बंधुआ कलंक से मुक्ति के एक साल
मोहम्मद जाकिर हुसैन
बस्तर अंचल के भोले-भाले आदिवासियों को सुनहरे ख्वाब दिखा कर बड़े शहरों में ले जाना और जानवर से भी बदतर जिंदगी जीने मजबूर करना अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात होने जा रही है. बदलते दौर और बढ़ते संचार साधनों ने एक हद तक इन आदिवासी मजदूरों को बंधुआ के अभिशाप से मुक्ति दिलाने में अहम भूमिका अदा की है.
राम सिंह, बुदरु पोयाम और सकलु माडिय़ा सहित कुल 29 मजदूर बैंगलुरू के एक बड़े हाउसिंग प्रोजेक्ट से बंधुआ मजदूरी के कलंक से मुक्त हुए हैं. अब ये सारे के सारे मजदूर जगदलपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज की परियोजना में एक ठेकेदार के अधीन स्वाभिमान के साथ अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं. जगदलपुर में राम सिंह, बुदरु पोयाम और सकलु माडिय़ा से मुलाकात हुई. इनके बाकी साथी मजदूरी के काम में व्यस्त होने की वजह से नही मिल पाए.
एक मुलाकात के दौरान इन तीनों ने जो कुछ भी बताया, वह काफी खौफनाक और दिल दहला देने वाला था. ट्रेन के जनरल डिब्बे में ठसा-ठस भीड़ के बीच खड़े-खड़े रात भर का सफर और फिर वहां पहुंच कर कभी ना खत्म होने वाला शोषण झेल चुके ये मजदूर नहीं चाहते कि उनकी तरह कोई दूसरा भी वहां पहुंचे.
इन मजदूरों के बंधुआ बनने की दास्तां शुरू होती है पिछले साल अगस्त में. बुदरू पोयाम बताता है कि उनके घर पटेल पारा डिलमिली कोड़ीनार में दलाल कुंदन सिंह आया था. उसने कहा-ईंट जोड़ाई का काम है और अच्छे पैसे मिलेंगे. दलाल ने वहां तक के किराए का इंतजाम भी किया.
रामसिंह ने बताया कि उसके सभी 29 साथियों को दलाल ने केसलुरू पहुंचने कहा. राम सिंह को तारीख तो याद नहीं लेकिन पिछले साल अगस्त महीने की ही एक सुबह थी, जब सारे के सारे मजदूर केसलुरू पहुंचे. यहां से सभी को बस में विजयवाड़ा ले जाया गया. विजयवाड़ा में दलाल ने खाना-पानी का इंतजाम किया. इसके बाद बैंगलुरू के लिए कोई ट्रेन नहीं थी, लिहाजा हम लोगों को पूरा दिन बस स्टैंड में बिताना पड़ा. फिर रात में ट्रेन मिली तो उसमें पैर रखने जगह नहीं थी. सकलु माडिय़ा बताता है कि-ट्रेन के जनरल डिब्बे में अंदर जाने के लिए भी बहुत तकलीफ हुई और अंदर तो लोग ठसा-ठस भरे हुए थे. हम लोगों को संडास के पास खड़े-खड़े रात भर का सफर तय करना पड़ा.
बकौल सकलु-अगले दिन हम लोग बैंगलुरू पहुंचे तो ठेकेदार कंपनी के अंदर ले गया. वहां बहुत बड़े-बड़े मकान बन रहे थे. हम लोगों को भी एक तरफ मजदूरी की जगह ले जाया गया. इसके बाद जब तक छत्तीसगढ़ से पुलिस और साहब लोगों की टीम नहीं आई, करीब महीने भर तक हम लोगों ने नरक का जीवन जिया.
तीनों मजदूर बताते हैं कि ठेकेदार ने काम की जगह के पास ही कुछ कच्ची झोपडिय़ां बनवाई थी. वहीं हमें रखा जाता था. कंस्ट्रक्शन एरिया से बाहर निकलने की किसी को भी इजाजत नहीं थी. हफ्ते में एक दिन रविवार को अपनी जरुरत का सामान खरीदने हमें बाहर ले जाया जाता था, जहां एक दुकान तय थी और वहां बहुत ही खराब सामान हमें लेने मजबूर किया जाता था. हमें दूसरी दुकान से सामान लेने की छूट नहीं थे. इसके अलावा हम तो अपने किसी से बात भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि हमारे पास मोबाइल फोन तक नहीं थे.
