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भाजपा के लगातार चिंतन का सबब

दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ़ में भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए अंबिकापुर और बारनवापारा के बाद चार दिनों का प्रशिक्षण कार्यक्रम 28 जुलाई से चंपारण में होगा. ज़ाहिर है, एक के बाद एक ऐसे आयोजनों ने यह साफ कर दिया है कि छत्तीसगढ़ में राजसत्ता इन दिनों आशंकाओं के दौरे से गुजर रही है. आशंकाएं-कुशंकाएं सत्तारुढ़ भाजपा की चौथी पारी को लेकर है, जिसे दो वर्ष बाद अक्टूबर-नवंबर 2018 में चुनाव समर में उतरना है. मुसीबत की जड़ है छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) जिसे अस्तित्व में आए महज चंद दिन ही हुए हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा खुलने से भाजपा में चिंता के बादल गहरा गए हैं. एक तरफ उसे कांग्रेस से मुकाबला करना है और दूसरी तरफ जोगी कांग्रेस से. घबराहट इसलिए भी है क्योंकि पिछले राज्य विधानसभा चुनाव में कांग्रेस केवल 0.75 प्रतिशत वोटों से पीछे रह गई थी. वोटों के मामूली अंतर से भाजपा तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब तो जरुर हो गई किन्तु उसे अहसास हो गया कि चौथी पारी के लिए कुछ ज्यादा मशक्कत करनी होगी लेकिन राज्य में बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य को देखते हुए पार्टी की चिंता द्विगुणित हो गई है.

उसे महसूस हुआ है कि जब तक सत्ता और संगठन में आपसी सामंजस्य नहीं होगा, नौकरशाही नियंत्रित नहीं होगी, सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ सीधे गरीब तबके तक पहुंचाने में सरकार को संगठन की मदद नहीं मिलेगी, तब तक 2018 को फतह करना नामुमकिन होगा. इसी चिंता में डूबी प्रदेश भाजपा ने नए तेवरों के साथ कवायद शुरु कर दी है. अंबिकापुर में 22-23 जून 2016 को प्रदेश कार्य समिति की बैठक और उसके तुरंत बाद 27-28 जून 2016 को राजधानी से कुछ किलोमीटर दूर बारनवापारा के सुरम्य अरण्य में चिंतन शिविर को इसी कवायद का हिस्सामाना गया. इसके बाद चंपारण में प्रशिक्षण के आयोजन को पुराने आयोजनों के विस्तार के तौर पर ही देखा जा रहा है.

छत्तीसगढ़ का राजनीतिक परिदृश्य छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) के उदय के बाद काफी बदल गया है. जनता के पास तीसरा विकल्प आ गया है बशर्ते जोगी कांग्रेस कम से कम दो वर्षों तक मजबूती के साथ टिके रहे तथा आम जनता का विश्वास अर्जित करे. इस लिहाज से उसके पास अभी काफी वक्त है और इतना ही वक्त अपना घर दुरुस्त करने भाजपा और कांग्रेस के पास भी है. दोनों की तैयारियां भी इसी दृष्टि से हैं. कांग्रेस के सामने भी दोहरी चुनौती है. उसे इस बात का भय है कि जोगी कांग्रेस ने यदि उसके प्रतिबद्ध वोटों पर सेंध लगाई तो 2018 भी उसके हाथ से निकल जाएगा, जबकि कुछ समय पूर्व तक उसे आगामी चुनाव में बेहतर संभावनाएं नजर आ रही थीं.

बहरहाल प्रदेश भाजपा वर्ष 2003 से जारी अपनी सत्ता 2023 तक कायम रखने के लिए भारी गुणा-भाग कर रही है, जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है बेलगाम सत्ता को नियंत्रण में रखना और योजनाओं का लाभ जनता तक पहुंचाना. सघन प्रचार पार्टी का एक बड़ा हथियार है जिसकी धार को अब अच्छी तरह तराशा जा रहा है. मंत्रियों के पीछे एक-एक पदाधिकारी की तैनाती का जो विचार आया है, उसके पीछे मूल भावना है राज्य सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ कार्यकर्ताओं के माध्यम से सीधे जनता तक पहुंचाना. ये पदाधिकारी मंत्रियों एवं कार्यकर्ताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाएंगे. इसके साथ ही वे उनकी कार्यप्रणाली पर नजर रखेंगे व मंत्रियों के पास समस्याओं को लेकर पहुंचने वाले लोगों के साथ सद्व्यवहार एवं आत्मीय संवाद को सुनिश्चित करेंगे. सत्ता और संगठन के बीच समन्वयक की नियुक्ति का विचार बेहतर है. बशर्ते इसे खेल भावना से लिया जाए. यह जरा मुश्किल है क्योंकि इसमें सत्ता के दो केंद्र बनना तय है. इस वजह से टकराव भी बढ़ सकता है और असंतोष भी या फिर नूरा कुश्ती भी चल सकती हैं. इसीलिए शायद इस विचार को तिलांजलि दे दी गई है.

