बुद्धिजीवियों के लिए छत्तीसगढ़ भी!
कनक तिवारी
मौजूदा हालात में लेखनी की भूमिका को लेकर देश बहुत उम्मीदजदा है. यह संकुल समय फिलवक्त आज़ाद भारत के निजाम के द्वारा अंधेरे में घनीभूत कर दिया गया है. वैसा तो गुलामी से छूटते आज़ादी के आंदोलन के वक्त भी नहीं रहा था. स्वतंत्रता संग्राम के सिपहसालारों में जनसमर्थन से उन सभी वर्जनाओं से लड़ने का माद्दा और ताब रहा है, जो भारत को उसकी बुनियादी समझ में कमजोर करना चाहती रही थीं.
आज लेकिन निजाम की (भी) हरकतों से शह पाकर बुद्धिमयता के इलाके में व्हाट्सएप विश्वविद्यालय का चौकस पहरा सत्तानशीनों द्वारा ही बिठा दिया गया है. भविष्य को संभावित त्रासदी की आशंका में हिचकी आ रही है. उन दिनों कई अखबारों ने भी बौद्धिक उथलपुथल बल्कि क्रांति तक की थी. हम जैसे कुछ लोग गुलामी के दिनों में पैदा होकर नेहरू के प्रधानमंत्री काल में बालिग होते किताबों से साक्षात्कार करने लगे थे.
आज प्रिंट मीडिया को नागरिक लेखन के कॉलम या स्वतंत्र वैचारिक लेखन के योगदान की ज़रूरत नहीं है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ढिंढोरची शब्द का पर्याय है. वह केवल तानाशाह का स्तुति-गायन करता है. वह भी चारण और भाट की मुद्रा, भाषा और शैली में.
ऐसे वक्त ‘निरस्त पादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते‘ की तरह छोटे छोटे कस्बों में लघु पत्र पत्रिकाएं, सोशल मीडिया के दोहन और यहां वहां हो रही सभाओं, गोष्ठियों में हिन्दुस्तान की धड़कनों को जिंदा रखने की श्लाघनीय कोशिशें हो तो रही हैं.
मैं निजी तौर पर ज़्यादातर फेसबुक का ही इस्तेमाल कर पाता हूं क्योंकि औपचारिक मीडिया तो वस्तुपरक, स्वतंत्र विचारों को अब घास नहीं डालता. पहले सैकड़ों, हजारों बुद्धिमित्रों से गलबहियां करना उसको अलबत्ता अच्छा लगता था. बहुत से रचनाकार फिलवक्त अपनी कविताओं, कहानियों, अलोचनात्मक टिप्पणियों, कटाक्ष और पारस्परिक प्रशस्ति वाचन के कथनों वगैरह में ज़्यादा मशगूल हैं.
बहुत कम लोग इस बात से पीड़ित नजर आते हैं कि व्यवस्था उनकी जबान पर ताला लगाने को पहले से ज्यादा और लगातार उद्यत हो रही है. ऐसे दोस्त जीवन की चुनौतियों की अनदेखी करते अपने वजूद को टाइम पास नहीं बनाते.
ये ही वे आवाजें हैं, जो वक्त के शोरगुल में सुनी जा रही हैं. शोरगुल और अहंकार के अट्टहास के बावजूद कई कलमकार अपने तेवर और स्टैंड को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं. इतिहास को भी उनकी ज़रूरत है. ऐसे लोगों की ज़रूरत हर देश में इतिहास के हर दौर में रहती ही है.
वे अलग अलग और एकजुट होकर, गैरसमझौताशील होकर (भी) अपने वस्तुपरक और तटस्थ लेकिन सक्रिय स्वायत्तता को समर्पण करते नहीं डालते. ऐसे मित्र बाकायदा परस्पर आह्वान की मुद्रा में आज भी हैं. जब टिटहरी उलटकर आकाश को अपने पैरों पर थामने का अहसास अपने में भर लेती है. तो हम सबको मिल जुलकर जिंदा रहने का संवैधानिक और सामाजिक जज़्बा भूलना नहीं है.
इन दिनों कुछ ताकतों ने देश की छाती पर मूंग दलने का अभियान सघन कर रखा है. उनकी मुखालफत करने फासिस्ट और नाजीवादी विशेषणों के खिलाफ बुद्धिजीवी कहीं न कहीं, लेकिन साफ पाक मकसद से लामबंद हो भी रहे हैं.
