नुकसान में रहे बृजमोहन
दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ सरकार में ऐसा नज़ारा कभी देखने में नहीं आया, जब मुख्य सचिव और मंत्रियों के बीच टकराव इस हद तक बढ़ जाए कि मुख्यमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़े. डॉ.रमन सिंह ने विवादित पक्षों के बीच मध्यस्थता करते हुए यह दावा किया है कि मामला सुलझ गया है लिहाजा न तो मुख्य सचिव हटाए जाएंगे और न ही कथित फर्नीचर घोटाले की जांच होगी. लेकिन मुख्यमंत्री के कहने मात्र से यह समझा जाए कि सब कुछ दुरुस्त हो गया है तथा उभय पक्षों के बीच अब कोई विवाद नहीं है? सही नहीं है. यकीनन इस दावे पर पूरी तरह एतबार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अंतत: अहम् के टकराव का मामला है. मुख्यमंत्री के समझाने-बुझाने से अंगारों पर भले ही राख पड़ गई हो किंतु भीतर ही भीतर शोले दहकते रहेंगे और इसकी तपिश प्रशासनिक गलियारों में महसूस की जाती रहेगी.
निश्चय ही, मुख्य सचिव सुनिल कुमार की ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता. वे कर्तव्यनिष्ठ होने के साथ-साथ सख्त भी हैं और गलत बर्दाश्त नहीं कर सकते. भले ही सामने कोई भी क्यों न हो. लेकिन व्यवस्था इतनी लचर हो चुकी है कि उनके जैसे अफसर के लिए घुटन महसूस करना स्वाभाविक है. मुख्य सचिव शायद ऐसा ही महसूस करते हैं. इसलिए वे यहां से जाना चाहते थे. एक बार वे ऐसी कोशिस कर भी चुके हैं. पर चूंकि अब उनके रिटायरमेंट में कुछ ही महीने शेष हैं, और अगले तीन महीनों में राज्य विधानसभा के चुनाव भी होने हैं अत: न तो उनकी नई पदस्थापना का प्रश्न है न ही उन्हें केन्द्र में जाने की इजाजत दी जानी है. यानी वे यहां बने रहेंगे. लेकिन इस बीच मंत्रियों खासकर राज्य के कद्दावर मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के साथ उनकी पटरी बैठ पाएगी या नहीं, कहना मुश्किल है. ऐसा लगता है कि अब दोनों सिर्फ संबंधों की औपचारिकता निभाएंगे.
दरअसल दोनों के बीच विवाद पुराना है और जड़ें काफी गहरी. चूंकि मुख्य सचिव स्वच्छ एवं ईमानदार प्रशासन के हिमायती हैं, लिहाजा वे अनियमितताओं को सख्ती से रोकने की कोशिश करते हैं. इस कोशिश में उन्होंने कई ऐसे फैसले लिए जो कतिपय मंत्रियों को पसंद नहीं आए.
संयोग से लोक निर्माण विभाग, स्कूली शिक्षा एवं पर्यटन से जुड़े मामले इस दायरे में आए, जो बृजमोहन अग्रवाल के विभाग हैं. चाहे वह स्कूली बच्चों के लिए सायकिल खरीदी का मामला हो अथवा पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा कागज खरीदी में घपले की कोशिश का, मुख्य सचिव ने सार्थक हस्तक्षेप किया. गरियाबंद जिले की तेल नदी के पुल के बह जाने के लिए जिम्मेदार इंजीनियरों की बहाली भी दोनों के बीच टकराव का एक कारण बनी. बृजमोहन इस हस्तक्षेप से अप्रसन्न थे.
