कांग्रेस की फजीहत के निहितार्थ
दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ, उस दौर में भी नहीं जब छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश का एक हिस्सा था. राज्य विधानसभा के किसी चुनाव, उपचुनाव में पार्टी द्वारा घोषित अधिकृत प्रत्याशी नामांकन वापसी की तिथि के एक दिन पूर्व नाम वापस ले ले और पार्टी को डूबने के लिए मंझधार में छोड़ दे, हैरतअंगेज है और दु:खद भी. यह राजनीति का वह स्याह चेहरा भी है जो आर्थिक प्रलोभन के लिए मूल्यों के साथ समझौते में विश्वास रखता है.
राज्य के अंतागढ़ उपचुनाव में कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी मंतूराम पवार द्वारा नाम वापस लेने की घटना राजनीति के इसी चरित्र की ओर संकेत है. प्रदेश कांग्रेस के लिए यह घटना स्तब्धकारी है. इससे भाजपा को अंतागढ़ में एक तरह से वाकओव्हर मिल गया है. क्योंकि पवार के अलावा डमी उम्मीदवार के रूप में उनकी पत्नी ने नामांकन भरा था वह भी खारिज हो गया. कांग्रेस अब हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं कर सकती. अंतागढ़ बिना लड़े ही हाथ से जा चुका है.
पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के निकट रहे मंतूराम पवार ने ऐसा क्यों किया, यह कांग्रेस के लिए शोध और सोच का विषय है. ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं जिससे इस आदिवासी नेता को ऐसा कदम उठाने के लिए विवश होना पड़ा? क्या वे अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे? क्या उन्हें लगता था कि वे फिर चुनाव हार जाएंगे? अगर ऐसा था तो वे टिकिट लेने से ही इंकार कर सकते थे? लेकिन उन्होंने दृढ़तापूर्वक ऐसा नहीं किया.
सवाल है कि क्या कांग्रेस ने भी उन पर जबरिया दांव खेलकर गलती की? क्या लगातार तीन बार पराजित प्रत्याशी को पुन: मैदान में, वह भी उपचुनाव में जो प्राय: सत्ताधारी दल के लिए आसान रहता है, टिकिट देना कांग्रेस की मजबूरी थी? क्या मंतूराम के अलावा और किसी योग्य प्रत्याशी के नाम पर पार्टी ने विचार करना जरूरी नहीं समझा? आखिरकार पिछले कई चुनाव हारे हुए को पुन: उम्मीदवार बनाने के पीछे वास्तविक कारण क्या थे? राजनीतिक नासमझी या अति आत्मविश्वास या फिर एकाधिकारवाद? दरअसल यह गुटीय राजनीति का परिणाम है.
पार्टी के बड़े नेता अजीत जोगी कह चुके हैं टिकिट फायनल करने से पूर्व उनसे या वरिष्ठतम नेता मोतीलाल वोरा से राय नहीं ली गई. अगर यह सच है तो यह गुटीय प्रतिद्वंदिता एवं संगठन पर एकाधिकारवाद का उदाहरण है. बहरहाल इस घटना की वजह से कांग्रेस ने अपनी साख को थोड़ा सा और खुरच दिया है. पिछले विधानसभा चुनाव में पराजय की टीस से भी शायद कही ज्यादा यह घटना उसे चुभेगी, चुभनी भी चाहिए क्योंकि इससे पूर्व किसी चुनाव या उपचुनाव में किसी उम्मीदवार ने पार्टी को ऐसा घाव नही दिया था जैसा मंतूराम ने दिया है.
अब जैसी कि खबरें आ रही हैं, मंतूराम भाजपा में शामिल हो सकते हैं. इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि नाम वापसी की घटना आकस्मिक नहीं है. मंतूराम ने अपने राजनीतिक भविष्य का अनुमान लगाते हुए बहुत सोच समझकर यह फैसला किया होगा. उन्हें मालूम था, नामांकन वापसी के बाद वे पार्टी में नही रह सकेंगे. वे अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं, इसलिए उन्होंने अपनी दिशा तय करते हुए इतना बड़ा कदम उठाया.
