बीजाकुरा: जहां घोषित हुई थी भारत की खाद्य नीति, वहीं भोजन के नाम पर पीला चावल
रायपुर। संवाददाताः यह 29 फरवरी 1992 का मामला है, जिस दिन मध्यभारत के चर्चित और विश्वसनीय अख़बार ‘देशबंधु ‘ ने छत्तीसगढ़ इलाके के सरगुजा में विशेष संरक्षित पंडो आदिवासी समुदाय की जकली बाई और उनके बेटे की भूख से मौत की ख़बर छापी थी.
कौशल मिश्रा की लिखी यह ख़बर इतनी चर्चा में आई कि सत्ता और विपक्ष के नेताओं को भूख से मारे गए इस परिवार के गांव तक पहुंचना पड़ा.
गांव का नाम था बीजाकुरा.
32 साल बाद बीजाकुरा फिर से चर्चा में है.
बलरामपुर-रामानुजगंज ज़िला मुख्यालय से लगभग सौ किलोमीटर दूर बीजाकुरा गांव का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है, जिसमें बच्चे हल्दी डाला हुआ चावल मध्यान्ह भोजन में खा रहे हैं.
इन 43 बच्चों का कहना है कि उन्हें यही हल्दी-नमक डाला हुआ चावल मिलता है.
दूसरी ओर भोजन का इंतजाम करने वाले महिला स्व सहायता समूह का कहना है कि उन्हें इतने पैसे नहीं मिलते कि वो बच्चों को दाल या सब्जी खिला सकें.
भूख और कुपोषण का स्थाई घर है बीजाकुरा
कभी मध्यप्रदेश के सरगुजा ज़िले का हिस्सा रहा यह बीजाकुरा गांव, अब छत्तीसगढ़ के बलरामपुर का हिस्सा है.
गांव का भूगोल बदल गया लेकिन गांव की त्रासदी जस की तस बनी रह गई.
भूख और कुपोषण तब भी इस गांव की पहचान थी और अब भी यह पहचान स्थाई रुप से बनी हुई है.
बीजाकुरा हमारी उस व्यवस्था का स्थाई चेहरा है, जो इतने सालों में कभी किसी सरकार की प्राथमिकता में ही नहीं आ पाया.
लगडी ग्राम पंचायत के इस आश्रित बीजाकुरा गांव में आज भी सारी व्यवस्थाएं घिसट रही हैं.
रिबई पंडो की बहु और पोते की हुई थी भूख से मौत
बीजाकुरा में रिबई पंडो की बहु जकली बाई और पोते की भूख से मौत की ख़बर देसी-विदेशी मीडिया में चर्चा में आई तो राजनीति गरमाने लगी.
बीजाकुरा गांव से लगभग 800 किलोमीटर दूर, राजधानी भोपाल में इस भूख से मौत की गूंज ऐसी हुई कि विपक्षी दल ने पूरे विधानसभा सत्र का ही बहिष्कार कर दिया.
पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल और पूर्व मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा दौड़े-दौड़े रिबई पंडो के गांव जा पहुंचे.
बात संसद तक पहुंची और लोकसभा में हुई बहस के बाद तब के प्रधानमंत्री नरसिंहा राव को मई के महीने में रिबई पंडो के गांव में आने का फ़ैसला करना पड़ा.
मई 1992 में प्रधानमंत्री नरसिंहा राव इस इलाके में पहुंचे और उन्होंने एक ऐसी खाद्य नीति की घोषणा की, जिससे गोदामों से निकलने वाला अनाज ग़रीबों को मिलना सुनिश्चित हो सके.
लेकिन यह सब इतिहास की बात है.
रिबई पंडो के बेटे रामविचार पंडो, इन तमाम तरह की खाद्य नीति की घोषणाओं के कुछ सालों बाद कुपोषण का शिकार हो कर काल के गाल में समा गए.
80 साल के रिबई पंडो कुछ सालों तक और जीवित रहे और मीडिया की सुर्खियों में बने रहे.
रिबई पंडो का पोता भी अनाज के लिए तरसता रहा
भूख से अपनी मां जकली बाई और भाई को खोने वाले रामसाय पंडो अपने पिता रामबिचार पंडो और दादा रिबई पंडो की मौत के बाद अपने एक रिश्तेदार के यहां पले बढ़े.
खेती-बाड़ी संभालने जब रामसाय पंडो अपने गांव बीजाकुरा पहुंचे तो उन्हें उम्मीद थी कि उनकी जिंदगी उनके घर तक पहुंचने वाली घुमावदार और पथरीली सड़के जैसी तो नहीं ही होगी.
लेकिन यहां तो भूख और कुपोषण की विरासत, रामसाय की प्रतीक्षा में थी.
2013 में जब यह संवाददाता बीजाकुर गांव में रामसाय से मिला तो पता चला कि एक खपरैल घर में रहने वाले, नमक-भात खाने वाले रामसाय पंडो को सरकार ग़रीब नहीं मानती.
रामसाय के बार-बार के इसरार के बाद भी उनका बीपीएल कार्ड नहीं बनाया गया.
गांव के दूसरे लोगों ने भी बताया था कि रामसाय की तरह ही गांव के सभी आदिवासियों के पास एपीएल कार्ड ही है.
वाड्रफनगर के तब के एसडीएम एसपी उपाध्याय ने इस संवाददाता से कहा था कि वे मामले की जांच कराएंगे.
लेकिन अधिकारियों के हिस्से अपनी प्राथमिकता होती है और कम से कम रामसाय जैसे पंडो आदिवासी उनकी प्राथमिकता में तो कभी नहीं होते.
शायद यही कारण है कि बीजाकुरा का दुख कम होने का नाम नहीं ले रहा.