कीर्ति चक्र पाने वाले मुलाऊ को भूला छत्तीसगढ़
रायपुर। प्रफुल्ल ठाकुर छत्तीसगढ़ के एक किसान-मज़दूर को उनकी वीरता और अदम्य साहस के लिए देश के चौथे सर्वोच्च रक्षा सम्मान कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया. लेकिन 51 साल पहले उस वीर के परिजनों से किया गया सरकारी वादा आज तक पूरा नहीं हुआ.
मुंगेली जिले के मुलाऊ रावत उर्फ भुलउ यादव को मरणोपरांत यह वीरता सम्मान प्राप्त हुआ, लेकिन मुलाऊ और उनके परिवार को भुला दिया गया है.
लोगों को भूलने की आदत है, लेकिन सरकार ने भी कभी अपने ‘वीर’ को याद करने की जहमत नहीं उठाई.
छत्तीसगढ़ राज्य बने 24 साल हो गए हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार ने मुलाऊ और उनके परिवार की कभी कोई सुध नहीं ली.
अधिकांश सरकारी अफ़सरों को तो मुलाऊ के बारे में कुछ भी नहीं पता है.
क्यों मिला था कीर्ति चक्र
यह बात आज से 51 साल पुरानी है. तब मुंगेली बिलासपुर जिले का हिस्सा था और बिलासपुर अविभाजित मध्यप्रदेश का एक जिला था.
मुंगेली से 8 किलोमीटर दूर नांदघाट रोड पर एक गांव है चिरहुला. मुलाऊ इसी गांव के निवासी थे.
यह घटना 30 जुलाई सन् 1973 की है.
10 अप्रैल 1976 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित रक्षा अलंकरण समारोह के लिए प्रकाशित पुस्तिका के मुताबिक, 30 जुलाई की शाम को 12 बोर की राइफलों और देशी पिस्टलों से लैश 7 डाकू, चिरहुला के अहबरन सिंह के घर में सेंध लगाकर घुस गए.
डाकू उनके पौत्र को घायल कर वहां से गहने, नकदी और 12 बोर की एक राइफल लूट कर भाग निकले.
अहबरन सिंह के चिल्लाने की आवाज सुनकर उनके पड़ोसी मुलाऊ रावत अपने रिश्तेदार, राम लाल मुनेश्वर, राम सिंह, मंगू, पुसाऊ तथा रमेशरण के साथ मौके पर पहुंचे और डाकुओं का डटकर मुकाबला किया.
डाकुओं ने उन पर गोलियां चलाई, लेकिन अपनी जान की परवाह न करते हुए मुलाऊ आगे बढ़े और उन्होंने अपने साथियों को पूरे साहस से डाकुओं पर टूट पड़ने को कहा.
उन्होंने दो डाकुओं को मार गिराया और एक को जीवित पकड़ लिया.
इस मुठभेड़ में मुलाऊ वीरगति को प्राप्त हुए.
शेष डाकू भाग गए, लेकिन बाद में उनमें से दो पकड़े गए.
उनसे दो देशी पिस्टल, एक 12 बोर की राइफल और बड़ी संख्या में कारतूस बरामद हुए.
इस घटना में मुलाऊ रावत ने अद्वितीय साहस और दृढ़ता का परिचय दिया था.
उनकी आसाधारण वीरता के कारण भारत सरकार ने उन्हें सम्मानित करने का निर्णय लिया.
10 अप्रैल 1976 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित रक्षा अलंकरण समारोह में मुलाऊ की पत्नी श्रीमती अनुप्रिया बाई को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने देश के चौथे सर्वोच्च रक्षा सम्मान कीर्ति चक्र से सम्मानित किया.
मुलाऊ संभवतः छत्तीसगढ़ के पहले आम नागरिक हैं, जिन्हें देश का यह सर्वोच्च रक्षा सम्मान प्राप्त है.
कीर्ति चक्र भारत का शांति के समय वीरता का पदक है.
यह सम्मान सैनिकों और असैनिकों को उनकी असाधारण वीरता, साहस या बलिदान के लिए दिया जाता है.
यह मरणोपरांत भी प्रदान किया जाता है.
रक्षा सम्मानों के वरीयता क्रम में परमवीर चक्र, अशोक चक्र और महावीर चक्र के बाद कीर्ति चक्र चौथे नंबर पर आता है. इसके बाद वीर चक्र और शौर्य चक्र दिए जाते हैं.
इसकी स्थापना 1952 में की गई.
अब तक देश के 500 लोगों को यह सम्मान प्राप्त हुआ है.
थानेदार का अहम योदगान
मुलाऊ को कीर्ति चक्र दिलवाने में मुंगेली के तत्कालीन थानेदार मदन मोहन मिश्रा का अहम योगदान रहा.
उन्होंने इस पूरे घटनाक्रम की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करवाई और विभागीय स्तर पर खुद से प्रयास कर रिपोर्ट केंद्र सरकार को भिजवाई.
मुलाऊ की पत्नी अनुप्रिया बाई से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी मुलाकात की थी.
