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भाजपा के ‘अच्छे दिन’ दूर

नई दिल्ली | एजेंसी: राजनीति में यूपी और बिहार अपनी अलग पहचान रखते हैं, क्योंकि राजनीतिक लिहाज से दोनों बड़े राज्य हैं. इन राज्यों में चुनाव परिणामों की दिशा देश की राजनीति का भविष्य तय करती है. बिहार का चुनाव परिणाम बेहद चौंकाने वाले हैं. हालांकि एक्जिट पोल में यह अनुमान लगाए गए थे कि एनडीए पर महागठबंधन भारी दिख रहा है, लेकिन इतनी उम्मीद नहीं थी कि भाजपा की रैंकिंग सिर्फ 53 सीटों और एनडीए 58 सीट पर ठहर जाएगी.

लेकिन महागठबंधन ने भाजपा की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, निश्चित तौर पर यह अपने आप में चौंकाने वाले पारिणाम हैं. यह भाजपा, मोदी और अमित शाह की तिकड़ी के लिए मंथन का विषय है, क्योंकि भाजपा की बुरी पराजय हुई है.

बिहार में अपना पिछला प्रदर्शन भी नहीं दोहरा पाई. 2010 के चुनाव में उसने जहां 91 सीट हासिल किया था वहीं पांच साल बाद वह 53 पर आ गई. यह भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है. भाजपा इस चुनाव में विकास का अपना सिद्धांत पहुंचाने में सफल नहीं हुई है. मोदी और नीतीश के चेहरे में नीतीश का विकास भारी पड़ा है.

बिहार ने राज्य विधानसभा के माध्यम से कई अहम संकेत दिए हैं. बिहार में जहां 10 साल बाद लालू प्रसाद यादव की आरजेडी की वापसी हुई है, वहीं कांग्रेस ने उम्मीद से कई गुना बेहतर और अच्छा प्रदर्शन किया है. यह कांग्रेस के लिए शुभ संकेत है. कांग्रेस ने 41 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें 27 सीटों पर विजय हासिल की है.

बिहार का चुनाव परिणाम एक बार कांग्रेस की वापसी का दरवाजा खोला है. महागठबंधन की विजय ने देश की राजनीति में अलग संदेश दिया है. बिहार में करारी हार के बाद खुद भाजपा में विरोध की आवाजें उठने लगी हैं. पार्टी में पीएम और अमित शाह सीधे निशाने पर हैं. अच्छे दिनों की याद बुरे दिनों में बदल गई है.

दिल्ली के बाद बिहार में भाजपा की करारी पराजय बड़ा सवाल उठाती है. हालांकि महागठबंधन का जीवनकाल फिलहाल चीरजीवी और स्थायी नहीं दिखता है, क्योंकि लालू यादव महागठबंधन में सबसे बड़े दल के रूप में उभरे हैं. नीतीश ने जहां 71 सीटें हासिल की हैं वहीं लालू की आरजेडी ने 80 सीटें हासिल की हैं. ऐसी स्थिति में सत्ता का सारा खेल लालू प्रसाद यादव के हाथ में होगा, क्योंकि इसके पहले लालू और नीतीश एक दूसरे के धूर और राजनीतिक विरोधी रह चुके हैं.

राजनीति अवसरवाद पर आधारित होती है. इसका कोई सिद्धांत नहीं होता है. मौका पाते ही यह विचारों और सिद्धांतों की हवन कर देती है. बिहार में नीतीश और लालू एक मंच पर आना समय की मांग थी. हालांकि अभी वह स्थिति नहीं है, लेकिन आने वाले दिनों में यह स्थिति बन सकती है. जनतादल कल फिर भाजपा के साथ जा सकता है अगर लालू और नीतीश में राजनीतिक खटास पैदा हुई तो आने वाले दिनों में यह स्थिति बन सकती है.

