हाथियों की कब्रगाह : छत्तीसगढ़ में अब तक 218 हाथियों की मौत
रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ हाथियों की कब्रगाह बन चुका है. राज्य बनने के बाद से मार्च 2024 तक 218 हाथियों की मौत हो चुकी है. इनमें से बड़ी संख्या में राज्य में हाथियों की मौत करंट लगने से हुई है.
संकट ये है कि हाथियों की मौत का आंकड़ा साल दर साल गहराता जा रहा है.
इसकी भयावहता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 2020 से इस साल मार्च तक, छत्तीसगढ़ में 72 हाथियों की मौत हो चुकी है.
हाथी सरगुजा से लेकर बस्तर तक फैल चुके हैं.
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट बताती है कि छत्तीसगढ़ में देश के केवल 1 फ़ीसदी हाथी हैं.
इसी रिपोर्ट के अनुसार मानव-हाथी संघर्ष में मौत के 15 फ़ीसदी मामले छत्तीसगढ़ में हो रहे हैं.
गहराते आंकड़े
मध्यप्रदेश से अलग, जब छत्तीसगढ़ राज्य बना था, उस साल यानी 2000-2001 में हाथियों के हमले में कुल जमा दो लोग मारे गये थे. एक कोरबा में, जबकि दूसरा रायगढ़ में.
2022-21 में हाथियों के हमले में मारे जाने वालों की संख्या 74 हो गई है.
यानी हर पांचवें दिन, हाथियों के हमले में एक व्यक्ति मारा जा रहा है.
2000-2001 में हाथियों से फसल नुकसान के 21 मामले सामने आये थे. ये सभी मामले कोरबा ज़िले के थे.
लगभग 20 साल बाद 2019-20 में फसल नुकसान के मामलों की संख्या बढ़ कर राज्य में 20,424 हो गई.
इसका मतलब ये कि हर दिन फसलों के नुकसान के 55 मामले सामने आ रहे हैं.
2001-02 में रायगढ़ के बलभद्रनगर में एक हाथी मारा गया था. पूरे साल भर में किसी हाथी की यह एक मात्र मौत थी.
इसके 20 साल बाद, 2022-23 में राज्य में 23 हाथियों की मौत हुई. यानी हर महीने लगभग दो हाथी मारे गए.
सरगुजा से बस्तर तक अब हाथियों का साम्राज्य है.
अपने घरों से विस्थापित हाथी, यहां से वहां भाग रहे हैं.
विस्थापन और फिर मानव हमलों से आक्रोशित हाथी लोगों को मार रहे हैं, खुद भी मारे जा रहे हैं.
ऐसा लग रहा है, जैसे एक अंतहीन सिलसिला शुरु हो गया है.
हाथियों की कब्रगाह और संवेदनहीन वन विभाग के अफ़सर
रायगढ़ के धर्मजयगढ़ जैसे जिन इलाकों में वन विभाग ने एक साल में फसल नुकसान के एक-एक हज़ार मामलों में मुआवजा बांटा, उन्हीं इलाकों में वन विभाग के भ्रष्ट अफ़सरों ने कोयला खदानों के लिए अपनी अनापत्ति यह लिखते हुए दी कि ‘यहां हाथी यदा-कदा आते हैं.’
एक के बाद एक कोयला खदान खुलते चले गए और हाथियों का रहवास, उनका कॉरिडोर छीनता चला गया.
हाथियों के लिए सरगुजा हाथी रिजर्व और लेमरु हाथी रिजर्व भी बनाया गया.
लेकिन हाथी रिजर्व का हाल ये है कि लेमरु हाथी रिजर्व में आज की तारीख़ में कोई कोई निदेशक या उप निदेशक तक नहीं है.
फ़र्ज़ी आंकड़ों को गढ़ने वाले छत्तीसगढ़ के वन विभाग के अधिकारी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभा तक को, मानव-हाथी संघर्ष के झूठे और भ्रामक आंकड़े दे रहे हैं.
खनन, खनन और खनन
छत्तीसगढ़ के सरगुजा और कोरबा में फैले हसदेव अरण्य के इलाके को केंद्र सरकार ने किसी ज़माने में ‘नो गो एरिया’ घोषित किया था.
कोल इंडिया और वन विभाग के साझा अध्ययन में पूरे देश में यह अकेला ऐसा इलाका था, जिसे पारिस्थितकीय रुप से बेहद समृद्ध होने के कारण ‘No Go area’मान कर यहां किसी भी खनन गतिविधि को अनुमति नहीं देने का फ़ैसला किया गया था.
लेकिन अडानी के एमडीओ वाले पहले कोयला खदान ‘परसा ईस्ट केते बासन’ को यहां मंजूरी दी गई और इसके बाद तो जैसे सिलसिला ही शुरु हो गया.
दावा किया गया कि राजस्थान की बिजली के लिए हसदेव अरण्य में कोयला खनन जरुरी है.
लेकिन इसके बाद भी और नये खदानों को मंजूरी दी गई.
राजस्थान की ज़रुरत की हकीकत
राजस्थान विद्युत उत्पादन की कुल वार्षिक आवश्यकता 21 मिलियन टन अधिकतम है और हसदेव में राजस्थान को आवंटित और पहले से चालू पीईकेबी खदान की वार्षिक क्षमता 21 मिलियन टन है.
केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण भारत सरकार की संस्था है, जो विभिन्न पावर प्लांट में यूनिट साइज के अनुसार कोयले की खपत निर्धारण के मापदंड तय करती है.
उसके 20 जुलाई 2021 को इस संबंध में जारी आदेश क्रमांक 219/GC/BO/TPPD/CEA/2021/224 के अनुसार राजस्थान की कुल अधिकतम वार्षिक आवश्यकता (जब प्लांट 85% की क्षमता से चले) गणना करने पर राजस्थान की कुल वार्षिक आवश्यकता 21 मिलियन टन है.
राजस्थान के पावर प्लांट, जहां हसदेव से कोयला जाना है
पावर प्लांट | यूनिट नंबर | हसदेव के कोल ब्लॉक से लिंक क्षमता |
---|---|---|
छाबड़ा पावर स्टेशन | 3 व 4, प्रत्येक 250 MW | 500 MW |
छाबड़ा पावर स्टेशन | 5 व 6, प्रत्येक 660 MW | 1320 MW |
कालीसिंध पावर स्टेशन | 1 व 2, प्रत्येक 600 MW | 1200 MW |
सूरतगढ़ पावर स्टेशन | 7 व 8, प्रत्येक 660 MW | 1320 MW |
कुल | 4340 MW |
राज्य सरकार ने साल भर पहले 16 जुलाई 2023 को सुप्रीम कोर्ट में यह हलफनामा दिया है कि जिस खदान परसा ईस्ट केते बासन में पहले से खुदाई चल रही है, वहां 350 मिलीयन टन कोयला अभी खुदाई के लिए बचा हुआ है.
अपने हलफनामे में छत्तीसगढ़ सरकार ने साफ कहा है कि राजस्थान के 4340 मेगावाट की ज़रुरत को अगले 20 साल तक इस एक अकेले कोयला खदान से पूरा किया जा सकता है.
राजस्थान को आवंटित कोयला से अडानी चला रहा पावर प्लांट
केवल एक साल का आंकड़ा ये है कि राजस्थान को आवंटित इस खदान से करीब 30 लाख टन कोयला अडानी समूह ने अपने पावर प्लांट और दूसरे उद्योगों को भेजा.
2021 में अडानी समूह ने इस खदान से 49 हज़ार 229 वैगन कोयला अपने पावर प्लांट समेत दूसरी कंपनियों को भेजा.
इसमें से अकेला 39 हजार 345 वैगन कोयला अडानी ने अपने पावर प्लांट में भेजा.
राजस्थान सरकार के साथ अडानी ने इस तरह का करार किया है कि राजस्थान के लिए आवंटित इस कोयला खदान के कोयले का उपयोग अडानी समूह अपना रायपुर का पावर प्लांट के लिए करता रहा.
अब अडानी समूह इस खदान के दूसरे चरण की खुदाई में अभी से जुटा हुआ है.
अकेले इस खदान के लिए हसदेव के घने जंगल के कम से कम 2,22,921 पेड़ों की कटाई की जानी है. पेड़ों का यह आंकड़ा बरसों पुराना है. इस बीच पेड़ों की संख्या भी बढ़ी है.
आदिवासी परसा और केते एक्सटेंशन खदान का विरोध कर रहे हैं.
आदिवासियों का कहना है कि इन दोनों ही खदानों की स्वीकृतियां ग़ैरकानूनी तरीके से हासिल की गई हैं.
चेतावनियों की अनदेखी
दो साल पहले ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा किए गए अध्ययन के बाद हसदेव अरण्य में एक भी नया खदान खोलने पर भयावह मानव-हाथी संघर्ष की चेतावनी दी थी.
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा- “राज्य में मानव-हाथी संघर्ष पहले से ही तीव्र है और हाशिये पर पड़े आदिवासियों पर भारी सामाजिक और आर्थिक लागत बढ़ रही है. इस हालत में हाथियों के अक्षुण्ण आवासों के लिए कोई भी और खतरा, संभावित रूप से मानव-हाथी संघर्ष को राज्य के अन्य नए क्षेत्रों में स्थानांतरित कर सकता है, जहां राज्य के लिए इस संघर्ष को कम करना असंभव होगा.”
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने चेतावनी देते हुए कहा- “हसदेव अरण्य कोल फिल्ड, में सीमांकित कोयला ब्लॉकों को खोलने से जैव विविधता संरक्षण और वन-निर्भर स्थानीय समुदायों की आजीविका की अनिवार्यताओं से समझौता होगा. यहां तक कि जहां भी संभव हो, पीईकेबी और चोटिया में पहले से चालू खदानों के प्रभावों को भी चतुराई से कम करने की आवश्यकता है.”
लेकिन इन चेतावनियों को किनारे कर के नये खदान खोले जा रहे हैं.
राज्य सरकार परसा और केते एक्सटेंशन को मंजूरी दे चुकी है.
ज़ाहिर है, आने वाले दिन, हाथियों की कब्रगाह बन चुके छत्तीसगढ़ में, मानव-हाथी संघर्ष के लिहाज से भयावह होने वाले हैं.
क्या इस संघर्ष की ध्वनि को सुनने के लिए कोई तैयार है?