बस ऐसे ही दबाव व शोषण के बीच हमारे दिन कट रहे थे. दिन भर प्रोजेक्ट एरिया में काम करने के बाद रात को 8-9 बजे तक छुट्टी होती थी. उसके बाद खाना बनाने और खाने में जितना समय लगता था, फिर सो कर सुबह जल्दी उठने की हड़बड़ी रहती थी. इसी दौरान हमारे जगदलपुर के कुछ और मजदूर छुट्टी होने के बाद घर जा रहे थे. हम लोगों ने उनसे कहा कि किसी तरह हमारे घर में और प्रशासन तक खबर पहुंचा दो, जिससे कि हम लोग यहां से निकल सकें. हमारे साथियों ने जगदलपुर जाने के बाद एक एनजीओ आरशिल वेलफेयर सोसाइटी को बताया. सोसाइटी ने यह जानकारी जनजागृति केंद्र रायपुर को दी.
इसके आगे की मुहिम के बारे में इन मजदूरों को बैंगलुरू से छुड़ाने में अहम भूमिका अदा करने वाले एनजीओ जनजागृति केंद्र के प्रोजेक्ट मैनेजर डॉ. पंकज मसीह ने बताया. डॉ. मसीह बताते हैं कि बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय संगठन इंटरनेशनल जस्टिस मिशन को मामले की पूरी जानकारी दी गई. इसके बाद शुरू हुई मजदूरों की खोजबीन की कोशिश. यहां सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि मजदूर वास्तव में किस प्रोजेक्ट में और कहां काम कर रहे हैं, यह कोई भी नहीं बता पा रहा था. वहां से लौटे मजदूर सिर्फ इतना जानते थे कि बहुत बड़ी कालोनी बन रही है और कोई भारत नाम की कंपनी है. लेकिन इस सुराग के बावजूद वास्तविक कंपनी तक पहुंचने में बहुत दिक्कत आई. इंटरनेट पर भारत नाम से बैंगलुरू में कोई कंपनी नहीं मिली. फिर, मैनें बैंगलुरू में रह रहे अपने कुछ मित्रों से भी पता किया. अंतत: बड़ी मुश्किल से पता लगा कि बैंगलुरू में यह भारती सिटी प्रोजेक्ट है, जहां वृहद कालोनी विकसित हो रही है.
वहां पहुंचने से पहले समूचे प्रोजेक्ट का नक्शा भी हमारे साथ था लेकिन सुरक्षा के इंतजाम वहां इतने तगड़े थे कि सीधे अंदर नहीं पहुंचा जा सकता था. वहां के हालात का पूरा जायजा लेने के बाद मैं जगदलपुर लौटा और जिला व पुलिस प्रशासन को पूरी जानकारी दी. छत्तीसगढ़ शासन और जगदलपुर जिला प्रशासन ने बैंगलुरू जिला प्रशासन से संपर्क किया. इसके बाद 2 सितंबर 2013 को इन मजदूरों को छुड़ाने की कार्रवाई शुरू हुई. ठेकेदार और उसके लोगों ने थोड़ा विरोध जरूर किया लेकिन पुलिस बल और जिला प्रशासन, श्रम विभाग के अफसरों के आगे उनकी एक नहीं चली. सभी मजदूरों को छुड़ा कर लाया गया और वहां के एसडीएम ने इन सभी को बंधुआ मुक्ति का प्रमाणपत्र दिया.
यहां जगदलपुर लौटने के बाद इन्हें विधि सम्मत पुनर्वास राशि का भुगतान चरणबद्ध तरीके से किया गया और इनके वोटर आईडी, स्मार्ट कार्ड, राशन कार्ड व अन्य दस्तावेज दुरुस्त करवाए गए. इन सभी का श्रम विभाग के अंतर्गत असंगठित कर्मकार मजदूर संघ में पंजीयन करवाया गया. जिससे कि इन्हें शासन की 21 विभिन्न योजनाओं का लाभ मिल रहा है. इसके बाद अब सभी मजदूर जगदलपुर मेडिकल कॉलेज की परियोजना में काम कर रहे हैं.
बंधुआ के कलंक से मुक्ति पा चुके आदिवासी राम सिंह, बुदरु पोयाम और सकलुु माडिय़ा अब बेहद खुश हैं. तीनों बताते हैं कि अपने घर के पास ही उन्हें काम मिल गया है और 250 रुपए रोजी में शाम 5 बजे तक काम करते हैं, उसके बाद परिवार के साथ रहते हैं. तीनों का कहना है कि वह अब कभी भी बंधुआ नहीं बनेंगे.
*नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया की फैलोशिप के अंतर्गत किये गये अध्ययन का हिस्सा