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कितने दूर, कितने पास

दिवाकर मुक्तिबोध
हाल ही में सीएम हाउस में आयोजित एक कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. सीएम डॉ. रमन सिंह के बोलने की जब बारी आई तो उन्होंने अपने प्रारंभिक संबोधन में मंच पर आसीन तमाम हस्तियों मसलन मुख्य सचिव विवेक ढांड, रियो ओलम्पिक में महिला हाकी टीम की सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व करने वाली राजनांदगांव की कल्पना यादव, महापौर प्रमोद दुबे, राज्य के मंत्री राजेश मूणत तथा आयोजन के प्रमुखों का नाम लिया किंतु राज्य के सबसे कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल का नाम लेना वे भूल गए. क्या वास्तव में भूल गए या जानबूझकर छोड़ दिया? ऐसा प्राय: होता नहीं है. मुख्यमंत्री मंचस्थों के सम्मान का हमेशा ध्यान रखते हैं. इसलिए मान लेते हैं कि बृजमोहन अनायास छूट गए. पर यदि राजनीति की परतों को एक एक करके खोला जाए तो यह बात पुन: स्पष्ट होती है कि बृजमोहन मुख्यमंत्री के निकटस्थ मंत्रियों में शुमार नहीं है. इसलिए इस घटना से दूरियां दर्शाने वाला एक संदेश तो जाता ही है. सो, वह गया.

दरअसल रमन सिंह मंत्रिमंडल में जो इने-गिने प्रगतिशील विचारों एवं राजनीतिक सूझ-बूझ के मंत्री हैं, उनमें बृजमोहन टॉप पर हैं. मुख्यमंत्री के नेतृत्व को यदि चुनौती किसी से है तो वे बृजमोहन से ही है. भारतीय जनता पार्टी में प्रदेश स्तर की लोकप्रियता की बात करें तो सिर्फ दो ही नाम आएंगे स्वयं मुख्यमंत्री रमन सिंह और बृजमोहन अग्रवाल. मुख्यमंत्री की छवि एक सीधे-सरल, मिलनसार व्यक्ति की है, तो बृजमोहन सामाजिक सरोकारों में बेजोड़ हैं, व्यक्तित्व संबंधों के वे सबसे बड़े खिलाड़ी हैं, हर किसी के सुख-दु:ख में शामिल होने वाले. पर कूटनीति में वे रमन सिंह के मुकाबले कच्चे हैं. शांत प्रकृति के रमन सिंह ने जिस कूटनीति से पिछले 12 वर्षों से अपनी सत्ता को बनाए रखा है, अद्भुत है. और तो और यदि भाजपा राज्य में अगले दो चुनावों में यानी चौथी-पांचवीं बार भी अपनी सत्ता कायम रख पाई तो उनके (रमन सिंह के) नेतृत्व को चुनौती नहीं है, ऐसा इंतजाम उन्होंने कर रखा है. दूर-दूर तक कोई विकल्प नहीं-बशर्तें बृजमोहन को छोड़ दें.

डाक्टर साहब ने बार-बार आदिवासी नेतृत्व की मांग करने वाले वरिष्ठ आदिवासी नेताओं को या तो ठिकाने लगा दिया है या अपने वश में कर लिया है. सबसे प्रखर नंदकुमार साय तो भीगी बिल्ली बन गए हैं और अब पार्टी अनुशासन का राग अलापते रहते हैं. पार्टी में पिछड़े वर्ग का प्रबल प्रतिनिधित्व करने वाले व सातवीं बार लोकसभा के लिए चुने गए रमेश बैस की दाल उन्होंने कभी गलने नहीं दी. बैस अभी भी फडफ़ड़ा रहे हैं. वे अब प्रदेश की कोर कमेटी में भी नहीं है. कुल मिलाकर पार्टी में रमन सिंह का दबदबा कायम है. हालांकि केंद्रीय नेतृत्व के लिए यह चिंता का विषय है. क्योंकि विकल्प की मौजूदगी राजनीतिक संतुलन को बनाए रखने के लिए जरूरी होती है. इसके अलावा दलीय राजनीति में किसी की इतनी उंचाई बर्दाश्त नहीं की जाती कि वह आसमान को छूने लगे. इसलिए रमन सिंह को अभयदान नहीं हैं, तलाश जारी है.

