घोषणा पत्र नहीं, श्वेत पत्र है !
कनक तिवारी
भारतीय लोकतंत्र में यह अच्छा है कि राजनीतिक पार्टियां दुश्मनी की भावना से लड़ती हुई भी सामूहिक स्वार्थों के लिए एकजुट भी हो जाती हैं. छत्तीसगढ़ कांग्रेस के घोषणा पत्र जारी होने के 48 घंटे के बाद भाजपा का घोषणा पत्र जारी हुआ. दोनों का मैत्री भाव बहुत दिलचस्प है.
भाजपा के झंडे का लगभग चौकोर आकार होता है. कांग्रेस का तिरंगा झंडा उसके मुकाबले आड़ा दिखाई देता है. कांग्रेस का घोषणा पत्र भाजपाई झंडे के आकार के अनुरूप तथा भाजपा का घोषणा पत्र कांग्रेसी झंडे के आकार की अनुकृति में छपा दिखाई देता है. कांग्रेस के घोषणा पत्र के मुकाबले भाजपाई घोषणा पत्र में चार पृष्ठ ज़्यादा हैं. वह कांग्रेसी घोषणा पत्र से कम खूबसूरत है लेकिन उसमें दो पारदर्शिताएं हैं. एक तो यह कि उसकी पांच हजार प्रतियां छपी हैं. दूसरे यह कि उसे श्रीराम प्रिंटर्स एण्ड स्टेशनर्स रायपुर द्वारा छापा गया है.
मुस्लिम विज़न का दृष्टि पत्र बनाने जा रही भाजपा अयोध्या से दिल्ली होते हुए रायपुर तक केवल श्रीराम पर ही भरोसा करती है. उसे किसी शाहनवाज़ या मुख्तार प्रिंटिंग प्रेस से नहीं छपाया गया. घोषणा पत्र में उसके नए राष्ट्र गौरव नरेन्द्र मोदी की तस्वीर तो है लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह, डॉ. रमन सिंह और रामसेवक पैकरा के ही संदेश हैं.
वाजपेयी के संदेश के साथ यदि हस्ताक्षर और तारीख का उल्लेख होता तो वह विश्वसनीय होने के अतिरिक्त प्रामाणिक रेकॉर्ड की तरह इस्तेमाल हो सकता था. मोदी का कोई संदेश नहीं है. जो मनोनीत प्रधानमंत्री देश भर में हुंकार कर संदेश दे रहा है. वह छत्तीसगढ़ के भाजपाई घोषणा पत्र में चुप है.
घोषणा पत्र में बहुत अधिक सूचनाएं हैं कि अब तक क्या हुआ, लेकिन उनका सांख्यिकी के आधार पर ब्योरा नहीं है. मसलन बिजली कटौती नहीं है, लेकिन उपभोक्ता के लिए बिजली की दरें क्या हैं, इसका उल्लेख नहीं है. प्रति व्यक्ति वार्षिक विद्युत खपत बढ़ गई है,
लेकिन इसमें आदिवासी क्षेत्रों, दलित और अल्पसंख्यक मुहल्लों की क्या स्थिति है, इसका ब्यौरा नहीं है. स्वायत्त संस्थाओं द्वारा पीने के पानी की उपलब्धता का ब्यौरा नहीं है. स्कूलों की संख्या में बहुत इज़ाफा बताया गया है, लेकिन शिक्षकों की कितनी और कहां कमी है और उसके उपचार कहां हैं, यह जानकारी नहीं है.
पाठ्य पुस्तकों एवं सहवर्ती प्रकाशनों को लेकर एकाधिकार हो जाने की शिकायतें अब तक कायम हैं. उनका कोई खुलासा नहीं है. जिन योजनाओं को सफल बताया गया है, उनमें केन्द्र प्रवर्तित योजनाएं कौन कौन सी हैं, उसे भी चिन्हित नहीं किया गया है. फिर भी सरकारी आंकड़ों को सत्तानशीन राजनीतिक पार्टी के घोषणा पत्र में शामिल करने से उसकी विश्वसनीयता पर सीधे सीधे आरोप लगाना मुश्किल भी होता है. इस तरह घोषणा पत्र सरकारी खुलासों के श्वेत पत्र का मुखड़ा बना दिया गया है.