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को फलसफाई अंदाज में कहना और उसे बूझना एक अच्छा शगल अपनी जगह ठीक है. देश को तो फासीवादी और नाजीवादी ताकतों के भारतीय नुमाइंदों से सीधा खतरा है. जांच, जिरह और जिज्ञासा उनके लिए ज़्यादा ज़रूरी है.
मैं छत्तीसगढ़ से हूं. यहां 32 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. प्रतिशत के लिहाज से शायद देश में सबसे ज्यादा आदिवासी यहां हैं. आरक्षण की विसंगतियों को लेकर कई मुकदमे एकजाई कर पिछले दस साल से छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में बिसूर रहे थे. लेटलतीफी और हड़बड़ाहट में जागना यह न्यायालयों के लिए नई परिघटना नहीं है.
दस वर्षों अर्थात् वर्ष 2012 तक सरकार के जवाब अदालत की नस्ती में बंधे हुए रहे हैं. उन्हें दुबारा देखने की ज़रूरत 2018 से आ चुकी पार्टी की सरकार को नहीं पड़ी. लिहाजा कुछ तकनीकी खामियों और सरकारी दफ्तर की ढिलाई या लापरवाही के आरोप के लगने के साथ साथ हाई कोर्ट ने 32 प्रतिशत की आबादी वाले आदिवासियों का नौकरी और शिक्षा में आरक्षण हटाकर पहले ठहराए गए 20 प्रतिशत के आधार पर फिर कायम कर दिया गया है.
हाई कोर्ट ने सरकार की असमर्थता पर तीखी टिप्पणी भी की कि उसने अदालत को अपनी जिम्मेदारियों के मद्देनज़र आष्वस्त नहीं किया. अब करोड़ों रुपए खर्च करके सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में सबसे महंगे वकीलों की टीम के जरिए मुकदमा लड़े जाने की बातें तैर रही हैं. सरकारों के विधि मंत्री, विधि सचिव, एडवोकेट जनरल, आदिवासी मंत्रणा परिषद जैसी संस्थाएं सफेद हाथी नहीं हैं. फिर भी उनकी जिम्मेदारी तय नहीं होती.
बताना ज़रूरी है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों से ज़्यादा अन्यायग्रस्त, व्यवस्था पीडि़त और कुपोषित तथा यंत्रणा भोगता आबादी का और कोई हिस्सा देश में शायद ही हो. कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ का घिनौना, वीभत्स चेहरा देखना हो. तो आइए छत्तीसगढ़! यहां कॉरपोरेट-सरकार गठजोड़ आपसे कहेगा ‘यह छत्तीसगढ़ है. आइए मुस्कराइए.‘
सबसे बड़े आदिवासी भौगोलिक क्षेत्र बस्तर में आदिवासियों की छाती पर लोहे की खदानें खोदी ही जाती रही हैं. उससे आदिवासी का कोई सीधा आर्थिक या मालिकी हक का संबंध नहीं हो पाया. बड़ी मुश्किल से टाटा जैसे भारी भरकम कॉरपोरेट को अपना कारखाना खोलने से बस्तर में रोका जा सका.
बहुत पहले इंदिरा गांधी ने साल वनो के द्वीप बस्तर में पाइन परियोजना को खारिज कर बायो डाइवर्सिटी के मानक प्रतिमानों का बचाव कर दिया था.
बोधघाट परियोजना को लेकर प्रदेश की हर सरकार की एक के बाद एक लार टपकती रही है. इसमें करोड़ों, अरबों का निवेश जो हो सकता है. बस्तर के कुदरती जल स्त्रोतों की कीमत पर वहां से बाहर भी पानी का उपयोग सिंचाई या अन्य कामों के लिए किए जा सकने के सरकारी आश्वासन, प्रलोभन और ऐलान वाचाल रहे हैं.
यह बस्तर है जो भारत में सबसे बड़ा नक्सल लैंड है. कांग्रेस के शासनकाल में केन्द्रीय गृह मंत्री रहे पी. चिदंबरम ने माओवादी लाल क्रांति के मुकाबले सरकारी सेना के दम पर ‘ग्रीन हंट‘ नाम का हिंसक शब्द ईजाद किया था. ऐसा कहा जाता है. (शायद) 700 से ज्यादा गांव अब भी नक्सली खौफ में वर्षों से खाली हो चुके हैं.