ऐसा लगता है कि मंतूराम की डावांडोल मन:स्थिति को भांपते हुए भाजपा ने अपने चालें चलीं. इसे भाजपा के प्रबंधन कौशल का कमाल माना जाना चाहिए कि उसने बाजी के बिछते ही असली मोहरा पीट दिया और कांग्रेस को मात दे दी. यानी मंतूराम को इतने गुपचुप तरीके से ‘ट्रेप’ किया गया कि कांग्रेस को हवा तक नहीं लगी. उन्हें ‘ट्रेप’ करने के लिए कैसे-कैसे प्रलोभन दिए गए होंगे, इसका रहस्योद्घाटन देर सबेर होना तय हैं.
भाजपा भले ही इस बात से इंकार करती रहे कि मंतूराम मामले में उसकी कोई भूमिका नहीं है और घटना कांग्रेस में आंतरिक कलह का परिणाम है लेकिन नाम वापसी के अंतिम दिन, 30 अगस्त को एक को छोड़ सभी 9 निर्दलीय प्रत्याशियों का मैदान से हटना स्वाभाविक घटना नही है. जाहिर है रणनीतिकारों द्वारा यह कोशिश की गई कि भाजपा के पक्ष में निर्विरोध की स्थिति बन जाए. लेकिन अम्बेडकराइट पार्टी आफ इंडिया के रूपधर पुड़ो के चुनाव में डटे रहने की वजह से यह संभव नहीं हो सका. निश्चय ही इस तरह की घटनाएं स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नही है.
प्रदेश कांग्रेस ने मंतूराम पर कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया है. अब संगठन को इस बात पर विचार करना होगा कि उससे आखिर गलती कहां हुई? पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपनी निकटता के बावजूद मंतूराम को पुन: प्रत्याशी बनाए जाने का विरोध किया था. खुद मंतूराम चुनाव लड़ने के बहुत इच्छुक नहीं थे. जब कोई प्रत्याशी इस मानसिकता में हो तो उस पर नेतृत्व की मेहरबानी किसलिए? दूसरी गलती यह भी हुई कि डमी प्रत्याशी के रूप में पवार की पत्नी से नामांकन भराया गया. यदि उनके स्थान पर किसी और से फार्म भरवाया गया होता तो मंतूराम के मैदान छोड़ने के बावजूद पार्टी चुनावी रेस में बनी रहती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. पवार दंपत्ती ने पार्टी को ऐसा झटका दिया जो उसके लिए चुनावी राजनीति की सबसे बड़ी दुघर्टना है.
इस समूचे घटनाक्रम से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल की स्थिति कमजोर हुई है. वैसे भी प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी को लेकर वे पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के निशान पर हैं. प्रदेश कमेटी में अपने समर्थकों को संतुलित प्रतिनिधित्व न मिलने से आहत जोगी ने अपना पक्ष पार्टी हाईकमान के सामने रखा है. चूंकि इस मामले में पुनर्विचार की संभावना है अत: जोगी खेमा उत्साहित है लेकिन मंतूराम पवार के मैदान छोड़ने से फिर आरोप लग रहे हैं कि खेमे के दबाव की वजह से मंतूराम ने नामांकन वापस लिया ताकि भूपेश बघेल की स्थिति हाईकमान के सामने कमजोर पड़े तथा उनकी नेतृत्व क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगे. चूंकि इन आरोपों का कोई आधार नहीं है लिहाजा इसे राजनीतिक शरारत मानना चाहिए किन्तु यह तय है कि इस घटना से भूपेश बघेल मुश्किल में पड़ जाएंगे.
जहां तक प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनके कामकाज का प्रश्न है, वह काफी असरदार रहा है. अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले उन्होंने ज्यादा दमखम के साथ जनता के मुद्दे उठाए हैं. राशन कार्ड नवीनीकरण एवं बिजली दरों में वृद्धि दो ऐसे प्रमुख प्रश्न थे जिस पर पार्टी ने प्रदेश में मजबूत आंदोलन खड़ा किया और विधानसभा में भी सरकार को परेशानी में डाला. यानी परफार्मेस की दृष्टि से भूपेश बघेल के नेतृत्व में प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने बेहतर करने की कोशिश की है. यदि इसे रिपोर्ट कार्ड माने तो बघेल के नेतृत्व को मंतूराम घटना के बावजूद कोई खतरा नहीं है. फिर भी प्रदेश कांग्रेस को इस घटना से सबक लेना चाहिए.
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.