समिति के संयोजक बृजमोहन अग्रवाल अमूमन पार्टी चुनावों के संकटमोचक तो होते हैं लेकिन उन पर वैचारिक ज़िम्मेदारी लादने से उन्होंने घोषणा पत्र के ज़रिए एक सरकारी विवरण पार्टी की ओर से जारी कर दिया. भाजपा का राजनैतिक दृष्टिकोण सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, स्वदेशी, गांधीवादी समाजवाद, सामाजिक समरसता जैसे शब्दों का उल्लेख करता रहा है. घोषणा पत्र में ये गायब हैं.
किसानों के लिए घोषणाओं का पुलिन्दा है, लेकिन यह उल्लेख नहीं है कि छत्तीसगढ़ में कृषि पैदावारों में और कृषि भूमि में क्यों और कितनी कमी हुई है. यदि कमी नहीं हुई है तो उसका गौरवपूर्ण उल्लेख किया जाना चाहिए था. यह भी सत्य होने पर कहा जा सकता था कि छत्तीसगढ़ में किसानों ने आत्महत्याएं नहीं की हैं. छत्तीसगढ़ को भारत की कृषि राजधानी बनाने हेतु बारहवीं योजना में विशेष पहल की जाएगी.
सपनों की ऐसी भाषा भारतीय मतदाता ने बहुत पढ़ी और सुनी है. गरीबी हटाने का नारा आया. गरीब हटते गए. गरीबी जस की तस रही. ‘जय जवान और जय किसान‘ कहा गया. किसान आत्महत्या कर रहे हैं. खराब हथियारों और परिस्थितियों के चलते देश के दुश्मन अंदर और बाहर जवानों की हत्या कर रहे हैं. बहुत से तकनीकी ग्राम सुधार के मानकों का हवाला दिया गया है. भूमि सुधार से जुड़े मसलों के लिए नई नीतियां बनाए जाने का आश्वासन है. आज़ादी के पैंसठ वर्षों बाद भी राजनीतिक पार्टियां सत्ता की हैट्रिक लगाने के लिए अब भी नीतियां ही बनाने की बात कर रही हैं. कब तक करती रहेंगी?
‘गांव, गरीब और मज़दूर‘ को एक साथ रखा गया है. इसका मतलब है कि तीनों समानार्थी हैं. छत्तीसगढ़ के ग्रामीण मज़दूर परिवार सहित प्रतिवर्ष देश के अन्य राज्यों में मज़दूरी के लिए पलायन करने पर मज़बूर हैं. कई तो लौट नहीं पाते. महिलाओं की अस्मत और अस्मिता दरिंदों द्वारा लूट का कारण बनती है. घोषणा पत्र में पलायनमुक्त छत्तीसगढ़ का नारा है. यदि सांख्यिकी भी दी गई होती तो पता चलता कि अब तक पलायन की दर क्या है और आगे इसे कैसे रोका जाएगा.
छत्तीसगढ़ में शराबखोरी रोकने का वायदा इसी अध्याय में है. नरेन्द्र मोदी के गुजरात में नशाबन्दी है. क्यों नहीं भाजपा अपनी सरकारों के राज्य में उनकी पहल पर नशाबन्दी का एकमुश्त ऐलान कर देती. उसके आबकारी मंत्री तो विधानसभा में फरमाते रहे कि उन्हें गौरव है कि शराब के ठेकों के ज़रिए उन्होंने राज्य का सर्वाधिक राजस्व जुटाया है. बाज़ारों को ठेकेदारी प्रथा से मुक्त करने जैसा मामूली कदम घोषणा पत्र में क्यों उल्लेखित होता है. उसे तो कोई भी सरकार प्रशासनिक आदेश द्वारा ही समाप्त कर सकती है. सभी ग्रामों को आपस में पक्की सड़क से जोड़ने का वायदा है. जिस प्रदेश में 32 किलोमीटर चलकर इने गिने मतदाताओं को पांच वर्ष में एक बार शहरी बाबुओं के दर्शन होते हैं, वहां सभी गांव आपस में पक्की सड़क में किस सदी में जुड़ जाएंगे. कहा नहीं जा सकता.