फिलहाल अभी इस पर कोई तर्क बेमतलब होगा, क्योंकि महागठबंधन की जीत के आगे मोदी और उनकी सरकार के अच्छे दिनों का सपना बिहार में हवा हो गया है. भाजपा अपनी पराजय को लेकर बेहद परेशान है. राज्यों में अब उसका विजय अभियान थम गया है. एक के बाद एक तगड़े झटके लगे हैं. मध्यप्रदेश में नगर निगमों में उसे बड़ी सफलता भले मिली हो लेकिन मुंबई के मनपा चुनाव में उसके सहयोगी दल शिवसेना को अच्छी जीत मिली है.

बिहार में उसकी पराजय दूसरा सबसे बड़ा झटका है. शिवसेना ने अपने मुख्यपत्र ‘सामना’ में तीखा हमला बोला है. बिहार में भाजपा की हार को पतझड़ की संज्ञा दी गई है.

भाजपा की हार के पीछे कई बातें सामने आ रही हैं, जिसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत को भी पराजय का कारण मना जा रहा है. इसमें उन्होंने आरक्षण की समीक्षा की बात कहीं थी. भाजपा की ओर से इस बयान से पल्ला नहीं झाड़ा गया. यह बात दीगर थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसका घाव कम करने के लिए खुद अपनी जाति बताई और यहां तक कहा कि देश में आरक्षण कभी खत्म नहीं होगा. जरूरत पड़ी तो हम इसके लिए जान की बाजी लगा देंगे.

बिहार पिछड़ा राज्य है. ऐसी स्थिति में यह बयान भाजपा को भारी पड़ गया. हालांकि इस तरह के मसले मतों के ध्रुवीकरण के लिए उठाए गए और बिहार में अगड़े पिछड़ों की राजनीति का कार्ड जो खेल खेला गया, उसमें निश्चित तौर पर महागठबंधन को लाभ पहुंचा.

भाजपा के हर तीखे हमले को महागठबंधन ने भुनाया है. राष्ट्रीय राजनीति में बिहार चुनाव परिणाम का क्या असर पड़ेगा. इस पर बहस शुरू हो गई है. इसका असर आर्थिक सुधारों पर भी पड़ेगा, क्योंकि राज्यसभा में सरकार का संख्याबल कम है और जीएसटी समेत कई अहम बिल पारित होने हैं.

भाजपा की पराजय के पीछे पार्टी की आंतरिक कलह भी है. बिहार में शत्रुघ्न सिन्हा पार्टी का एक बड़ा चेहरा हो सकते थे. वे चाहते थे पार्टी बिहार में उनके नेतृत्व में चुनाव लड़े और उन्हें बिहार के भावी मुख्यमंत्री के रुप में पार्टी आगे रखे इसे लेकर सिन्हा और भाजपा में काफी पहले से आंतरिक द्वंद चल रहा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जिससे वे बेहद खफा थे.

भाजपा की पराजय के बाद उनका बयान आया है कि जीत के बाद कैप्टन ताली पाता है तो गाली भी वहीं पाता है. इस तरह के बयान पार्टी की आंतरिक कलह को उजागर करते है. पार्टी में दूसरी सबसे वजह नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली की तिकड़ी की समझी जा रही है, जिसमें राज्य के नेताओं को कोई तवज्जो नहीं दी गई. हार की समीक्षा के बाद आए जेटली के बायान से लगा, अभी अकड़ नहीं गई है.

टिकट बंटवारे से लेकर प्रचार तक सभी कमान केंद्रीय नेताओं के हाथ थी, जिसमें बिहारी नेताओं की नहीं एक भी नहीं चली. उधर, अरुण शौरी ने बिहार की हार के लिए मोदी, जेटली और शाह की तिकड़ी को जिम्मेदार ठहराते हुए सीधा हमला बोला है. इससे यह साबित है कि पार्टी में सब कुछ बेहतर नहीं चल रहा है.

बिहार की राजनीति में इसका कोई असर नहीं पड़ा और महागठबंधन इसका फायदा उठाने में कामयाब दिखा. इसके अलावा पीएम का डीएनए वाला बयान भी विरोधियों के हाथ अच्छा मौका दे गया. उस बयान को खूब तूल दिया गया. इसके बाद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का यह बयान भी भाजपा के लिए भारी पड़ा कि अगर भाजपा हारी तो पटाखे पटना में नहीं, पाकिस्तान में फूटेंगे.

