गढ़ छत्तीसी का नूरा कुश्ती
नई दिल्ली | विशेष संवाददाता: खामोश ! गढ़ छत्तीसी में फिर से नूरा कुश्ती जारी है. छत्तीसगढ़ की राजनीति में इन दिनों जो बवाल मचा है उस पर यह फिकरा सटीक रूप से चरितार्थ होता है. छत्तीसगढ़ में जो राजनीति हो रही है वह कुर्सी के लिये हो रही है. इसे कोई नौसिखिया भी आसानी से समझ सकता है. उधर, जनता जो कम से कम आज मतदाता के रूप में नहीं है इन खबरों को बड़े चाव के साथ पढ़ रही है, टीवी पर देख-सुन रही है. उसके पास आज अपना मत प्रकट करने का कोई अवसर नहीं है.
उसके बच्चों की शिक्षा, बीमार पड़ने पर होने वाले खर्च तथा सुरसा के मुंह के समान बढ़ती महंगाई पर राजनीति नहीं हो रही है. जाहिर है कि इन समस्याओं को हल करने की ईमानदार कोशिश न तो सत्ता पक्ष ने की है और न ही आज जो विपक्ष में हैं उन्होंने अपने कार्यकाल में कभी की थी. उलट छत्तीसगढ़ में जोगी के कार्यकाल में छत्तीसगढ़ राज्य परिवहन निगम को भंग करके निजी बस मालिकों को लूट की खुली छूट दे दी गई थी.
खबरों के अनुसार एक ओर अजीत जोगी के पुत्र मीडिया में नई पार्टी बनाने का संकेत दे रहें हैं तो दूसरी ओर उनकी पत्नी दिल्ली के आलाकमान के साथ सुलह की कोशिश कर रही है. जाहिर है कि यदि अजीत जोगी को छत्तीसगढ़ से राज्यसभा की टिकट दे दी जाती तो इतना बखेड़ा न खड़ा हुआ होता. दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ कांग्रेस के संगठन खेमें के नेता चाहते हैं कि लगे हाथ अजीत जोगी जिद पर अड़कर पार्टी छोड़ दे तो बेहतर होगा. बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस संगठन के नेताओं की तरफ से आलाकमान को भरोसा दिलाया गया है कि जोगी के पार्टी छोड़ने से भला ही होगा.
अब जोगी परिवार 6 जून को नई पार्टी बनाने की घोषणा करता है कि नहीं इस पर छत्तीसगढ़ की राजनीति अगले एक दिन तक केन्द्रित रहने वाली है. यह आसानी से समझा जाने वाला तथ्य है कि अजीत जोगी यदि नई पार्टी बनाते हैं तो इसके पीछे उनका उद्देश्य छत्तीसगढ़ की जनता को दुश्वारियों से निज़ात दिलाना नहीं अपने परिवार का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करना प्रमुख होगा.
छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ भाजपा मुंडेर पर बैठकर इस पूरे घटनाक्रम पर नज़र रखे हुये है. कांग्रेस की इस अंदुरुनी उठापटक से उसे कितना नफ़ा या नुकसान हो सकता है इसका आकलन किया जा रहा है. हालांकि इस ताजा विवाद की जड़ अंतागढ़ टेपकांड ही है. जिसके बाद अमित जोगी को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया गया तथा अजीत जोगी पर कार्यवाही करने के लिये आलाकमान से अनुमति मांगी गई.
जाहिर है कि अंतागढ़ टेपकांड के खुलासे से यह तय हो गया कि जोगी परिवार ने राजनीति की वह लक्ष्मण रेखा पार कर ली है जिसके बाद उन्हें पार्टी में बने रहने देना भविष्य के लिये और घातक सिद्ध हो सकता है.
जोगी 6 जून को नई पार्टी बना सकते हैं, उससे पहले भी मामलें का निपटारा हो सकता है, सत्तारूढ़ भाजपा इससे मजबूत या कमजोर हो सकती है परन्तु लाख टके सा सवाल है कि जिस जनता से वोट लेने के लिये यह जो पूरी मश्क्कत की जा रही है उसकी झोली में क्या आना है सिवाय चटखारें वाली खबरों के.
इस धान के कटोरे में पिछले कुछ माह में 33 किसानों ने आत्महत्या की है. कभी धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ के लिये इससे दुख की बात क्या हो सकती है कि हर तीसरे दिन एक किसान ने किसानी के कारण आत्महत्या की.
