छत्तीसगढ़ में रोजगार विहीन विकास
रायपुर | संवाददाता: सामाजिक आकलन के विपरीत छत्तीसगढ़ में सीमांत कामगार बढ़े हैं. सिर्फ लोक लुभावन घोषणाओं से छत्तीसगढ़ का भला नही होने वाला. इसे राज्य में सीमांत कामगारों की बढ़ती संख्या से आसानी से समझा जा सकता है, जिसने विकास के आंकड़ों को झुठला दिया है. जनगणना के आंकड़े इस तथ्य को चीख-चीख कर बयां कर रहे हैं.
विकास का अर्थ बढ़ते उद्योगों धंधे से भी है. इसके बाद भी यदि छत्तीसगढ़ में सीमांत कामगारो की संख्या बढ़ती जा रही है तो यही कहा जा सकता है कि विकास उन तक नही पहुँचा है जिनका दावा किया जा रहा है.
सीमांत कामगार उन्हें कहा जाता है जिन्हें साल भर में 183 दिनों या 6 माह से कम रोजगार मिलता है. जनगणना के आकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में सीमांत कामगारो की संख्या में पिछले दस वर्षो में करीब 50 प्रतिशत की बढ़त हुई है. इसी दरम्यान छत्तीसगढ़ की जनसंख्या में 29.79 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
चौंकाने वाली बात यह है कि छत्तीसगढ़ में जनसंख्या की वृद्धि दर से सीमांत कामगारों की संख्या में ज्यादा वृद्धि हो रही है. 2001 में छत्तीसगढ़ में सीमांत कामगार थे कुल 26 लाख 25 हजार 276 जो 2011 में बढ़कर 39 लाख 38 हजार 511 हो गए.. साल के 365 दिनों में यदि 183 दिनो या 6 माह से कम रोजगार मिले तो बाकी के 6 माह गुजारा कैसे चलेगा.
कायदे से सुशासन के अंतर्गत बाशिंदो को स्थायी रोजगार मिलना चाहिये. उनके जीवन स्तर में सुधार होना चाहिये. रोजगार से मिले पैसों को परिवार पर खर्च किया जा सकता है. जब नौकरी ही स्थाई न हो, कमाने खाने का ठिकाना न हो तो कौन ऐसे राज्य में स्थाई तौर पर रहना चाहेगा.
यही कारण है कि छत्तीसगढ़ से गाँव वाले रोजगार की तलाश में दिल्ली, उत्तर प्रदेश से लेकर जम्मू तक पलायन करते हैं. नये राज्य को बने करीब तेरह साल हो गये हैं बावजूद इसके विकास की हवा कामगारों के दरवाजे तक नही पहुँच पाई है.
कितने दुख की बात है कि अपने राज्य को छोड़कर दूसरे राज्यों में काम की तलाश में जाना पड़ता है जबकि दूसरे राज्यों से यहाँ लोग रोजगार की तलाश में आ रहें हैं. किया भी क्या जा सकता है जब कामगारों को अपने राज्य में पूरे साल भर काम न मिलता हो.
भले ही नदियों का पानी उद्योगों को दिया जा रहा है परन्तु उन उद्योगों से न गाँव में रोजगार के अवसर बढ़ें हैं न ही शहरों में रोजगार के अवसर बढ़ें हैं. बढ़ा है केवल उद्योगपतियों का खजाना. माँल खुल गयें हैं लेकिन जनता के अँटी में पैसा नही के बराबर है.
सीमांत कामगारों की संख्या में वृद्धि का सामाजिक निष्कर्ष यह है कि जो लोग काम करना चाहते हैं उन्हे साल भर काम नही मिल पा रहा है. केन्द्र सरकार की योजना मनरेगा तो ग्रामीण क्षेत्रो में रोजगार के अवसर मुहैय्या करवाने के उद्देश्य से लागू की गई है.
छत्तीसगढ़ के गाँवों में महिला सीमांत कामगार की संख्या 2011 में 22 लाख 89 हजार 616 थी जबकि पुरुष सीमांत कामगारों की संख्या 14 लाख 08 हजार 227 था. इसका अर्थ यह है कि क्या महिला क्या पुरुष, सभी बेरोजगारी के शिकार हैं. बेरोजगारी सबसे बड़ा सामाजिक अभिशाप है. इससे बच्चों की शिक्षा, परिवार के स्वास्थ्य तथा बुजुर्गों के देखभाल पर विपरीत असर पड़ता है.
सीमांत कामगारो का अर्थ ही है जिनका रोजगार स्थाई न हो. उसके बाद भी इनके संख्या में बढ़त यह बताता है कि अब छत्तीसगढ़ में रोजगार की संभावना कम हो गई है.
जिस राज्य में रोजगार के अवसर सिकुड़ रहें हो वहाँ के विकास को रोजगार विहीन विकास के अलावा क्या कहा जा सकता है. फिर इतना हो हल्ला किसका हो रहा है? जिन्हें सबसे ज्यादा काम की जरूरत है उन्हें तो काम मिल नही पा रहा है, ऐसे में इन्वेस्टर्स मीट करवा के सरकार किसका भला करना चाहती है, जाहिर है जनता का तो नही.