गाय वाला बयान भी मुस्लिमों और पिछड़ों को एक जुट करने का काम किया. मुस्लिम और यादव मतों का सीधा महागठबंधन के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ. अगड़े मतों का जहां भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ वहीं मुस्लिमों और यादवों का रुख महागठबंधन के पक्ष में हुआ.

बिहार में ओवैसी का अधिक असर नहीं दिखा. इसके अलवा दाल और तेल की बढ़ती कीमतों ने भी खासा असर दिखाया. इस स्थिति में आने वाले दिनों में बिहार का चुनाव परिणाम भाजपा के लिए और मुश्किलें खड़ी कर सकता है.

बिहार के परिणाम से राज्यसभा में महागठबंधन के सदस्यों की संख्या और अधिक हो जाएगी. ऐसी स्थिति में भाजपा और सरकार को अपने काम करने के तरीके को बदलना होगा. भाजपा की दोहरी नीतियां उस ले डूबेंगी. एक तरफ पीएम मोदी अपने को उदारवादी होने की छवि पेश करते हैं, दूसरी ओर बिहार के डीएनए पर सवाल उठाते हैं.

हालांकि यह बात उन्होंने नीतीश के लिए बोली था, लेकिन इसका रियेक्ट सीधे बिहारियों पर हुआ. जिस तरह मोदी ने कांग्रेस के चायवाले बयान को भुनाया था, उसी तरह लालू और नीतीश ने मोदी के डीएनए, आरक्षण, गाय और अमित शाह के पाकिस्तान वाले बयान को कैश कराया है.

भाजपा खुद अपने ‘बड़बोलेपन’ में फंसती चली गई, क्योंकि भाजपा की राजनीति सीधे संघ से डील होती है. संघ को दरकिनार करना भाजपा के बूते की बात नहीं है. इसी का बेजा लाभ महागठबंधन और कांग्रेस ने उठाया है. भाजपा के लिए यह मंथन, चिंतन का विषय है, क्योंकि आने वाले दिनों में यूपी में राज्य विधानसभा के चुनाव होने हैं.

भाजपा को रोकने के लिए यहां भी बिहार की तर्ज पर महागठबंधन का फार्मूला अपनाया जा सकता है, लेकिन यूपी में यह संभव नहीं दिखता है. लेकिन इस पराजय के बाद भाजपा को अपनी छबि में बदलाव लाना होगा. भाजपा के लिए आने वाले वाले दिन बेहद चुनौती भरें होंगे.

अगर देश की जनता को उसे विश्वास जीतना है तो लोकसभा के चुनाव के दौरान किए गए वादों पर उसे खरा उतरना होगा. दाल रोटी की कीमतों को स्थिर रखना होगा और आर्थिक नीतियों पर एक साझा नीति तैयार करनी होगी. अहम और टकराव की नीति त्यागनी होगी.

इसमें कोई शक नहीं कि आगे आनेवाले दिनों में भाजपा के लिए चुनौती भरें होंगे. सरकार की तमाम आर्थिक सुधार की नीतियों पर भी प्रतिपक्ष के आगे समझौता करना पड़ेगा, क्योंकि इन अहम बिलों को संसद में पारित कराने के लिए आम राय की आवश्यकता होगी.

अब सरकार क्या रणनीति बनाती है यह देखना होगा. भाजपा अकेले मोदी के भरोसे कुछ नहीं कर सकती है. उसे अपनी रीति और नीति को बदलना होगा. उसे हिंदुत्व, आरक्षण, गाय और दूसरे मसलों पर अपनी नीति साफ करनी होगी, क्योंकि वह सत्ता में विकास के मसले पर आई है. कांग्रेस से ऊब चुकी जनता ने उसमें उम्मीद की नई किरण देखी थी जो वक्त के पहले ही धूल धूसरित होती दिखती है.

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