छत्तीसगढ़ सरकार के दावे के उलट छत्तीसगढ़ के आर्थिक सर्वेक्षण 2015-16 के मुताबिक राज्य में गरीबी बढ़ी है. आधार वर्ष यानि स्थिर मूल्यों के हिसाब से कृषि एवं संबंधित क्षेत्र (कृषि, पशुपालन, मत्स्य एवं वन) में वृद्धि 0.47% है जबकि सीपीआई के हिसाब से 12.76% है. ठीक इसी समय सूखे के कारण फसल कम हुई है. इसका मतलब साफ है कीमतों मे वृद्धि हुई है और लोगों की वास्तविक आय मे कमी हुई है. आय का बड़ा हिस्सा उसके खान-पान, इलाज और शिक्षा और सम्पत्ति कर मे निकल जा रहा है. जिससे सेवा क्षेत्र मे 14.30% की वृद्धि दिख रही है.
दसरी तरफ छत्तीसगढ़ में देश का 38.11 फीसदी टिन अयस्क, 28.38 फीसदी हीरा, 18.55 फीसदी लौह अयस्क और 16.13 फीसदी कोयला, 12.42 फीसदी डोलोमाईट, 4.62 फीसदी बाक्साइट उपलब्ध है. छत्तीसगढ़ में अभी देश का 38 फीसदी स्टील उत्पादन हो रहा है. सन 2020 तक हम देश का 50 फीसदी स्टील उत्पादन करने लगेंगे.
छत्तीसगढ़ में देश का लगभग 20 फीसदी लौह अयस्क है, यानी हर पांचवें टन आयरन ओर पर छत्तीसगढ़ का नाम लिखा है. इन सब के बावजूद छत्तीसगढ़ का देश का सबसे गरीब राज्य होना इस बात का घोतक है कि विकास आम छत्तीसगढ़िया के दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रहा है.
जाहिर है कि छत्तीसगढ़ के लोगों ने राज्य की अकूत खनिज सम्पदा को सहेजकर रखा लेकिन इन पर आधारित उद्योगों में ग्रामीणों को किसी भी तरह की हिस्सेदारी नही मिली बल्कि सस्ती कीमत पर जमीन खरीदकर उनको बेदखल कर दिया गया.
यह सही है कि इस प्रदेश मे खनिज और जंगलो की बहुतायत के साथ-साथ कुछ बडे उद्योग भी हैं परंतु सत्ताधारी वर्ग के लिये विकास के मायने इन संसाधनों और सस्ते श्रम का दोहन रहा है. इसलिये प्राकृतिक श्रोतो से होने वाली आय कभी भी इस प्रदेश की श्रमिक जनता के बेहतरी के लिये नही लगा वरन वह धन साधन सम्पन्न अमीरों के लिये आधारभूत ढांचा बनाने के लिये उपयोग हुआ.
पिछले पांच सालों में अरबों रुपये के निवेश की सैकड़ों योजनायें एमओयू तक ही रह गई हैं और कई ने तो शुरुआत कर के अपना बोरिया-बिस्तर बांध लिया. हालत ये है कि प्रति व्यक्ति आय के मामले में भी छत्तीसगढ़ नये बने राज्य उत्तराखंड से लगभग आधे पर है. 2013-14 में उत्तराखंड में प्रति व्यक्ति आय 103716 रुपये थी, जबकि झारखंड में यह आंकड़ा 46131 रुपये और छत्तीसगढ़ में 58547 रुपये ही था.
एनएसएसओ के आंकड़ों के मुताबिक छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में 2004-05 में बेहद गरीबों की संख्या 24.2 फीसदी थी, जो 2011-12 में बढ़कर 33.7 फीसदी हो गयी. अगर शहरी क्षेत्रों में गरीबी की बात करें तो छत्तीसगढ़ में 2004-05 में यह संख्या 19.8 फीसदी से बढ़कर 2011-12 में 34 फीसदी हो गयी.
साक्षरता के मामले में भी छत्तीसगढ़, उत्तराखंड से पीछे है. 2011 के आंकड़े देखें छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा 71 फीसदी है, जबकि पुरुष साक्षरता दर 81.5 फीसदी और महिला साक्षरता दर 60.6 फीसदी थी. लेकिन उत्तराखंड में साक्षरता दर 79.6 फीसदी है. पुरुष साक्षरता दर 88.3 फीसदी और महिला साक्षरता दर 70.7 फीसदी है.
छत्तीसगढ़ की जनता के जीवन स्तर को उपर उठाने के बजाये राजनीतिक दल अपनी स्थिति मजबूत करने में जुटे हुये हैं. उनके एजेंडे में जनता नहीं कुर्सी है. छत्तीसगढ़ की राजनीति में जो कुछ भी उठापटक चल रही है वह जनता के लिये सिवाय नूरा-कुश्ती के और क्या है?