कम्प्यूटर युग में युवाशक्ति को लैपटॉप, टेबलेट, आई. पैड, साइबर कैफे, सोशल मीडिया जैसे कई नए तकनीकी शब्दों से जोड़ दिया गया है. समाजवादी विचारक डॉ. राममनोहर लोहिया ने काम के अधिकार को मूल अधिकारों में शामिल करने का नारा बुलन्द किया था. किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र में इस सिद्धान्त का समर्थन नहीं मिलता.
भाजपा के घोषणा पत्र में तमाम उन मुफ्त वस्तुओं के वितरण का दानशील उल्लेख है जिससे आदमी की गुरबत का मज़ाक उड़ाया जाता है. ‘अंतिम व्यक्ति‘ नामक शब्द का उल्लेख है जिसके आंसू पोंछने का वायदा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने किया था. घोषणा पत्र में तफसील के साथ ऐसे प्रकल्पों का ब्यौरा दिया जा सकता था, जिससे गरीब परिवारों की आय का साधन बढता और साथ साथ उनका स्वाभिमान भी.
प्रदेश में कई ऐसे उद्योग और प्रकल्प हैं जिन पर अरबपति उद्योगपतियों का एकाधिकार है. लौह अयस्क और कोयला उत्खनन के परिवहन ठेकों को राज्य की सीमा के अंदर छत्तीसगढ़ के बेरोज़गारों की सहकारी समितियां बनाकर केवल उनको ही क्यों नहीं दिया जा सकता.
बहुत सी शासकीय छपाई का काम राज्य के बाहर क्यों होता है या कुछ गिने चुने अमीरों तक ही राज्य का धन क्यों पहुंचता है? घोषणा पत्र की इबारत विभिन्न मंत्रालयों के संचालनालयों और सचिवों की रिपोर्टों से छनकर आती हुई उस पुकार की तरह लगती है जिसके लिए मुक्तिबोध ने कहा था ‘‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं.‘‘
भाजपा छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने का वायदा करती है और साथ साथ आदिवासी बोलियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए शोध केन्द्र की स्थापना का वायदा भी. हिन्दी भाषा को लेकर छत्तीसगढ़ में क्या स्थिति बनेगी, इसकी भी तो कल्पना होनी चाहिए. लोक बोलियों को राजभाषा का दर्ज़ा देकर उनकी इयत्ता बनाए रखने का स्थानीय सांस्कृतिक आग्रह समझ में आता है, लेकिन भारत में हो यह रहा है कि कई विदेशी प्रभावों के चलते केवल हिन्दी भाषी क्षेत्रों की जनपदीय बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के आंदोलन कराए गए.
इससे हिन्दी भाषी क्षेत्रों के राष्ट्रीय नेतृत्व और हिन्दी के राजभाषा बनाए रखने को लेकर कठिनाइयां हो रही हैं. उदाहरण के लिए मैथिली को बिहार की मांग पर देश की राजभाषा बनाते हुए आठवीं अनुसूची में जोड़े जाने का क्या तुक होगा. वहां भोजपुरी के लिए आंदोलन चल रहा है. संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. असल में राजभाषा संबंधी सवाल पूरे देश का सवाल है. उस संबंध में संविधान के निदेशों के अनुरूप आचरण करने की आवश्यकता है.
यह भी दिलचस्प है कि अनुसूचित जातियों, जनजातियों, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक वर्गों को एक ही कोष्ठक में रख दिया गया है. 13 वर्ष हो गए छत्तीसगढ़ में जाति सत्यापन की प्रक्रिया का सरलीकरण नहीं हुआ. उच्च न्यायालय ने कई आदेश पारित किए हैं, जिनका नौकरशाही द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है. शहरी दलितों की हालत क्रमशः खराब होती जा रही है. उनके वार्डों में सफाई, पीने के पानी, चिकित्सा, स्कूल और अन्य बुनियादी सुविधाओं का इतना अभाव है. मानो वक्त उन्नीसवीं सदी में ठहर गया हो.
इकानॉमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली की एक विशेषज्ञ रिपोर्ट के अनुसार मुस्लिम बहुल नगरीय वार्डों में पीने का पानी औसतन कम मात्रा में प्रदाय किया जाता है. छत्तीसगढ़ में जैन समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है, यद्यपि इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट का अपना संदेह रहा है. इस निर्णय के कारण एक धनाड्य वर्ग गरीब अल्पसंख्यकों के साथ जुड़ गया है. उसके मिश्रित परिणाम धीरे धीरे देखने में आएंगे. लघु वनोपज को लेकर शासकीय खरीदी की नीतियां आदिवासी विरोधी हैं. इस उद्योग में राजनीतिक पार्टियों के धाकड़ सवर्ण
नेताओं ने कब्ज़ा कर लिया है. यही नहीं, लौह अयस्क, कोयला, सागौन आदि को लेकर भी आदिवासी बेबस, हतप्रभ और लाचार हैं. इन इलाकों में आदिवासी नेतृत्व की डोर कठपुतली के खेल की तरह उन सूत्रधारों की उंगलियों में होती है जो परदे के पीछे छिपकर आदिवासी की पीठ और पेट एक साथ छलनी कर रहे हैं. सरकारें और राजनीतिक पार्टियां इस संबंध में क्रांतिकारी नीतियां बनाकर आर्थिक दखलंदाजियों को खत्म करने की हिम्मत कहां जुटा पाती हैं. आदिवासी प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए वोट बैंक हैं. ऐसा वोट बैंक जिसके खातों में जमा कुछ नहीं है. कर्ज़ ही कर्ज़ है.
छत्तीसगढ़ में आदिवासी, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग के आरक्षण प्रतिशत को लेकर सरफुटौव्वल है. उच्च न्यायालय में प्रकरण लम्बित हैं. संबंधित नीति में कहा जा सकता है कि संविधान की मंशा के अनुसार निर्णय लिए जाएंगे लेकिन दोनों पार्टियां ऐसा कहने से बच रही हैं. वे उस सच्चाई से बच रही हैं जो एक दिन उन्हें लिहाफ की तरह ओढ़ने वाली हैं. सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही इस संबंध में सोच विचार कर संविधान पीठ से फैसले किए हैं. इसी तरह सहकारी क्षेत्र में राज्य में इतने अधिक अधिनियमित संशोधन हो रहे हैं. जो केवल चीन्ह चीन्ह कर रेवड़ी बांटने की शक्ल के कहे जा सकते हैं.
छत्तीसगढ़ के सहकारी नेता अलबत्ता महाराष्ट्र के सहकारी नेताओं की तरह अर्थतंत्र पर कब्ज़ा कर लेने वाले अपरिवर्तनशील नहीं हैं. सहकारी आंदोलन का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने के उद्देश्य से विधायन करने का कोई भी वायदा दोनों बड़ी पार्टियों के घोषणा पत्र में कहां होता है. ग्राम पंचायतों को लोकतंत्र की निचली इकाई बनाने के बदले उन्हें लॉलीपॉप प्रकृति के उपहार दिए जाने का उल्लेख है. संविधान की 11 वीं अनुसूची में साफ लिखा है कि पंचायतों के क्या अधिकार होंगे. अनुच्छेद 243 में राज्य सरकारों को जिम्मेदारियां दी गई हैं कि वह संविधान के वायदों को ग्राम पंचायतों के ज़रिए पूरा कराने के लिए पंचायती राज अधिनियम में परिवर्तन करे. 13 वर्ष हो गए लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा कहां हुआ है.
पंचायतों के सम्मेलन भी किसी विशेषज्ञ राय के जरिए ऐसी मांग कहां करते हैं. यही दुर्दशा तो नगरीय स्वायत्त संस्थाओं की भी है. वहां भी ऐसा ही विधायन नेताओं के आश्वासनों के गर्भगृह में अटका हुआ है. उसकी कभी भ्रूण हत्या भी हो सकती है. यदि ऐसे संवैधानिक आश्वासन कारगर हो जाएं तो अयोध्या में राम मंदिर बनाने के बदले रामराज्य की परिकल्पना प्रत्येक गांव में साकार की जा सकती है.
