो सकती.
सत्यनारायण शर्मा ब्राह्मण समाज से हैं और उनकी राजनीतिक एवं सामाजिक हैसियत भी बड़ी है. वे रमेश बैस को अच्छी टक्कर दे सकते थे. इसी क्रम में मोहम्मद अकबर भी हैं जो कुशल रणनीतिकार हैं. अलबत्ता प्रतिभा पांडे कमजोर हैं. उनकी केवल एक ही पहचान है कि वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व.विद्याचरण शुक्ल की बेटी हैं. वे राजनीति में कभी नहीं रहीं और न ही छत्तीसगढ़ में उनकी कोई सामाजिक हैसियत है. नक्सली हमले में शुक्ल की शहादत से उपजी सहानुभूति की लहर भी अब कमजोर पड़ चुकी है. यानी बैस के खिलाफ वे कमजोर हैं.
ऐसी स्थिति में केवल मोहम्मद अकबर ही ऐसे हैं जो बैस को कड़ी टक्कर दे सकते हैं. संभव है हाईमान उनके नाम पर मोहर लगाए. अगर ऐसा हुआ तो रायपुर में ऐसा पहली बार होगा जब कांग्रेस का टिकिट कट-पिटकर किसी तीसरे को मिलेगी. लेकिन यह भी संभावना बनी हुई है टिकिट के साथ अब कोई छेड़छाड़ न की जाए. क्योंकि बार-बार परिवर्तन से रायपुर की टिकिट एक तमाशा बनकर रह गई है. लिहाजा छाया वर्मा की उम्मीदवारी कायम रहने की भी संभावना है.
लेकिन टिकिट के मामले में इतनी जद्दोजहद प्रदेश कांग्रेस के हक में नहीं है. यह पार्टी के भीतर चल रही रस्साकशी को रेखांकित करती हैं. इससे संगठन की कमजोरियां और अंतर्कलह उजागर होती हैं. जब चुनाव के पूर्व ऐसी स्थिति हो पार्टी भाजपा का कैसे मुकाबला कर पाएगी?
वैसे भी गुटीय प्रतिद्वंद्विता की वजह से पिछले एक दशक से कांग्रेस हाशिये पर है. इस लोकसभा चुनाव में उसके पास अपनी स्थिति सुधारने का मौका है. रायपुर को छोड़ राज्य की शेष 10 सीटों पर प्रत्याशी का चयन भी ठीक हुआ है. इस दृष्टि से रायपुर में टिकिट के मामले में बार-बार परिवर्तन शायद बेहतर की तलाश के लिए है.
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.