भाजपा की चिंता की झलक इसी बात से मिलती है कि सरकार ने जनकल्याणकारी घोषणाओं की झड़ी लगा दी है. राज्य सरकार ने मई के अंतिम माह में किसानों के लिए दो हजार करोड़ की 11 योजनाओं का ऐलान किया. उनमें से कुछ राजनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है. मसलन सरकार ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी भूमि पर 46 लाख लोगों को भूमि के पट्टे बांटेगी. यह अभियान राज्य के स्थापना दिवस 1 नवंबर 2016 से शुरु होकर 31 अक्टूबर 2017 तक चलेगा. इसी तरह सरकार ने हमर छत्तीसगढ़ योजना की शुरुआत 1 जुलाई 2016 से कर दी है. इस योजना के तहत 11 हजार से अधिक गाँवों के करीब पौने दो लाख निर्वाचित पंचायत एवं नगर पंचायत के जनप्रतिनिधियों को राजधानी रायपुर की सैर कराई जाएगी. इस दौरान उन्हें राज्य में पिछले 12 वर्षों में हुए विकास कार्यों का अवलोकन कराया जाएगा तथा विज्ञान एवं तकनीकी क्षेत्र में दर्ज प्रगति की जानकारी दी जाएगी.

जनप्रतिनिधियों को भावनात्मक रुप से जोड़ने के लिए उन्हें अपने-अपने गाँवों से मिट्टी, पौधे एवं पानी लेकर आने के लिए कहा गया है ताकि वे नई राजधानी स्थित वनस्पति उद्यान में अपने-अपने पौधों का रोपण कर सकें. हमर छत्तीसगढ़ योजना दो वर्षों तक चलेगी. अर्थात चुनावी वर्ष 2018 में इसका समापन होगा. फटाफट घोषित की गई ऐसी तमाम योजनाओं से जाहिर है, भाजपा किसानों एवं ग्रामीण जनप्रतिनिधियों को, भले ही वे किसी भी राजनीतिक पार्टी के समर्थक हो, बांधे रखना चाहती है ताकि वर्ष 2018 उसके लिए आसान हो. यकीनन यह उसकी चुनावी रणनीति का हिस्सा है. वर्ष 2018 के विधानसभा उसके लिए इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि 2019 में लोकसभा चुनाव होने हैं. अत: इसके लिए जरुरी है राज्य में भाजपा की सत्ता हर हालत में कायम रहे.

भाजपा को अब सबसे ज्यादा फिक्र अपने अनुसूचित जाति के वोट बैंक की है. राज्य की 10 विधानसभा सीटें इस वर्ग के लिए आरक्षित हैं. पिछले चुनाव में इस समुदाय के वोटरों ने भाजपा का साथ दिया था. 10 में से 8 सीटें उसे जीतकर दी. लेकिन अब इसमें हिस्सेदारी के लिए अजीत जोगी खड़े हो गए हैं जिनका इन सीटों पर खासा प्रभाव है. कांग्रेस अलग ताल ठोक रही है. यानी अगले चुनाव में इन सीटों का बंटवारा तय है.

प्रदेश भाजपा की दूसरी चिंता बस्तर, सरगुजा की अनुसूचित जनजाति की सीटों की है. वर्ष 2013 के चुनाव में इस इलाके की कुल 23 आरक्षित-अनारक्षित सीटों में से सिर्फ 8 सीटें ही भाजपा जीत सकी थी. खासकर बस्तर संभाग में कांग्रेस का प्रदर्शन शानदार रहा. भाजपा यहां कुल 12 में से 4 सीटें ही जीत पाई. पार्टी की एक और मुसीबत यह है कि आदिवासी विभिन्न कारणों से बिदके हुए हैं. पूर्व सांसद सोहन पोटाई पार्टी से अलग हो चुके हैं. एक और पूर्व सांसद व वरिष्ठ नेता नंदकुमार साय अपनी उपेक्षा से खफा हैं और उनमें अरसे से असंतोष का लावा खदबदा रहा है. वे अनुशासन के दायरे में रहते हुए नेतृत्व के खिलाफ कई बार ताल ठोक चुके हैं.