अब बृजमोहन पर लौटते हैं. बृजमोहन पार्टी में सबसे बड़े ट्रबल शूटर हैं. सदन में व सदन के बाहर विपक्ष के हमलों का ताबड़तोड़ जवाब देने में माहिर बृजमोहन को बेजोड़ चुनाव संचालक माना जाता है. प्रदेश में पिछले 12 वर्षों में जितने भी उपचुनाव हुए हैं, बृजमोहन को कमान दी जाती रही है. उनके संचालन में चुनाव जीते गए हैं. भले ही पार्टी ने उनके इशारे पर करोड़ों रुपए बहा दिए हों. चुनाव के दौरान प्रतिबद्ध वोटों को भी कैसे पलटाया जाता है, उन्हें अच्छी तरह आता है. वे दाम वाले नेता हैं, दंड से दूर रहते हैं.

संसदीय जीवन के 25 वर्ष पूर्ण कर चुके बृजमोहन का सपना प्रदेश का नेतृत्व संभालने का रहा है पर अतीत में कुछ राजनीतिक घटनाएं ऐसी हुई हैं जिन्होंने उच्च सत्ता के मार्ग पर उनके लिए कांटे बिछा रखे हैं. वे इस बात को समझते हैं इसलिए उनकी समूची ताकत अपनी मौजूदा स्थिति को बनाए रखने में लगी रहती है. हालांकि मंत्रिमंडल में नम्बर दो की पोजीशन से वे कब के बिदा हो चुके हैं. मुख्यमंत्री ने उनके पर कतरने में कभी कोई कमी नहीं की पर उन्हें एकदम जमीन पर नहीं लिटा पाए. बृजमोहन ने ऐसा नहीं होने दिया है.

दरअसल अविभाजित मध्यप्रदेश एवं बाद में छत्तीसगढ़ प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष रहे स्वर्गीय लखीराम अग्रवाल की वह रिपोर्ट बृजमोहन की राजनीति प्रगति में अभी भी सबसे बड़ी बाधा है जो उन्होंने 2000-2001 के दौरान पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के पास भेजी थी. उन दिनों छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी और भाजपा विपक्ष में. नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के दौरान संघ कार्यालय, एकात्म परिसर में बृजमोहन समर्थकों ने जो हंगामा पेश किया था, जो तोड़-फोड़ व आगजनी की थी, लखीराम बहुत आहत हुए थे.
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी छत्तीसगढ़ प्रभारी थे और नेता प्रतिपक्ष के चुनाव के दौरान कार्यालय में मौजूद थे. घटना के बाद बृजमोहन पार्टी से निलंबित कर दिए गए. बाद में उनकी वापसी जरूर हुई पर लखीराम की रिपोर्ट अपना काम करती रही. हालांकि अब दिल्ली दरबार में उन्होंने अपनी अच्छी पैठ बना रखी है फिर भी प्रदेश के मामले में होता वही है जो रमन सिंह चाहते हैं. बृजमोहन इस बात से संतुष्ट हैं कि प्रदेश सरकार हो या संगठन उनकी वरिष्ठता, संसदीय अनुभव एवं राजनीतिक क्षमता को नकारा नहीं जा सकता. इसीलिए कोर कमेटी के लिए प्रदेश से उनका नाम न आने पर दिल्ली ने वरिष्ठतम मंत्रियों के नाम मांगे और उनके नाम का समर्थन किया. हरी झंडी दी.

बहरहाल बृजमोहन के ख्याली पुलाव जो सरकार का नेतृत्व करने के संबंध में है, पकेंगे अथवा नहीं, कहा नहीं जा सकता. वैसे डॉ. रमन सिंह के रहते संभावना नगण्य है. वैसे भी चुनाव के पूर्व राजनीतिक फिजा कैसी क्या रहेगी, फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता. यह तय है वर्ष 2018 के विधानसभा चुनाव प्रदेश भाजपा के लिए बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे. कांग्रेस व जोगी कांग्रेस की तगड़ी चुनौतियों के बीच भाजपा यदि कोई रास्ता निकाल पाएगी तो जाहिर है रमन सिंह फिर ताजदार बादशाह रहेंगे. और यदि ऐसा नहीं हो पाया तो भाजपा की राजनीति में भारी बदलाव आएगा. तब क्या होगा, कहा नहीं जा सकता अलबत्ता रमन सिंह कह चुके हैं कि सक्रिय राजनीति में अभी उनके पास बारह वर्ष है. बारह वर्ष.

*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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