उन्होंने अनुप्रिया बाई को अपने घर बुलाया था और उनके साथ फोटो भी खिंचवाई थी. यह फोटो आज भी परिवार की धरोहर है.
मां की कोख में था बेटा
मुलाऊ के बेटे हैं- विरेंद्र यादव. विरेंद्र चिरहुआ में ही रहते हैं और किसी तरह अपना जीवन यापन करते हैं.
1973 में जब यह घटना घटी, तब विरेंद्र मां के गर्भ में थे.
घटना के करीब दो महीने बाद वे पैदा हुए.
उनकी मां अनुप्रिया जब सम्मान लेने राष्ट्रपति भवन गईं, तब विरेंद्र लगभग तीन साल के थे.
वे भी मां के साथ दिल्ली गए थे.
विरेंद्र बताते हैं, उन्होंने अपने पिता की वीरता और साहस की कहानी अपनी मां से सुनी है, “मेरे पिता डाकुओं से जमकर लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए. किसी दूसरे के लिए इस तरह जान दे देना कितने साहस की बात है.”
वे कहते हैं- “आज के समय में ऐसा भला कौन कर सकता है. मेरे पिता बहुत बहादुर थे और मुझे उन पर गर्व है.”
उनकी माता अनुप्रिया बाई का निधन 7 साल पहले 18 दिसंबर 2016 को हुआ.
पेंशन मिली पर जमीन नहीं
कीर्ति चक्र सम्मान प्राप्त होने के बाद मुलाऊ की पत्नी श्रीमती अनुप्रिया बाई को मध्यप्रदेश सरकार की ओर से 65 रुपए की आजीवन पेंशन प्राप्त होने लगी.
जिसे 17 सितंबर 1999 को बढ़ाकर 1050 रुपए कर दिया गया.
लेकिन कीर्ति चक्र प्राप्त करने वालों को मिलने वाली जमीन या नकद अनुदान मुलाऊ रावत के परिवार को कभी नहीं मिला.
मध्यप्रदेश शासन, सामान्य प्रशासन विभाग की ओर से 5 अगस्त 1983 को जारी एक पत्र में कीर्ति चक्र प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को 12 हेक्टेयर जमीन या 40 हजार रुपए सरकार की ओर से देने का उल्लेख है.
किंतु मुलाऊ के बेटे की लाख कोशिश के बावजूद उन्हें आज तक सरकार की ओर से जमीन नहीं दी गई.
नकद देने का मामला भी फाइलों में धरा रह गया.
खेती-मजदूरी कर पल रहा पेट
दूसरे के लिए अपनी जान दांव पर लगा देने वाले मुलाऊ रावत के बेटे विरेंद्र के पास कुल ढ़ाई एकड़ जमीन है, जिससे गुजर-बसर हो रहा है.
वे खेती-मजदूरी कर बड़ी मुश्किल से अपना और परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं.
पेट पालने के लिए वीरेंद्र और उनकी पत्नी को रोजी-मजदूरी तक करनी पड़ती है.
दो बेटियों की शादी करने के बाद विरेंद्र गांव के बाहर अपने खेत में दो कमरे का मकान बनाकर अपनी पत्नी के साथ रहते हैं.
उनके घर तक जाने का रास्ता भी नहीं है.
विरेंद्र कहते हैं-“पहले नाले के किनारे से घर तक जाने का रास्ता था. नाले पर दबंगों ने कब्जा कर उसे खेत में मिला लिय़ा. इससे मेरे घर पहुंचने का रास्ता बंद हो गया.”
अब दूसरों के खेत के मेड़ के जरिए अपने घर तक पहुंचते हैं.
ऊंचे मेड़ होने के कारण कई बार परिवार के लोग खेतों में गिर चुके हैं. लेकिन इस रास्ते के अलावा उनके पास और कोई विकल्प नहीं है.
‘जैसे जीते आए हैं, वैसे ही जी लेंगे’
मुलाऊ के बेटे विरेंद्र सरकार से काफी निराश हैं.
वे मध्यप्रदेश शासन, सामान्य प्रशासन विभाग का 5 अगस्त 1983 को जारी एक पत्र दिखाते हैं, जिसमें साफ तौर पर उल्लेख है कि कीर्ति चक्र प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को सरकार की ओर से 12 हेक्टेयर जमीन या 40 हजार रुपए दिए जाएंगे.
विरेंद्र कहते हैं-“जमीन के लिए मैंने काफी प्रयास किया, लेकिन जमीन नहीं मिल पाई.”
उन्होंने कलेक्टर से लेकर उच्च अधिकारियों और नेताओं तक से गुहार लगाई, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. थक-हार कर अब उन्होंने इसके लिए प्रयास बंद कर दिया है.
वे कहते हैं- “जैसे अब तक जीते आए हैं, वैसे आगे भी जी लेंगे. सरकार में बैठे लोग जब सुनते ही नहीं तो किसके आगे अपनी व्यथा सुनाएं. उनके पिता को जो सम्मान मिला है, उसकी अपनी गरिमा है. उस गरिमा और महत्व को सरकार नहीं समझ रही है, लेकिन उन्हें अपने पिता पर गर्व है.”