प्रदेश का नेतृत्व किसी आदिवासी नेता को सौंपने की मांग भी काफी पुरानी है. कुल मिलाकर आदिवासी वोट बैंक भी पार्टी के लिए चिंता का सबब बना हुआ है. इसलिए चुनाव के दो वर्ष पूर्व पार्टी को सत्ता और संगठन के स्तर पर आत्मावलोकन की जरुरत महसूस हुई है. यह कार्यपरिषद की बैठक के चंद दिनों के भीतर चिंतन शिविर का आयोजन और उसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों की मौजदूगी से स्पष्ट है. जाहिर है ऐसे शिविर आगे भी होंगे जिसमें संगठन व सत्ता के कामकाज की पड़ताल की जाएगी.

बारनवापारा चिंतन शिविर में प्रदेश के 12 मंत्रियों के कामकाज, जनता के बीच छवि, जनता के साथ उनका व्यवहार एवं चुनाव की स्थिति में जीत की संभावनाओं पर विचार विमर्श किया गया. शिविर में आरएसएस द्वारा तैयार किए गए रिपोर्ट कार्ड में एक दर्जन से अधिक भाजपा विधायकों के परफार्मेंस पर सवाल उठाए गए. आगामी चुनाव में उनकी जीत की संभावना नगण्य बताई गई है. प्रदेश नेतृत्व के लिए यह चिंताजनक है. शिविर में विचार किया गया कि इन सीटों पर जीत की सुनिश्चितता के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए. चिंतन शिविर में यह स्वीकार किया गया कि आगामी चुनाव, पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा कठिन है, ज्यादा चुनौतियां है और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों का फासला एक प्रतिशत से भी कम रहा है. अत: यदि यह फासला नहीं बढ़ा और 10-5 सीटें भी इधर से उधर हो गई तो 2018 का हाथ से निकलना तय है. वैसे भी सत्ता और संगठन के कामकाज को देखते हुए यदि आज चुनाव हो जाए तो भाजपा का आम कार्यकर्ता भी यह स्वीकार करता है कि पार्टी की हार तय है.

बहरहाल चिंतन शिविर में सत्ता और संगठन को नसीहत दिए जाने के बावजूद स्थितियों में क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद फिलहाल नजर नहीं आ रही है. सब कुछ अभी उसी ढर्रे पर चल रहा है, जिसने चिंता की लकीरें पैदा की है. बस्तर में फर्जी मुठभेड़ों में निरपराध आदिवासियों के मारे जाने और सुरक्षा जवानों द्वारा आदिवासी युवतियों से बलात्कार की घटनाओं का इजाफा ही हुआ है. गोमपाड़ मुठभेड़ ताजा घटना है, जिसमें नक्सली होने के शक में एक आदिवासी युवती मड़कम हिडमे को सुरक्षा जवानों ने मार गिराया. आरोप है कि पहले उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और बाद में उसकी हत्या करके उसे मुठभेड़ का रंग दिया गया. अब इस घटना की दण्डाधिकारी जांच हो रही है. लोग मीना खलखो कांड को भूले नहीं है. 6 जुलाई 2011 को बलरामपुर जिले के चांदो थाना क्षेत्र के अंतर्गत लांगरटोला में 17 वर्षीय इस आदिवासी बाला को पुलिस ने माओवादी बताकर उस समय मार गिराया जब वे भेड़े चरा रही थी. यह मामला अभी भी सरकार के कागजों में लंबित है.

दरअसल नक्सल समस्या की आड़ में हत्या एवं बलात्कार की ऐसी घटनाएं माओवादियों से सीधी लड़ाई से ज्यादा भयावह और क्रूरतम है. खैर ये सब तो अपनी जगह है, नौकरशाही के रंग-ढंग में भी कोई सुधार नहीं आया हैं. आईजी स्तर के पुलिस अधिकारी जब अपने अधीनस्थ महिला कर्मचारियों के साथ अश्लील व्यवहार के आरोप लगते हैं तो इसे क्या कहा जाए? महिलाओं के उत्पीड़न की ऐसी घटनाएं आम है. जाहिर है सरकार का नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं है. यह भी स्पष्ट है कि इससे उसकी साख गिर रही है. भाजपा के केंद्रीय एवं प्रदेश नेतृत्व के लिए बड़ी चिंता का सबब यही है कि कैसे सत्ता को काबू में रखा जाए तथा शासन-प्रशासन को जनोन्मुख बनाया जाए. कैसे उसे संगठन के जरिए जनता के नजदीक लाया जाए ताकि उसका विश्वास फिर से कायम हो सके, जो 2018 के चुनाव के लिए अति आवश्यक है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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