छत्तीसगढ़ में सिकुड़ रहे खेत
रायपुर | समाचार डेस्क: छत्तीसगढ़ में गांवों की जमीन पर उद्योगों के आकार लेने का असर सीधे तौर पर खेती पर पड़ रहा है. इसकी वजह से ‘धान का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में खेती का रकबा दिनों-दिन कम होता जा रहा है. खेती के रकबे कम होने से किसानों की संख्या में भी लगातार कमी होती जा रही है. भू-अभिलेख आयुक्त द्वारा जारी रिपोर्ट में प्रदेश के कम होते कृषि योग्य रकबे की तस्वीर सामने आई है.
रिपोर्ट पर यदि नजर डालें तो जनवरी 2004 से जून 2013 के बीच के एक दशक में 51 हजार 826 हेक्टेयर खेत खत्म हो गए हैं. आंकड़ों के मुताबिक, एक जनवरी 2004 को प्रदेश के तत्कालीन 16 जिलों में जहां 56 लाख 3 हजार 101 हेक्टेयर जमीन खेती योग्य थी, वहीं जून 2013 में यह रकबा घटकर 55 लाख 51 हजार 275 हेक्टयर ही रह गया.
राजस्व विभाग के उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक, यह आंकड़ा और भी बढ़ सकता है. ऐसा राजस्व अभिलेखों में भू-उपयोग का स्वरूप बदले बिना इसका व्यावसायिक और रिहायशी उपयोग की वजह से है. माना जाता है कि हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि भी उद्योगों के अवैध कब्जे में है.
खेती को लाभ का धंधा बनाने के दावों के बीच प्रदेश में तेजी से कम होते जा रहे कृषि योग्य भूमि के साथ ही किसानों की संख्या भी तेजी से कम हो रही है. 2001 की जनगणना के हिसाब से प्रदेश में किसानों की संख्या जहां 32 लाख थी, वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार यह संख्या घटकर मात्र 27 लाख हो गई है.
बताया जाता है कि बड़ी परियोजनाओं के लिए हुए भू-अधिग्रहण ने किसानों को काफी प्रभावित किया है. कृषि भूमि घटने के साथ ही बड़ी संख्या में छोटे और सीमांत किसान मजदूर बन गए हैं.
छत्तीसगढ़ के कृषि मामलों के जानकार आनंद मिश्रा का कहना है कि खेती के अनार्थिक होते जाने से किसानों का झुकाव इस ओर बढ़ा है कि जमीने बेच दी जाये. उन्होंने सीजीखबर से बात करते हुए बताया कि छत्तीसगढ़ में छोटे तथा सीमांत किसानों की संख्या ज्यादा रही है. उन्होंने ज्यादा कीमत को देखते हुए उद्योगों तो तथा रियल स्टेट सेक्टर को जमीने बेची हैं.
आनंद मिश्रा ने बताया कि पहले छत्तीसगढ़ में प्रति एकड़ 5-7 क्विंटल धान की पैदावार होती थी जो अब बढ़कर 15-18 क्विंटल प्रति एकड़ हो गई है. इस कारण से धान का उत्पादन घटा नहीं है. उन्होंने सवाल किया कि उत्पादन बढ़ने के बावजूद भी किसान गरीब क्यों हैं?
छत्तीसगढ़ प्रगतिशील किसान संगठन के अध्यक्ष आईके वर्मा ने कहा कि किसान खेती से दूर होते जा रहे हैं, जो दुखद है. उद्योगों, रेल और सड़क योजनाओं के अलावा आवासीय जरूरतों के लिए तेजी से कृषि योग्य जमीन खत्म हुई है. खेती में तेजी से मकान बन रहे हैं. इसके उलट पटवारी के रिकॉर्ड में वह कृषि भूमि ही है. खेती पर यह खतरा आंकड़ों से ज्यादा भयावह है.
कृषि वैज्ञानिक संकेत ठाकुर ने कहा कि प्रदेश की खेती पर चौतरफा दबाव है. सिंचित खेती का रकबा सीमित है. ऐसे में अधिकतर खेतों में एक फसल हो पाती है. छोटा किसान खेती को लाभ का धंधा नहीं बना पा रहा है. ऐसे में उससे छुटकारा आसान लगता है. ऐसा लगता है कि प्रदेश में पारंपरिक किसान खत्म हो जाएंगे.
वहीं, कृषि आंदोलनों से जुड़े नंदकुमार कश्यप ने बताया कि खेती का रकबा कम होने का मुख्य कारण है कि किसानों की जमीने अधिग्रहित की जा रहीं हैं. उन्होंने सीजीखबर से बात करते हुए बताया कि छत्तीसगढ़ के 12 जिलों में भूमि का अधिग्रहण किया जा रहा है. सबसे ज्यादा रायगढ़, कोरबा, जांजगीर, बिलासपुर तथा सरगुजा में जमीन अधिग्रहण किया गया है. रायगढ़ के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा कि रायगढ़ में करीब 3लाख एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया है.
जाहिर सी बात है कि तथाकथित विकास के नाम पर कृषि भूमि को खदानों, उद्योगों तथा रियल स्टेट के लिये कुर्बान किया जा रहा है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब ‘धान का कटोरा’ कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के किसान केवल ‘कटोरे’ के भरोसे रह जायेंगे.