कुत्ते ने काटा तो किसकी पौ बारह
रायपुर | विशेष संवाददाता: छत्तीसगढ़ की राजधानी में हाल ही में आवारा कुत्ते ने हड़कंप मचा दिया. राजधानी रायपुर के दो मुहल्लों में एक आवारा कुत्ते ने शाम को ही 24 महिलाओँ तथा बच्चों को दौड़ा-दौड़ाकर काटा. गैर-सरकारी आकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में छत्तीसगढ़ में करीब 30 हजार से ज्यादा लोग कुत्ते के काटने के शिकार हुये हैं. इनमें से 10,188 लोगों ने छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा प्रदत्त स्मार्ट कार्ड से एंटी रैबीज का टीका लगवाया. यह दिगर बात है कि जैसे ही कुत्ता किसी को काटता है वैसे ही कुत्ते काटने के बाद लगने वाली रैबीज प्रतिरोधी टीका को बनाने वाली दवा कंपनी की पौ बारह हो जाती है. इससे दवा कंपनियों को पांच गुना दवा बेचने का मौका मिल जाता है. आइये इसे विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं.
कुत्ते के काटने के बाद एंटी रैबीज का 5 टीका लगवाना पड़ता है. पहले दिन, तीसरे दिन, सातवें दिन, चौदहवे दिन तथा 28वें दिन. रैबीज वैक्सीन की छठवां टीका केवल उन्हें ही लगाया जाता है जो या तो स्टीरायड ले रहें हैं या जिनमें रोग-प्रतिरोध की क्षमता कम होती है. साधारणतः एंटी रैबीज के 5 टीके लगाना ही काफी होता है.
यहीं पर इसे बनाने वाली दवा कंपनियों का खेल शुरु हो जाता है. लेकिन क्या कीजियेगा, विज्ञान तथा तकनालॉजी जिसका विकास मानव समाज की बेहतरी के लिये हुआ है, परन्तु इस पर धन्ना सेठों का कब्जा है. जाहिर है कि वे अपने लगाये धन की पूरी वसूली कर लेते हैं. हां, यदि रैबीज के टीके बनाने का काम केन्द्र सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय करता तो शायद बात दूसरी होती.
रैबीज के टीके की एक खुराक की कीमत पड़ती है 319 रुपये. इस तरह से इसके पांच टीके लगवाने पर मरीज को कुल खर्चा आता है 1,596 रुपये. लेकिन क्या आपको मालूम है कि कुत्ते के काटने के बाद लगने वाले एंटी रैबीज के इन टीकों को केवल 319 रुपयों में ही लगाया जा सकता है. जी हां, लगाया जा सकता था यदि इसे बनाने वाली दवा कंपनी इसकी इज़ाजत देती तब. (इस तरह से केवल छत्तीसगढ़ में ही एक साल में 4 करोड़ 78 लाख रुपयों का एंटी रैबीज टीका बिक गया जबकि इसे कम करके 95 लाख 76 रुपया किया जा सकता था.)
आपको जानकर आश्चर्य हो रहा होगा कि टीके लगाने का पर्चा तो चिकित्सक देते हैं फिर दवा कंपनियों से इज़ाजत लेने की बात कहां से आ टपकी. मित्रों, आजकल दवायें दवा कंपनियां बनाती हैं जिन्हें चिकित्सकों को लिखना पड़ता है. जो दवा, दवा कंपनियां न बनाये उसे भला चिकित्सक कैसे लिख सकते हैं? क्योंकि वह आपको बाजार में मिलेंगी ही नहीं.
अब आइये मूल विषय पर. 1984 में थाइलैंड के रेडक्रास सोसायटी ने यह तकनीक ईजाद की कि यदि इस टीके को इन्ट्रामस्कुलर (मांस पेशियों में) लगाने के बजाये इन्ट्राडर्मल (चमड़ी के नीचे, जैसे इन्सुलिन लगाया जाता है) लगाया जाता है तो केवल 0.1 मिलीलीटर की मात्रा से ही काम चल जाता है.
इंट्राडर्मल में 0.1 मिली लीटर के दो इंजेक्शन लगाने पड़ते हैं. अर्थात इस प्रक्रिया से इंजेक्शन लगाने पर खर्च पांच गुना कम पड़ता है. थाइलैंड में कुत्ता काटने का इलाज इंट्राडर्मल इंजेक्शन द्वारा किया जाता है. 1992 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस विधि को मान्यता प्रदान कर दी. फिलीपिंस में 1993 तथा श्रीलंका में 1996 से इस विधि से ही रैबीज का टीका लगाया जाता है. भारत सरकार ने मार्च 2006 में इस इंट्राडर्मल विधि को मान्यता दे दी है.
भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन आने वाले National Institute of Communicable Diseases ने साल 2007 में जारी National Guidelines For Rabies Prophylaxis and Intra-dermal Administration of Cell Culture Rabies Vaccines में इसकी पुष्टि कर दी थी.
लेकिन इस पूरे मामले में दवा कंपनियों का खेल चौंकाने वाला है. यह ठीक है कि दवा कंपनियों ने नई टेक्नालॉजी से बने सुरक्षित रैबीज के टीके का उत्पादन तथा विक्रय हमारे देश में किया है लेकिन इन कंपनियों ने एक और तक्नालॉजी, जिसके द्वारा इससे पांच गुना कम खर्च पर इंट्राडर्मल उपयोग के द्वारा रैबीज का टीका लगाया जा सकता है, उसे आज की तारीख तक भी भारत में उपलब्ध ही नहीं कराया है.
जब तक रैबीज के टीके की 0.1 मिली लीटर या 0.2 मिली लीटर की मात्रा में हमारे देश में उपलब्ध नहीं होता तब तक कुत्ता काटने का इलाज पांच गुना अधिक कीमत चुका कर ही संभव है. तभी तो हम कहते हैं कुत्ते ने काटा तो दवा कंपनियों की पौ बारह.