सलवा जुड़ूम नाम का कांग्रेस-भाजपा का औरस पुत्र सरकार, कॉरपोरेट और पुलिस की तिहरी ताकत के बल पर नक्सलियों की आड़ में आदिवासियों को नेस्तनाबूद करता रहा. भला हो समाजशास्त्री नंदिनी सुंदर और अन्य जागरूक नागरिकों का जिनकी याचिका के कारण सुप्रीम कोर्ट के आलिम फाजि़ल और प्रबुद्ध जज सुदर्शन रेड्डी ने सलवा जुडूम के मनुष्य विरोधी आचरण का अपने फैसले के जरिए पर्दाफाश कर छत्तीसगढ़ को राहत तो दी.
साथ ही 16 वर्ष से छोटे आदिवासी बच्चें को पुलिसिया नौकरी में गैर मानवीय आधारों पर भर्ती करते रहने की सरकारी मुहिम को चोट भी की.
सूरते हाल यह रहा है कि कभी बस्तर में वहां के वनोत्पाद एक किलो चिरौंजी को एक किलो नमक के बदले व्यापारी खरीदते रहे हैं. अब तो वनोत्पाद सहित खनिज और जल और अन्य सभी उत्पादों पर सरकार का अधिकार और नियंत्रण है. यही हाल अन्य आदिवासी बहुल जिलों सरगुजा संभाग में और रायगढ़ जिले वगैरह में भी है. आदिवासी जिस हाल में हैं, वह कविता नहीं है. भयानक दौर का वीभत्स चेहरा है.
यह समझना जरुरी है कि आदिवासियों को जितना पुस्तैनी संवैधानिक हक मिलना था, वह दरअसल नहीं ही मिला.
आदिवासियों की लंबी जद्दोजहद के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान के 73 वें संशोधन के जरिए और फिर बाद में 1996 में पेसा (अधिनियम) बनवाकर आदिवासियों के हक की संवैधानिकता को अर्थमयता देने की शुरुआत की गई.
तर्क यह है कि आदिवासी भारत के सबसे पुराने नागरिक हैं. वन क्षेत्र में उनका पुश्तैनी अधिकार केवल सीमित होकर सांस्कृतिक और कलागत होने में नहीं है. इन इलाकों में उनका मालिकी, कृषि संबंधी और वनोत्पाद पर भी शुरुआत से हक रहा है. पेसा (अधिनियम) में आर्थिक, सामाजिक अधिकारों पर कटौती कर उनके सांस्कृतिक और पारंपरिक लक्षणों भर को समझने की आधी अधूरी बात कही गई है.
राज्य सरकार ने पेसा में थोड़े बहुत आधे अधूरे अधिकार आदिवासी इलाकों की ग्राम सभाओं को बरायनाम दिए हैं. उन्हें भी अमल में लाने के नाम पर ढांचागत कटौती कर छीन लिए जाने जैसी स्थिति बना दी गई है. उससे आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को लेकर वही ढाक के तीन पात जैसी हालत है.
अंगरजों के वक्त से हर दस वर्ष में होने वाली जनगणना में ‘जातीय/धर्म‘ के कॉलम में आदिवासी अपने नाम के आगे ‘आदिवासी‘ या ‘सरना धर्म‘ लिखते रहे हैं. फिलवक्त वह कॉलम ही मिटा दिया गया है. आदिवासी को धर्म के कॉलम में हिन्दू धर्म लिखने की बाध्यता के प्रावधान का यह तिलिस्म है. यह एक राष्ट्रवादी-सांस्कृतिक या सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी प्रक्षेपण का नमूना है.
एक अन्य छत्तीसगढ़ी आदिवासी क्षेत्र हसदेव कछार में अवांछित अतिथि कॉरपोरेटी गौतम अडानी की धमक के साथ योजना पर अमल शुरू हो गया है. कोरबा, सरगुजा इत्यादि इलाके के घने वन क्षेत्र में वन्य पशुओं के जीवन और रहवास की कीमत पर पहले से कार्यरत दक्षिण पूर्वी कोल फील्ड्स की खदानों को अडानी को भी कोयला आपूर्ति करने के लिए खोला जा रहा है.
