अटल, भाजपा और छत्तीसगढ़ चुनाव
दिवाकर मुक्तिबोध :छत्तीसगढ़ मे क़रीब 15 वर्षों से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की सरकार को ऐन चुनाव के पूर्व मतदाताओं को भावनात्मक रूप से आकर्षित करने के लिए एक नया हथियार हाथ लग गया है- अटल स्मृति हथियार. देश के पूर्व प्रधानमंत्री व भाजपा के शीर्षस्थ स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की यादों को चिरस्थायी बनाने की दिशा में रमन सरकार ने अन्य भाजपा शासित राज्यों से बाज़ी मारी है.
रमन कैबिनेट की 21 अगस्त को हुई बैठक में केवल राज्य के नाम के आगे अटल जोड़ने के अलावा कोई ऐसा कोना नहीं छोड़ा गया, जिसमें अटल -सुगन्ध न हो, अटलजी की याद न हो. अटलजी के नाम पर दर्जनों नामकरण. शैक्षणिक संस्थाओं, सड़कों, बाग़ बगीचों को अटलजी का नाम. और तो और 5 सितंबर से शुरू होने वाली दूसरे चरण की विकास यात्रा का नाम-भी अब अटल विकास यात्रा होगा जो राज्य में आदर्श आचार संहिता लागू होने के पूर्व ख़त्म होगी. यानी यह माना जा रहा है कि भाजपा के चुनावी एजेंडे में प्रमुख रूप से अटल बिहारी वाजपेयी रहेंगे जिन्हें तीन नये राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड व उत्तराखंड का जनक माना जाता है.
रमन मंत्रिमंडल की बैठक में लिए गए फ़ैसलों के अनुसार नई राजधानी जिसे नया रायपुर के नाम से जाना जाता है, का नया नामकरण अटल नगर होगा. इस नये नगर में अटलजी की विशाल प्रतिमा स्थापित की जाएगी तथा यहाँ के सेंट्रल पार्क व कलेक्टोरेट पार्क को अटलजी का नाम दिया जाएगा. मड़वा बिजलीघर व पुराने रायपुर में निर्माणाधीन एक्सप्रेस वे भी अटलजी के नाम से जाना जाएगा. बिलासपुर विश्वविद्यालय व राजनांदगाव मेडिकल कॉलेज का नाम अटल बिहारी वाजपेयी होगा. इसके अलावा रायपुर सहित राज्य के प्रत्येक जिले में अटलजी की प्रतिमा स्थापित की जाएगी.
यही नहीं प्रतिवर्ष 1 नवंबर से शुरू होने वाला राज्योत्सव अब अटलजी को समर्पित रहेगा और चूँकि वाजपेयी कवि भी थे लिहाजा उनकी स्मृति मे कवियों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार व त्रिस्तरीय पंचायतों व नगरीय निकायों के लिए अटल बिहारी वाजपेयी सुशासन पुरस्कार भी दिए जाएँगे.
छत्तीसगढ़ शिक्षा मंडल की पाठ्य पुस्तकों में अटल बिहारी वाजपेयीजी की जीवनी शामिल की जाएगी ताकि बच्चे उनके जीवन से प्रेरणा ले सकें.
पोखरण में सफल परमाणु परीक्षण का श्रेय मुख्यत: अटलजी को है अत: छत्तीसगढ सशस्त्र बल की एक बटालियन का नाम पोखरण बटालियन किया जाएगा. राज्य में इतने नये नामकरण के बाद भी यदि कोई चीज़ छूट गई होगी तो बहुत संभव है कि कैबिनेट की अगली किसी बैठक में अटलजी का नाम उसके साथ जोड़ दिया जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए. क्योंकि घबराई हुई भाजपा हर वो तरीक़े अपनाना चाहती है, जिसके बल पर अगला चुनाव जीता जा सके.
