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सितंबर उर्फ़ महिला कैंसर जागरूकता माह

रायपुर | सुदेशना रुहान : बहुत पुरानी बात नहीं है. रायपुर ज़िले के एक कैंसर जांच शिविर में हम लोग महिलाओं को उनकी रिपोर्ट समझा रहे थे. रानू (बदला हुआ नाम) का भी नंबर आया. शुरुआती जांच में उसके गर्भाशय में कैंसर होने की संभावना बन रही थी.

थोड़ी देर चुप रहकर उसने कहा “आप समझ नहीं रहीं, मैडम. उसे पता चला तो बहुत मारेगा मुझे.”

ऐसा उसका अपने पति के बारे में कहना था. एक एनजीओ के रूप में जहां हम यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि रानू को समय पर इलाज मिले, वहीँ वह इस बात से सहमी थी कि कैंसर का ज़िक्र आते ही न केवल उसे घर में मारा जायेगा, बल्कि बहुत संभव है कि उसके समाज की अन्य महिलाएं रानू से संपर्क तोड़ दें.

सितंबर का महीना ‘गायनेकोलॉजिकल’ या ‘महिलाओं को होने वाले कैंसर की जागरूकता’ के लिए आवंटित है. इसमें स्तन, बच्चेदानी और अंडाशय के कैंसर प्रमुख रूप से शामिल हैं. भारत सरकार ने जांच और इस बीमारी के बोझ को कम करने हेतु वर्ष 2016 में दिशानिर्देश जारी किये थे. इसके तहत 30 वर्ष और उससे अधिक आयु की महिलाओं में स्तन और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की जांच की सिफारिश की गई थी. परंतु इसके बाद भी भारतीय महिलाओं का समय पर जांच करवाने का अनुपात 0.05% से कम रहा.

छत्तीसगढ़ में 837 प्राथमिक उपचार केंद्र के बावजूद स्तन और गर्भाशय कैंसर की अग्रिम जांच सुविधा अधिकतर प्राथमिक केंद्रों में नहीं है. महिलाओं को ऐसे में ज़िला अस्पताल भेजा जाता है; जहां से अक्सर सुविधाओं के अभाव में उन्हें फिर जाना होता है किसी दूसरे बड़े शहर में. राज्य के 31 ज़िलों और 23 ज़िला अस्पतालों के बावजूद ‘संपूर्ण कैंसर चिकित्सा’ केवल राजधानी, रायपुर में है. अंत में सरकारी अस्पताल की भीड़ और जटिलताओं के मध्य यह महिला नहीं, वरन परिवार तय करता है कि आगे प्राइवेट में इलाज करवाना फायदेमंद होगा या नहीं. अगर महिला रजनोवृत्ति पार कर चुकी या विधवा स्त्री हो, तो अक्सर इसका जवाब ‘न’ होता है.

‘कैंसर’ शब्द अधिकतर लोगों को भय और असुरक्षा से जोड़ता है. और यह भय केवल जीवन की घटती गुणवत्ता ही नहीं, बल्कि आर्थिक असुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है. वर्ष 2023 में एक शोध में पाया गया कि भारतीय कैंसर रोगियों को स्वास्थ्य बीमा कार्ड के अतिरिक्त अपनी जेब से औसतन 3.3 लाख रूपए का खर्च वहन करना पड़ता है. यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिए है. मगर महिला कैंसर रोगियों की चुनौतियां केवल धन पर समाप्त नहीं होतीं.

विशेषज्ञ मानते हैं कि अस्पताल में आम तौर पर कैंसर शब्द का इस्तेमाल कम होता है. इसके बजाय, वे महिला मरीज़ों को समझाने के लिए ट्यूमर, बायोप्सी या संक्रमण फैलने जैसे शब्दों का उपयोग करते हैं.

जब तक मरीज़ सीधे अपने डॉक्टर से यह नहीं पूछती कि क्या उसे कैंसर है, तब तक वे इस बारे में खुलकर बात नहीं करते. यहां तक कि निजी अस्पतालों में, जहां महिला सूचना पढ़ सकती है, परिवार वाले डॉक्टर से कहते हैं कि वे मरीज को उसकी स्थिति के बारे में न बताएं. ऐसी स्थिति में डॉक्टर के लिए यह समझना कि महिला क्या जानना चाहती है, बहुत जोखिम भरा हो सकता है.

