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कांग्रेस: अंधेरे में रोशनी की तलाश

दिवाकर मुक्तिबोध
अब क्या करे कांग्रेस? छत्तीसगढ़ राज्य विधानसभा चुनाव उसने बहुत उम्मीदों के साथ लड़ा था. बहुमत पाने का विश्वास था किंतु सारी उम्मीदें चकनाचूर हो गई. अब पार्टी बदहवास की स्थिति में है जिसे संभालना मौजूदा नेतृत्व के बस में नहीं.

दरअसल इस बार चुनाव में मतदाताओं ने कांग्रेस को नहीं हराया, कांग्रेसियों ने खुद यह काम किया. आपसी खींचतान, बिखरा-बिखरा सा चुनाव प्रबंध तंत्र और टिकट वितरण में राहुल फार्मूले से किनारा करना पार्टी को इतना महंगा पड़ा कि उसे लगातार तीसरी बार भाजपा के हाथों हार झेलनी पड़ी. 2008 के 38 में से 27 विधायकों की हार से यह प्रमाणित हुआ कि मतदाताओं को पुराने चेहरे पसंद नहीं आए लिहाजा उन्होंने उनके खिलाफ मतदान किया.

पहले चरण की 18 सीटों के लिए जिस फार्मूले के तहत उम्मीदवारों का चयन किया गया था, वही फार्मूला यदि शेष 72 सीटों पर लागू किया गया होता तो संभवत: आज स्थिति कुछ और होती. पार्टी बहुमत के साथ सत्ता में होती तथा भाजपा विपक्ष में खड़ी नज़र आती. लेकिन चंद नेताओं का अतिआत्मविश्वास पार्टी को ऐसा ले डूबा कि अब उससे उबर पाना असंभव नहीं तो अत्यधिक कठिन जरूर प्रतीत होता है क्योंकि प्रदेश पार्टी का मनोबल खस्ता है. वह फिर आपसी सिर-फुटव्वल की दहलीज पर खड़ी हो गई है जैसे कि चुनाव के 6 माह पूर्व नज़र आ रही थी.

ऐसी स्थिति में निश्चय ही पार्टी को संजीवनी की जरूरत है. पर यह मिलेगी कब, कहां और कैसे? किसके पास है यह? राहुल या सोनिया गांधी के पास? यदि केन्द्रीय नेतृत्व दूरदर्शी और दृढ़ होता तो टिकट वितरण में प्रादेशिक नेताओं के दबाव को खारिज करके राहुल फार्मूले को सख्ती से लागू करवाया जाता लेकिन नेतृत्व दबाव में आ गया तथा राहुल ब्रिगेड की छत्तीसगढ़ में बहुत मेहनत से तैयार की गई जमीनी हकीकत की रिपोर्ट को नजरअंदाज करके टिकटें बांट दी गई, इस विश्वास साथ कि छत्तीसगढ़ में पार्टी को बहुमत मिलना तय है. लेकिन पासे उल्टे पड़े. अतिआत्मविश्वास ले डूबा. कई कद्दावर नेता चुनाव हार गए तथा मैदानी इलाकों से कांग्रेस का सफाया हो गया.

छत्तीसगढ़ में पार्टी की लगातार तीसरी पराजय कई सवाल खड़े करती है. इस बड़े राजनीतिक हादसे से पार्टी तभी उबर पाएगी जब वह आगामी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करेगी. अभी तो यह उम्मीद की जाती है कि पार्टी में आत्म-मंथन का दौर शुरू होगा. सारी शिकवे-शिकायतें भूला दी जाएंगी. आरोप-प्रत्यारोप से किनारा कर लिया जाएगा. एक-दूसरे पर लांछन लगाने के बजाए सही अर्थों में हार के कारणों का विश्लेषण किया जाएगा पर ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा है. हमेशा की तरह पार्टीजन वही रोना रो रहे हैं.

टी.एस.सिंहदेव एवं नेता प्रतिपक्ष रह चुके रवीन्द्र चौबे जैसे नेता भीतरघात को एक बड़ा कारण बता रहे हैं. यद्यपि उन्होंने किसी का सीधा नाम नहीं लिया लेकिन उनका इशारा मुख्यमंत्री अजीत जोगी की ओर है. लेकिन सच तो यह है कि 90 में से जो 51 कांग्रेसी प्रत्याशियों की पराजय की मूल वजह वे स्वयं हैं. पराजय के लिए पार्टी नहीं, वे जिम्मेदार हैं. चुनाव के ठीक पूर्व जागृत होने वाले ये नेता पूरे पांच साल तक जनता से कटे-कटे रहे. न तो उन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं से जीवंत सम्पर्क रखा और न ही उनकी स्थानीय समस्याओं मसलन सड़क, बिजली, पानी और लोक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया.