इस सिलसिले में हजारों लाखों तरह तरह के पेड़ काट डाले जाएंगे. आदिवासियों बल्कि पालतू और वन्य पशुओं का जीवनयापन भी खतरे के निशान तक पहुंच चुका है. सरकारी फरमान है कि कोयले से बिजली बनाई जाएगी जिसे करार के अनुसार राजस्थान विद्युत मंडल को अदानी कम्पनी के मार्फत देना है क्योंकि कथित तौर पर राजस्थान में बिजली की आपूर्ति में कमी है.
छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों का केन्द्र की भाजपा सरकार के साथ अदानी के लिए पारस्परिक एका है. हजारों किसान और आदिवासी वर्षों से अहिंसक प्रदर्शन और सत्याग्रह कर रहे हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी उनके पक्ष में अभिवचन दो टूक किया ही है. फिर भी पुलिसिया बल लगाकर हजारों पेड़ अभी तक काट दिए गए हैं. सरकार को कॉरपोरेटियों की सलाह और शह पर हजारों के बाद लाखों की संख्या गिनना भी आता है.
देश का सबसे हरा भरा इलाका कॉरपोरेटी लिप्सा के कारण सरकार की ताकत के बल पर एक रेगिस्तान में बदल सकता है. मौसम और जलवायु परिवर्तन तो होगा ही. सूखा भी आएगा. सारा कोयला खुद जाएगा. तो भूकंप को भी न्योता दिया जा सकेगा. क्या ज़रूरत है इस तरह और इतना विनाश करने और उसे विकास का नाम देने की?
आज़ाद भारत में सरकार तो वह है जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान के नागरिक अधिकारों को अंगरेजों से भी ज्यादा कू्ररता के साथ कुचल दे. आलोक शुक्ला जैसे कई एक्टिविस्ट हैं जो जी जान से छत्तीसगढ़ को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, हजारों आदिवासियों के साथ.
बस्तर जैसी अति संवेदनशील इन्सानी बसाहट में लंबे अरसे से राष्ट्रीय जनजागरण के लिए अपना सब कुछ खतरे में डालते कुछ अभिव्यक्तिकारों के योगदान को लोग जानते रहें. वर्षों तक बस्तर में कलेक्टर और बाद में भारत सरकार के आदिम जाति आयोग के कमिश्नर रहे ब्रह्मदेव शर्मा ने आदिवासियों के उत्थान के लिए असाधारण योगदान किया है. कांग्रेस, भाजपा और उद्योगपति नेता-तिकड़ी ने इतनी असभ्यता की कि डॉ. शर्मा को निर्वस्त्र कर जगदलपुर की सड़कों पर चलाया गया. आदिवासी विषयों के अध्येता के रूप में केन्द्र सरकार ने बार बार उनका सहयोग लिया.
बस्तर की महिला नेत्री सोनी सोरी की त्रासदायक कथा से परिचित होना बुद्धिजीवियों के लिए ज़रूरी है. उन्हें किस तरह पुलिसिया दमन, अनाचार और अत्याचार का शिकार बनाया गया. वह छत्तीसगढ़ शासन के लिए कलंक है. बस्तर के आदिवासियों और खासतौर पर गर्भवती माताओं और शिशुओं के कुपोषण का सरकार घोषित इंडेक्स भारत में सबसे ऊंचा है. वहां कोई डॉक्टर इलाज के लिए नानुकुर करते नहीं जाता. बेला भाटिया और मनीष कुंजाम और पत्रकार आलोक पुतुल आदि जैसे कुछ जागरुक लोग लगातार आदिवासी हितों के लिए लांछन झेलते भी लड़ते रहते हैं. उनकी लेखकों और रचनाकारों की अभिव्यक्तियों में पूछ परख होना जागरूक नागरिक संवाद की जरूरत है.
जुझारू बनावट के गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार वर्षों से जीवन को खतरे में डालकर बस्तर के आदिवासियों के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. फिलवक्त सोशल मीडिया में सक्रिय होने के कारण उनकी संघर्षधर्मी इलाकों में पूछ परख हो रही है. यह एक अच्छा शकुन है. फिर भी यह गौरतलब है कि बस्तर के पीडि़त आदिवासियों के लिए उनकी ओर से दायर सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका में शिकायतकुनिंदा को ही खलनायक मान लिया गया और हिमांशु कुमार सहित आदिवासी याचिकाकर्ताओं पर 5 लाख रुपए का हर्जाना लगा दिया गया. अन्यथा उन्हें जेल की सजा भुगतने का उसी आदेश में परंतुक भी पढ़ा जा सकता है.