छत्तीसगढ़ में कैंसर परिदृश्य भारत के दूसरे राज्यों से बहुत अलग नहीं है. इसमें अशिक्षा, पितृसत्तात्मक समाज, विवाहित महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता जैसे सभी मुद्दे शामिल हैं. मगर एक बात जो हमारे स्वास्थ्य सेवाओं को जटिल बनाती है, वह है छत्तीसगढ़ की भौगोलिक संरचना. दूरस्थ इलाके जैसे दंतेवाड़ा, सुकमा, जशपुर और सरगुजा के अधिकाँश हिस्से आज भी ट्रेन सेवाओं से वंचित हैं. मरीज़ और उनके परिवार को निजी बस सेवाओं से आना पड़ता है. यह महंगा और असुविधाजनक है. हर समय इसकी सुगमता हो ऐसा ज़रूरी नहीं. ऐसे में कई ज़िलों से मरीज़ इलाज के लिए दोबारा नहीं लौटते.

लॉकडाउन के समय जब ट्रेन और बस सेवाएं रोक दी गयी थी, तब कई कृषक महिलाएँ कीमोथेरेपी लेने सब्ज़ी वाली गाड़ियों में पखांजूर से रायपुर के मेकाहारा अस्पताल आया करती थीं. गर्मियों के दिन में अक्सर ये गाड़ियां कटहल से भरे होते थे. अंदाज़ा लगाइये, कटहल के चुभते कोनों के बीच कीमोथेरेपी लेकर लौटती एक बेसुध महिला. साथ में पानी पिलाने वाला भी कोई नहीं, क्योंकि कोरोना से संक्रमण का ख़तरा है!

मई 2024 में एक अध्ययन में पाया गया कि भारत में कैंसर के लक्षण से लेकर डॉक्टर के पास पहली जांच तक में, एक व्यक्ति को औसतन 180 दिनों का समय लगता है. पुरुषों के लिए जहां यह समय 88.5 दिनों का है; वहीं महिलाओं के लिए यह समय बढ़कर 244.3 दिनों का हो जाता है. यानी महिलाओं को अपने इलाज के लिए पुरुषों की तुलना में 3 गुना अधिक इंतज़ार करना पड़ता है.

कैंसर की रोकथाम में समय पर जांच बेहद ज़रूरी है. अगर यह लक्षण के शुरूआती 50 दिनों में हो सके, तो संभव है कि बीमारी पहले चरण में ही पकड़ में आ जाये. लेकिन यह कहना जितना आसान है, धरातल में उतना ही मुश्किल.

घर से प्राथमिक उपचार केंद्र और गांव से ज़िला अस्पताल जितना दूर होगा, महिलाओं के इलाज करवाने की संभावना उतनी कम होती जाएगी. वे अंत तक समय, धन और दूसरों से मदद मांगने में संकोची रहेंगी. इसीलिए सर्विकल कैंसर जैसी बीमारियां जिसमें 99.9% तक बचाव संभव है, हमारे देश में प्रति 100,000 महिलाओं में लगभग 8 महिला की मृत्यु इसी बीमारी से होती है. भारत सर्विकल कैंसर और इससे जुड़े मृत्यु दर में विश्व में अग्रणी है.

सच यह है कि भारतीय परिदृश्य में शुरूआती जांच तब तक बहुत लाभप्रद नहीं है, जब तक बायोप्सी (कैंसर के नमूने की जांच), पेट स्कैन और संपूर्ण कैंसर का इलाज (कीमोथेरेपी, ऑपरेशन एवं रेडियोथेरेपी) मरीज़ के अपने ज़िले में न होता हो. जब तक प्रत्येक ज़िला अस्पताल में बायोप्सी की सुविधा नहीं होगी, प्राथमिक उपचार केंद्र में शुरुआती जांच से कोई फ़ायदा नहीं होगा.

महिलाओं का असली संघर्ष, जांच से पहले नहीं, बल्कि कैंसर की पुष्टि के बाद शुरू होता है. इलाज और पोषण, पारिवारिक सहयोग एवं आर्थिक रूप से महिलाओं के साथ खड़े होकर इस खाई को कम किया जा सकता है. उद्देश्य किसी महिला को सिर्फ़ रोगमुक्त करना नहीं, बल्कि ऊँची गुणवत्ता वाले जीवन की ओर वापस लाने का होना चाहिए. और इन सब में पुरुषों से पहले महिलाओं को अपनी सहभागिता तय करनी होगी.

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