नरेन्द्र मोदी बस्तर में आकर भी इस तरह का संवैधानिक पाठ मतदाताओं को नहीं पढ़ाते. प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा वाले व्यक्ति बिहार में उन्हें मार डालने की साज़िश के ब्यौरे देने में ज़्यादा दिलचस्पी रही है. छत्तीसगढ़ में ही देश का सबसे लचर लोकायुक्त कानून है जिसके कारण भ्रष्ट राजनीतिक नेता और बड़े अफसर आसानी से बच रहे हैं. लोकायुक्त कानून को लेकर भाजपा के भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गुजरात में भी गड़बड़झाला है. कर्नाटक में बेहतर लोकायुक्त कानून होने से भाजपाई मुख्यमंत्री येदियुरप्पा की छुट्टी हो गई, इसलिए घोषणा पत्र लोकायुक्त कानून को लेकर बाबा रामदेव की तरह वाचाल नहीं हो पाया.
चिकित्सा के इलाके में छत्तीसगढ़ की हालत पतली है. निजी अस्पताल लूट खसोट कर रहे हैं. सरकारी अस्पतालों में जाने की केवल मजबूरी होती है. चिकित्सा, शिक्षा, संचार, परिवहन, सफाई, पेयजल जैसी बुनियादी सेवाएं अब राज्य का दायित्व नहीं रह गई हैं. इन्हें निजी क्षेत्र के लिए कमाई का ज़रिया बना दिया गया है. इस धन उत्पादन यज्ञ में राज्य की नीतियां घी की तरह डाली जा रही हैं. केन्द्रीय योजना आयोग के एक विशेषज्ञ दल ने अपनी बहुप्रशंसित रिपोर्ट जारी की है जिसके अनुसार छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण, सुरक्षा आदि के सूचकांक बहुत बुरी हालत में हैं. वे राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं. नक्सलवाद के फैलने के लिए ऐसे भी कारण हैं.
घोषणा पत्र में छत्तीसगढ़ की इस सबसे बड़ी समस्या को लेकर चुप्पी है. नक्सलवाद कैंसर की तरह फैल रहा है. उसे लेकर भाजपा घोषणा पत्र में अपनी प्रतिबद्धताओं का व्यापक ऐलान नहीं करती है. यह तो पलायन है. यह समस्या गंभीर, आत्मान्वेशी और व्यापक जनविमर्श की मांग करती है. आदिवासियों के पक्ष में पेसा का कानून लागू नहीं होता. उनकी ज़मीनों की लूट को लेकर राज्यपाल पांचवीं अनुसूची के अधिकारों का इस्तेमाल नहीं करते. केन्द्र और राज्य सरकारें सरकारी हिंसा करने में भागीदारी करती हैं, लेकिन केवल सैद्धान्तिकी को लेकर एक दूसरे पर दोषारोपण करती हैं.
छत्तीसगढ़ सरकारों द्वारा शोषित राज्य है. उसे भयमुक्त करने का भरोसा कैसे किया जा सकता है. विशेष जनसुरक्षा अधिनियम के ज़रिए कुछ निर्दोष पकड़ लिए गए, लेकिन दोषी अधिकारियों को दण्डित करने के लिए सरकारी तंत्र में नया कुछ कहां हो पाया. कुल मिलाकर सवा दो करोड़ की आबादी वाले प्रदेश में भाजपा के घोषणा पत्र की केवल पांच हजार प्रतियां पिछले घोषणा पत्रों की तरह कभी नहीं पढ़े जाने वाले इतिहास की जिल्दों की तरह पार्टी कार्यालयों में तो सुरक्षित रहेंगी. इतना ही बहुत है.
भाजपा में आडवाणी को अन्ना हज़ारे की तथा मोदी को केजरीवाल की भूमिका सौंप दी गई है. फिर भी छत्तीसगढ़ में भाजपाई घोषणा पत्र के मुख पृष्ठ पर रमन सिंह का चेहरा सबसे बड़ा छापकर कांग्रेसी घोषणा पत्र के मुख पृष्ठ से मौन सवाल किया गया है कि वहां किसी संभावित मुख्यमंत्री का चेहरा दर्ज़ क्यों नहीं है.