शासन-प्रशासन से जुड़े छोटे-मोटे कामों में भी उन्होंने जरूरतमंदों की मदद नहीं की. ऐसे नेताओं की अलोकप्रिय छवि हार का बड़ा कारण बनी. भीतरघात एवं निष्क्रियता भी एक वजह हो सकती है पर इससे चुनाव परिणाम प्रभावित नहीं हुआ है. इसलिए कुल मिलाकर प्रत्याशी की कमजोर छवि, कमजोर सांगठनिक-ढांचा, चुस्त प्रबंधन का अभाव जिनमें जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी शामिल है, हार के बड़े कारणों में शुमार है.

बहरहाल यदि वास्तविक आत्म-मंथन हुआ तो निष्कर्ष क्या निकलेगा? क्या संगठन जमीनी हकीकत को पहचान कर उसके अनुरूप कदम उठाएगा? या फिर वही ढाक के तीन पात जैसी स्थिति होगी जैसा कि अमूमन प्रत्येक चुनावी हार के वादे होती रही है. क्या इस बात पर दृढ़ता दिखाई जाएगी कि प्रदेश संगठन में युवा नेतृत्व पर भरोसा किया जाएगा? क्या वे चेहरे बदल दिए जाएंगे जो बरसों से कुर्सी पर जमे हुए हैं? क्या आगामी मई-जून में होने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए जनता का विश्वास जीतने की कोशिश की जाएगी? इसके लिए क्या उपाय किए जाएंगे?

कुल मिलाकर सवाल यह है कि क्या पार्टी आंतरिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए तैयार है? यदि ऐसा है तो लोकसभा चुनाव में कुछ उम्मीद की जा सकती है अन्यथा पार्टी का वही हश्र होगा जो 2009 के लोकसभा चुनावों में हुआ था.

अब सवाल है कि क्या पार्टी में नेतृत्व की नई पौध तैयार हुई है? जवाब ना में है. दरअसल प्रदेश पार्टी में ऊर्जावान नेतृत्व का अभाव है. पहली पंक्ति में गिने-चुने नेता हैं जिनसे अब कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. द्वितीय पंक्ति में यद्यपि नेताओं की फौज है लेकिन उनमें एक भी ऐसा नहीं जो संगठन की कायापलट कर सके. तृतीय पंक्ति युवाओं की है जिनके नेतृत्व की परख अभी होनी बाकी है. कुछ उम्मीद इन्हीं से की जा सकती है बशर्ते पार्टी उन पर विश्वास जताए. पार्टी के हक में यह अच्छी बात है कि राज्य विधानसभा चुनाव में काफी संख्या में युवा जीतकर आए हैं. वे संगठन को दिशा दे सकते हैं.

यह स्पष्ट है कि मौजूदा नेतृत्व से बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती. चरणदास महंत, रविन्द्र चौबे तथा धनेन्द्र साहू जैसे वरिष्ठ नेता कसौटी पर कसे जा चुके हैं. वरिष्ठतम में अब दो ही नेता हैं मोतीलाल वोरा एवं अजीत जोगी. इनमें से अजीत जोगी सब पर भारी हैं. बड़ी संख्या में उनके समर्थक जीतकर आए हैं. संगठन में पहले भी उनका दबदबा था और अभी भी है. जाहिर है कोई भी नेतृत्व उनकी उपेक्षा करके चल नहीं सकता. इसलिए सांगठनिक एकता की कोशिशों में इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि तुष्टीकरण के बावजूद गुटीय संतुलन बना रहे. लेकिन पार्टी में ऐसे नेतृत्व को तलाशना आसान नहीं है.

संगठन की इन आंतरिक चुनौतियों से केन्द्रीय नेतृत्व किस तरह निपटेगा और कैसे राह को सुगम बनाएगा, यह निकट भविष्य में स्पष्ट होना चाहिए. देखें क्या होता है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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