बहरहाल नये ‘अटल-शस्त्र’ के साथ प्रदेश भाजपा लगातार चौथी बार सत्ता का मैदान मारने की फ़िराक़ में है. सहानुभूति की वह लहर जिसके बारे में उम्मीद की जाती है कि वह वोटों मे तब्दील होगी, भारतीय राजनीति में कोई अनोखी घटना नहीं है.
31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिसंबर 1984 के लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली जो कि अब तक अविजित कीर्तिमान है. कांग्रेस ने 511 में से 414 सीटें जीतीं. जाहिर यह रिकॉर्ड सफलता इंदिरा गांधी की हत्या की वजह से उपजे जन-आक्रोश की वजह से थी, जो सहानुभूति के रूप में वोटों में तब्दील हुई.
कुछ ऐसी ही परिस्थितियां 21 मई 1991 को राजीव गांधी की हत्या के बाद पैदा हुई. तत्काल बाद जून में हुए लोकसभा चुनाव में गठबंधन सरकार पराजित हुई और कांग्रेस सत्ता में आ गई. यह आक्रोश व सहानुभूति के वोटों का मिला-जुला कमाल था, जिसमें इंदिरा व राजीव, दोनों के विराट व्यक्तित्व व बेइंतिहा लोकप्रियता का भी समावेश था. कांग्रेस ने उनकी शहादत को अच्छी तरह भुनाया.
अटलजी के नाम पर अब वही काम प्रदेश भाजपा करने जा रही है. हालाँकि अब समय-काल व राजनीतिक परिस्थितियों में बड़ा फ़र्क़ है. फिर भी भाजपा के लोग यह मानते हैं कि अटल-लहर इच्छित परिणाम देगी. लिहाजा अब चुनाव प्रचार के दौरान जनता को बार-बार यह अहसास कराया जाएगा कि छत्तीसगढ़ में आज ख़ुशहाली इसलिए है क्योंकि शहरी व ग्रामीण विकास का रथ बहुत तेज़ी से दौड़ रहा है और इसकी बड़ी वजह मध्यप्रदेश से अलग होकर अपने लिए नये राज्य का निर्माण है. जिसका संपूर्ण श्रेय तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को है. यानी उनके कथित सुखमय संसार के पीछे अटलजी है जिनका भावनात्मक लगाव छत्तीसगढ़ियों से रहा है.
इसलिए यह कहा जाएगा कि मतदाताओं के पास कुछ हद तक अटल-ऋण चुकाने का अवसर आगामी नवंबर-दिसंबर में है. इस चुनावी गान के साथ भाजपा मतदाताओं की भावनाओं को पार्टी के पक्ष में उद्वेलित करने कोई कसर नहीं छोड़ेगी. लेकिन वोटरों पर इस मुहिम का कितना असर होगा, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है. क्योंकि राज्य के मतदाता ख़ासकर शहरी, यह भलीभाँति जानते हैं कि भाजपा ने दिवंगत अटलजी की देशव्यापी छवि को भुनाने की कोशिश शुरू कर दी है.
इस संदर्भ मे अटलजी की भतीजी, पूर्व सांसद और कभी भाजपा के राष्ट्रीय संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर रहीं करूणा शुक्ला की प्रतिक्रिया महत्वपूर्ण है. उन्होंने अपने एक बयान में प्रदेश सरकार की कटु आलोचना करते हुए कहा है कि रमन सरकार ने गत दस वर्षों में अटलजी के जीवित रहते उनकी कभी सुध नहीं ली, उन्हें चुनावी तथा इतर पोस्टरों मे भी जगह नहीं दी, उन्हें पूर्णत: भुलाए रखा और अब जब विधान सभा चुनाव सिर पर हैं और पराजय के बादल घनीभूत हैं तब संगठन को अटल याद आ रहे हैं, और उनका यशगान किया जा रहा है. उनकी स्मृति में सरकार संस्थाओं के नामकरण कर रही है. उनके नाम पर वोटों की राजनीति की जा रही है जो दुखद है और इससे वे क्षुब्ध हैं.
