भरोसे की हैट्रिक
दिवाकर मुक्तिबोध
आखिरकार धुंध साफ हो गई. भाजपा और कांग्रेस के बीच चुनावी जंग में ऐसी कश्मकश की स्थिति बनी कि अंदाज लगाना मुश्किल था, बहुमत किसे मिलेगा. दोनो पार्टियों के अपने-अपने दावे थे. अपने-अपने तर्क थे. जीत का सेहरा दोनों अपने सिर पर देख रहे थे. राज्य में भारी मतदान से दो तरह की राय बन रही थी.
एक अनुमान था सन् 2008 के चुनाव की तुलना में करीब 6 प्रतिशत अधिक मतदान सत्ता के पक्ष में लहर के रूप में है जबकि इसके ठीक विपरीत राय रखने वाले भी बहुतायत थे. उनका मानना था कि अधिक मतदान सत्ता के प्रति विक्षोभ का परिणाम है. इसीलिए इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा. वह सत्ता में लौटेगी. और तो और एक्जिट पोल भी अलग-अलग राय दे रहे थे.
अधिकांश की राय थी कि भाजपा पुन: सरकार बनाने जा रही है. कांग्रेस के पक्ष में भी कुछ एक्जिट पोल थे. यानी कुल मिलाकर असमंजस की स्थिति थी. मतगणना के पूर्व तक विचारों का ऐसा धुंधलका छाया हुआ था, कि ठीक-ठीक अनुमान लगाना भी मुश्किल था. लेकिन अब मतगणना के साथ ही कुहासा छंट गया है. कयासों को दौर खत्म हो गया है. और नतीजे जनता के सामने हैं. भाजपा ने हैट्रिक जमायी है. डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में पार्टी की यह बड़ी उपलब्धि है. यह उनके विकासपरक सोच की जीत है.
दरअसल इस बार भाजपा को कांग्रेस से इतने बड़ी चुनौती की उम्मीद नहीं थी. हालांकि पार्टी और स्वयं मुख्यमंत्री रमन सिंह हैट्रिक सुनिश्चित मान रहे थे. उन्होंने मतदान के बाद जीत के दावे भी किए लेकिन आशंकाओं से पार्टी उबर नहीं पाई. जिस जीत को वे एकतरफा मान रहे थे, वह अंतिम दौर तक पहुंचते-पहुंचते काफी कठिन हो गई. लेकिन अंतत: भाजपा ने मैदान मार लिया. और अच्छे से मारा.
भाजपा की हैट्रिक दरअसल रमन सिंह की हैट्रिक है क्योंकि रमन सिंह न केवल उसके स्टार प्रचारक थे बल्कि उनके नेतृत्व में सरकार ने जो जनकल्याणकारी नीतियां बनाई और उन पर अमल किया, उस पर मतदाताओं ने अपना भरोसा जताया. यह जनता के भरोसे की तीसरी जीत थी. निश्चय ही इस भरोसे को जीतने का श्रेय अकेले रमन सिंह को है.
छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांगे्रस के बीच हमेशा सीधी टक्कर रही है. चाहे वह 2003 के चुनाव हो या 2008 के. लेकिन 2013 के चुनाव में छत्त्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच की मौजूदगी से यह उम्मीद की जा रही थी कि इस बार उसका खाता खुलेगा. बसपा, स्वाभिमान मंच एवं कम्युनिस्ट पार्टी कम से कम 3-4 सीटें जरूर निकाल लेंगी. किन्तु ऐसा नहीं हो सका. सिर्फ बसपा का एक प्रत्याशी जीता और एक भाजपा के बागी उम्मीदवार ने निर्दलीय के रूप में अपनी धमक बनाई. इसका सीधा अर्थ है कि छत्तीसगढ़ के चुनावी समर में किसी तीसरे की अभी भी कोई गुंजाइश नही है.
जहां तब कांग्रेस का सवाल है, उसने सन् 2008 चुनाव के मुकाबले इस दफे ज्यादा संगठित होकर चुनाव लड़ा तथा मुद्दों को भुनाने की कोशिश की. शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं कुशासन के प्रमुख हथियार के साथ-साथ उसने जीरम घाटी सहानुभूति की लहर पर भी सवार होने की कोशिश की किन्तु पार्टी को इसका लाभ नहीं मिला. राज्य में भारी भरकम मतदान से उसे यह भी उम्मीद थी कि सत्ता विरोधी लहर का भी उसे फायदा मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. भारी मतदान सत्ता के विरोध में नहीं, सत्ता के पक्ष में गया.
यकीनन कांग्रेस को ऐसी करारी हार की उम्मीद नही थी. उसकी स्थिति लगभग 2008 जैसी ही रही. उसकी सीटों में कोई इजाफा नहीं हुआ. तमाम संभावनाओं के बावजूद पार्टी की हार क्यों हुई, दिग्गज क्यों हारे, मैदानी इलाकों में पिछले चुनाव की तुलना में उसका प्रदर्शन क्यों खराब रहा, आदि प्रश्नों पर उसे विचार करना होगा. चुनाव में लगातार तीसरी हार उसके लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए. प्रारंभिक तौर पर यही कहा जा सकता है कि पार्टी गुटबाजी से उबर नही पाई हालांकि बाह्य रूप से वह एकता दिखाने की कोशिश जरूर करती रही. चुनाव के दौरान भितरघात और निष्क्रियता ने भी उसे कमजोर किया.
जैसा कि अजीत जोगी ने स्वीकार किया है, पार्टी जीरमघाटी में दिग्गज कांग्रेसियों की शहादत के मुद्दे को भी जन सहानुभूति के रूप में तब्दील नही कर पाई. और सबसे बड़ी बात है कि विधानसभा के भीतर एवं बाहर विपक्ष के रूप में पूर कार्यकाल में उसकी भूमिका लचर रही. न तो इस दौरान वह जनहित के मसलों को ठीक से उठा पाई और न ही उसने जनता के साथ खड़े होने की कोशिश की. उसकी निष्क्रियता एवं जनता से उसकी दूरी का पूरा लाभ भाजपा ने उठाया. इसलिए भाजपा की हैट्रिक दरअसल सकारात्मक वोटों की हैट्रिक है.