ऐसे नाज़ुक वक्त में रचनात्मक लेखन भी इन बातों से गाफिल कैसे रह सकता है? या अपने को इन जिम्मेदारियों से फारिग हो गया समझ सकता है? छत्तीसगढ़ का व्यापक नागरिक जीवन जहरीला और श्वास अवरोधक हो जाएगा. तब रचनात्मक साहित्य लेखन के भी जरिए उसे अपने पुराने दौर में कैसे लौटाया जाएगा?
फासिज्म का आ रहा खतरा यूरो-अमेरिकी इजारेदारों और वहां के हिंसक समाज से तो है. ‘नाटो‘ नहीं हो तो रूस को भी यूक्रेन पर हमला करने की क्यों ज़रूरत हो? कब तक जर्मनी की याद करेंगे कि कोई वहां हिटलर था या इटली में कोई मुसोलिनी भी हुआ जिसके पास दीक्षा भाव से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सरसंघ चालक हेगडेवार तथा विनायक दामोदर सावरकर के भी गुरु समझे जाते डा. बी.एस0 मुंजे मिलने गए थे.
वह परिघटना संघ-भाजपा के सोच में केन्द्रीय वायरस की तरह अब तक महसूस की जाती है. देश के लाखों किसान साल भर तक कथित गांधी शैली में अहिंसा के आधार पर भारत की राजधानी में सत्याग्रह तो करते ही रहे हैं. यह हिटलर की जुबान थी (याने फासीवाद/नाजीवाद की) जिसने भारत के वाइसरॉय रहे लॉर्ड हेलिफैक्स की जर्मनी यात्रा के समय उनसे कहा था कि गांधी से बातचीत या जिरह करने के बदले उसे गोली मार दो. उसके पीछे यदि उसके सैकड़ों कांग्रेसी समर्थक आते हैं. तो उनको भी गोली से उड़ा दो.
यह संदेश भी कहीं न कहीं ईथर में भारतीय निजाम के आचरण के लिए तैरता रहता है. फिलवक्त खतरा इटली, जर्मनी या अन्य इलाकों से आने वाले किसी हिंसक विदेशी वायरस का नहीं है. उसका भारतीयकरण सरकार और देसी कॉरपोरेटियों ने संभाल ही लिया है.
यक्ष प्रश्न है इनके खिलाफ और इनको लेकर देश के रचनात्मक हस्ताक्षर क्या कुछ कर पा रहे हैं या करना भी चाहते हैं. गैर भाजपाई सरकारों से आर्थिक या अन्य तरह का सहयोग और संरक्षण लेकर केन्द्रीय निजाम के खिलाफ आवाज़ें उठती भी हैं. उन गैर भाजपाई सरकारों की नैतिक और नीतिगत दशा भी परीक्षण के लिए उपलब्ध है ही. दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियां अरबपति, खरबपति कॉरपोरेटियों के कल्याण के लिए अलग अलग रास्ते पर कहां हैं?
कोई जानना क्यों नहीं चाहता कि संसद में किसी विधिक अधिनियम के पारित हुए बिना केवल सरकार याने प्रधानमंत्री की तुनक पर राष्ट्रीयकृत बैंकों में भारत की जनता के द्वारा जमा किया गया धन कॉरपोरेटियों को बिना जन इजाजत के पहले कर्ज में दे दिया जाए. फिर उसे बिना किसी जनअंकेक्षण के माफ कर दिया जाए.
उसका खमियाजा प्रकारांतर से फिर जनता को भुगतना पड़े, जिसके लिए उसे मिलने वाले वायदा किए हुए ब्याज की दर में लगातार कटौती की जाती रहे. फिर उस आर्थिक गफलत या हेराफेरी पर परदा डालने के लिए नोटबंदी की जाए. काला धन को उगलत निगलत की शैली में कायम रखते विदेशों से कथित रूप से वापस लाने का शिगूफा छेड़ा जाए और फिर गृह मंत्री कह दें कि वह तो प्रधानमंत्री का जुमला था.
विज्ञापनखोर, (वह भी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की निजी सामन्ती नस्ल की सनक पर) सुविधाभोगी, सरकारपरस्त और लगातार भ्रष्ट और अय्याश होता गोदी मीडिया संसार के इतिहास में सबसे बड़ा बौद्धिक कहा जाता खलनायक हो चुका मुखौटा है. इस ओर भी सचेत रहना बुद्धिजीवियों का फर्ज दिखाई देता है.