अधिकृत तौर पर दिया गया करूणा शुक्ला का यह बयान उस व्यक्ति का बयान है, जो 32 वर्षों तक भाजपा में रही है. फरवरी 2014 से वे कांग्रेस में है. उनकी बातों से भी समझा जा सकता है कि भाजपा के लिए अटल जी एकाएक अति महत्वपूर्ण क्यों हो गए हैं. ख़ासकर भाजपा शासित उन राज्यों के लिए जहाँ निकट भविष्य में विधान सभा चुनाव होने हैं.
करूणा शुक्ला का बयान तो ख़ैर अपनी जगह है ही पर इसमें शायद दो राय नहीं कि सरकार ने अटलजी के नाम को भुनाने के लिए जो जल्दबाज़ी दिखाई, वह उसकी नीयत की चुगली करती है. थोक में नामकरण करने के बजाए बेहतर होता चुनिंदा संस्थानों को नाम दिया जाता. यह और भी ठीक होता, अटलजी के जीवित रहते उनके सम्मान में कोई नामकरण किया जाता. मसलन बिलासपुर विश्वविद्यालय या राजनांदगाँव मेडिकल कॉलेज को उनका नाम दिया ही जा सकता था. अथवा नया रायपुर को अटल नगर पहले भी किया जा सकता था.
जब व्यक्ति के जीवित रहते उनकी प्रतिमाएँ लग सकती हैं तो यह केवल नाम का मामला था. फिर यह भी स्मरणीय है कि केन्द्र सरकार की करीब एक दर्जन योजनाओं का नाम अटलजी के नाम पर है.
बहरहाल मुद्दे की बात यह है कि भाजपा के इस नये चुनाव-प्रचार अभियान, जिसके शुरू होने में संशय नहीं है, का क्या इतना असर होगा कि मतदाता भावनाओं में बहकर फ़ैसला करेंगे ? क्या भाजपा की रणनीति कामयाब होगी ? इसका जवाब राज्य के पहले विधान सभा चुनाव के परिणामों से मिलता है.
दरअसल छत्तीसगढ को बने 18 वर्ष हो चले हैं. यह काफ़ी लंबी अवधि होती है. लिहाजा हर्षित जन-भावनाओं के तूफ़ान का थम जाना स्वाभाविक है. हकीकतन उमंग व उल्लास के बावजूद वह कभी इतना तेज़ नहीं रहा कि उसमें बहकर मतदाता दो टूक फ़ैसला करें.
मिसाल के तौर पर राज्य निर्माण के तीन साल बाद ही विधान सभा के चुनाव हुए. सरकार कांग्रेस की थी व अजीत जोगी मुख्यमंत्री थे. चुनाव में भाजपा जीती ज़रूर पर उसकी जीत में बड़ा योगदान कांग्रेस से अलग हुए विद्याचरण शुक्ल की पार्टी एनसीपी का था, जिसने क़रीब 7 प्रतिशत वोट हासिल करके भाजपा की जीत की नींव रखी. यानी उस वक़्त भी अटलजी के कारण एक अलग तरह के आनन्द से अभिभूत जनता ने भाजपा को भारी बहुमत से नहीं जिताया, एकतरफ़ा फ़ैसला नहीं दिया.
यह घटना यह बताने के लिए पर्याप्त है कि छत्तीसगढ़ के मतदाता कितने जागरूक व विवेकशील हैं और अपने मताधिकार का प्रयोग सोच-समझकर करते हैं. हालांकि इसमें भी संशय नहीं कि अटलजी का उदारवादी चेहरा जनता को बहुत भाता है. उनका न रहना यक़ीनन देश की स्थायी क्षति है. पर इसके बावजूद प्रदेश भाजपा का ‘अटल -भावनाओं’ का अस्त्र मारक होते हुए भी चल पाएगा, सोचना कठिन है.
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.