अपनी नाराजगी व्यक्त करने उन्हें तब मौका मिला जब मुख्य सचिव ने अपने खिलाफ की गई एक शिकायत को गंभीरता से लेते हुए अपने ही खिलाफ सीबीआई जांच बैठाने मुख्यमंत्री से अनुरोध किया. केन्द्रीय सतर्कता आयोग को भेजी गई शिकायत में आरोप लगाया गया था कि स्कूलों के लिए फर्नीचर की खरीदी में धांधली हुई है. सुनिल कुमार उन दिनों शिक्षा विभाग में अपर मुख्य सचिव थे. अंतत: नैतिकता के नाते उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर सीबीआई जांच के लिए अनुरोध करना बेहतर समझा.
चूंकि मुख्य सचिव का पत्र सार्वजनिक हो गया इसलिए बृजमोहन अग्रवाल को यह कहने का मौका मिल गया कि सुनिल कुमार ने पत्र लीक करके अनुशासनहीनता की है अत: उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए. मुख्य सचिव के पत्र से जो खलबली मची थी, उसकी परिणति विस्फोट के रूप में बृजमोहन के उस पत्र से हुई, जिसमें उन्होंने मुख्यमंत्री से सुनिल कुमार को हटाने की अपील की थी.
इस समूचे घटनाक्रम से यदि कोई सबसे ज्यादा परेशान हुए होंगे, तो वह रमन सिंह हैं क्योंकि यह राज्य शासन की छवि का सवाल है, विशेषकर ऐसे मौके पर जब चुनाव नजदीक हों तथा शासन जनता को यह समझाने की कोशिश कर रहा हो कि वह पारदर्शी है तथा जनोन्मुखी भी.
विवाद से शासन की छवि को धक्का लगना स्वाभाविक है. फिर भी मुख्यमंत्री ने अपनी ओर से पहल करके मरहम-पट्टी करने की कोशिश की है. उनका नरम-गरम संदेश यानी न तो मुख्य सचिव हटाए जाएंगे और न ही फर्नीचर घोटाले की सीबीआई जांच होगी, यह दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि मुख्यमंत्री रहमदिल होने के बावजूद कड़े फैसले लेने में भी सक्षम हैं. उन्होंने बृजमोहन अग्रवाल को आईना दिखाने में संकोच नहीं किया जो उनकी कैबिनेट के सबसे ताकतवर मंत्री माने जाते हैं.
सुनिल कुमार की अर्जी नामंजूर करके उन्होंने नौकरशाही में आत्मविश्वास जगाने के साथ-साथ आत्मसंयम बरतने का भी संदेश दिया है. यानी उन्होंने अपने मंत्री एवं मुख्य सचिव को यह समझाने की कोशिश की है कि आपसी विवाद के इस तरह उछलने से अंतत: शासन के बारे में लोगों की धारणाएं प्रभावित होती हैं.
इस समूचे घटनाक्रम से बृजमोहन अग्रवाल राजनीतिक दृष्टि से नुकसान में रहे. उन्होंने मुख्यमंत्री पर दबाव बनाने की हर चंद कोशिश की. और तो और उन्होंने कुछ मंत्रियों को भी इस मुद्दे पर सहमत करने का यत्न किया. उन्हें उम्मीद थी कि सामूहिक दबाव काम आएगा तथा मुख्यमंत्री उनके पत्र को संज्ञान में लेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
कैबिनेट में नम्बर दो कहे जाने वाले मंत्री के राजनीतिक जीवन की यह सबसे बड़ी भूल थी. उन्होंने पत्र लिखकर अपने पक्ष को सार्वजनिक कर दिया. वे मुख्यमंत्री को विश्वास में लेकर अपनी भावनाएं व्यक्त कर सकते थे. तत्संबंध में भले ही मुख्यमंत्री का निर्णय अपरिवर्तनीय रहता लेकिन कम से कम बृजमोहन की इतनी किरकिरी नहीं होती.
राजनीतिक एवं प्रशासनिक दृष्टि से उनके लिए अब बेहतर यही है कि वे अपने गिले-शिकवे दूर रखकर मुख्य सचिव के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करें. क्योंकि यह अटूट सत्य है कि समय के साथ गहरे से गहरे घाव भी भरने लगते हैं. मुख्यमंत्री भी तो यही चाहते हैं.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.