सरकार की आलोचना करती बड़ी से बड़ी कुछ राष्ट्रीय जन-परिघटना को किसी भी कीमत पर प्रकाशित नहीं करना गोदी मीडिया का सबसे विध्वंसक कारनामा है. जनअभिव्यक्तियों पर इस तरह लगाए जा रहे सेंसर के पीछे सरकार से गठजोड़ के कारण प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर मुट्ठी भर खरबपतियों का मालिकी कब्जा है. ‘लोहे से लोहा कटता है‘ की शैली में यदि स्वतंत्रचेता नागरिक अपनी अभिव्यक्तियों को प्रखर बनाएं तो इस दिशा में संभावनाएं दिखाई पड़नी शुरू हो सकती हैं. अन्यथा भी क्या होगा!
एक बहुत चिन्ताजनक दौर से हिन्दुस्तान घिसटता हुआ गुज़र रहा है. करीब करीब सभी संवैधानिक संस्थाओं में लोक न्याय का कॉंसेप्ट लकवाग्रस्त हो गया है. उस रोग से मुक्त होने की संभावनाएं अभी तो इलाज की हलचल में नहीं हैं. जनप्रतिनिधियों के संसदीय चुनाव तो कॉमेडी के दुखान्त नाटक हैं.
सत्ताशीन राजनीतिक पार्टी ने उसके द्वारा कबाड़ने वाला चंदा (इलेक्टोरल फंड) का हिसाब इस तरह अपनी मुट्ठी में कर लिया है कि वह वसूली कानून की जांच के परे हो गई है. कोरोना के राष्ट्रीय अभिशिप से भी फायदा उठाते पी.एम. केयर्स फंड बनाकर इतना और इतनी तरह से चंदा कबाड़ लिया है, जिसकी जानकारी संवैधानिक संस्थाओं को भी उनके द्वारा दिए जाने की आनाकानी और इन्कार की कानूनी जुगत बना ली गई है. सड़कों पर हिंसा फिल्मी कथाओं की तरह निर्देशित और अभिनीत की जा रही है.
संसार के सबसे ज़्यादा मजहबों को अपनी आगोश में आयातित/आयमित करने वाले देश में डरा दिया गया बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को समान नागरिक अधिकारों सहित जीने तक में परहेज करता है. अब तो आलम यह है कि इस बात का शोध किया जा रहा है कि राष्ट्रीय जीवन के हर लक्षण में खासतौर पर मुसलमान शब्द को इस तरह रेखांकित और परिभाषित किया जाए कि देश के बहुसंख्यक लोग हिंसा नफरत और खूंरेजी से भरते रहें. फिर उनके मनोविकारों को वोट बैंक का आधार बना दिया जाए, जिससे सेक्युलर लोकतंत्र को ही उसकी जड़ों से बेदखल किया जा सके.
सवाल यही है कि ऐसी हालत में क्या और कितना भारत जीवित रहेगा? जनमत लोकतंत्र का प्राण है. अब तो आलम है कि लोकमत ही दूषित कर दिया गया है. बुद्धिजीवी लेखक, रचनाकार, एक्टिविस्ट बेहद अल्प संख्या में हैं. उनकी मुश्कें हर तरह से बांधी जा रही हैं.
मानव अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए ‘अर्बन नक्सल‘ नाम का जहरीला शब्द ईजाद कर उन्हें गिरफ्तार कर जमानत देने तक से इन्कार किया जाने के जतन हैं. उसकी कोई अंतर्राष्ट्रीय तथा मानवीय या कानूनी अधिमान्यता भी नहीं है. यूरो-अमेरिकी संवैधानिक और कानूनी अवधारणाओं से प्रेरित भारतीय न्यायिक समझ में मनुष्य की आज़ादी का कोई विकृत अर्थ निजाम के कारण व्यवस्था के हलक में ठूंसा जा रहा है. तमाम पुलिसिया संस्थाओं मसलन सीबीआई, ईडी, एन आई ए, इन्कम टैक्स आदि को असहमति की आवाज का गला घोंटने के लिए सरेआम इस्तेमाल किया जा रहा है. अवाम है कि चुप है. डरा हुआ है. दहशत में है. बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार भी नहीं दिखता.