वयस्कों की लत पर हम कब बात करेंगे ?
विनीत कुमार | फेसबुक
मोबाईल-इंटरनेट की लत पर बात करते हुए हम पहला वाक्य आजकल के बच्चे से शुरु करते हैं और पूरी बातचीत को उम्र और पीढ़ी के साथ जोड़ देते हैं. इस मामले में मेरी समझ थोड़ी अलग है.
जो उम्र से बच्चे और किशोर हैं, उनकी इस लत की बात तो समझ आती है लेकिन इसकी गिरफ़्त में चालीस-पचास-साठ साल के वोलोग हैं जो इस माध्यम को अपने उपर उम्र के चढ़ते जाने के असर को कम करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. आप उनकी टाइमलाइन पर ग़ौर करेंगे तो मूल भाव होगा- हम बड़े नहीं होंगे.
उपरी तौर पर यह सब ख़ुश,सहज और बिंदास दिखने का तरीक़ा लगता है लेकिन जब आप उनसे मिलते हैं, बात करते हैं या ऑब्जर्व करते हैं तो आपको यह समझने में मुश्किल नहीं होती कि इस माध्यम की लत ने उन्हें बहुत ही छितराए हुए व्यक्ति के तौर पर बदल दिया है. वो बात आपसे कर रहे होंगे, ताक कहीं और रहे होंगे. वो बोल कुछ और संदर्भ में रहे होंगे और स्क्रीन पर कुछ और देख रहे होंगे.
इतनी समझ तो हम सबके पास है कि इस उम्र के लोग जो दिन-रात दूकान-मकान, पैसा-स्टेटस-पोजिशन-पावर के बीच आपाधापी में लगे हों, यह सब करते हुए उनके भीतर मासूमियत जैसी चीज़ बचती नहीं, हां उसके डिजिटल उत्पादन की कला और कौशल ज़रूर आ जाता है. ऐसे में डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जो नए हैं या फिर ठीक-ठीक समझ नहीं रखते, उन्हें वैसा ही मान लेते हैं जबकि एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार से आनेवाले व्यक्ति की चाह और कोशिश के बीच तैयार की गयी संरचना पर ग़ौर कर लें तो इस फर्क़ को मुश्किल नहीं.
बच्चे और किशोर मोबाईल-इंटरनेट की लत के शिकार हैं, ये चिंता की बात तो है ही लेकिन उससे बड़ा संकट ऐसे चालीस-पचास-साठ साल के लोगों के बीच ज़्यादा है जो इस माध्यम के जरिए उम्र के असर को पाटने में लगे हैं और हम बड़े न होंगे की शर्त पर यहां सक्रिय रहते हैं.
ऐसे में आपको भी तय करने में मुश्किल होगी कि इनसे इनके जैविक उम्र(बायलॉजिकल एज) के हिसाब से व्यवहार करें या फिर डिजिटल कंटेंट के हिसाब से कि बाबू ने थाना थाया ?