भाजपा की इस हार के मायने
जेके कर:
बिहार चुनाव को अपनी जीत बनाने की कोशिश में प्रधानमंत्री मोदी ने उसकी हार को अपनी हार बना डाला. सबसे अचंभित करने वाली बात यह है कि भाजपा को सबसे ज्यादा मत मिलने के बावजूद भी उसकी सरकार न बन सकेगी. अब तक के नतीजों तथा रुझानों के अनुसार भाजपा को 24.9%, राष्ट्रीय जनता दल को 18%, जनता दल युनाइटेड को 17% तथा कांग्रेस को 6.7% मत मिले हैं. कांग्रेस से ज्यादा मत 9.3% निर्दलीय उम्मीदवारों को मिले हैं. जबकि नतीजों तथा रुजानों के अनुसार राजद को 80, जदयू को 72, कांग्रेस को 25, भाजपा को 53, लोक जनशक्ति पार्टी को 3 तथा हम को 2 सीटें मिलती दिीख रहीं हैं.
पिछले दिनों महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा तथा गोवा में विजय पताका फहराने वाली भाजपा का रथ बिहार में आकर रुक गया है. जाहिर है कि इसके दूरगामी प्रभाव आने वाले समय में बंगाल चुनाव पर पड़ेंगे.
मोदी बनाम नीतीश
बिहार चुनाव जाने-अनजाने में प्रधानमंत्री मोदी बनाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हो गया जिसका खामियाजा भाजपा को आगे आने वाले समय में भुगतना पड़ सता है. इसके लिये जिम्मेदार भाजपा की चुनावी रणनीतियां हैं. जिसके तहत प्रधानमंत्री मोदी की धुआंधार चुनावी सभा आयोजित किये गये, करीब दो दर्जन हेलीकाप्टरों का प्रचार के लिये उपयोग किया गया यहां तक की केन्द्रीय मंत्रियों ने भी बिहार में अपना डेरा डाले रखा. पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने किसी राज्य के चुनाव प्रचार में 30 सभाओं को संबोधित किया. यहां तक कि पटना की सड़कों पर प्रधानमंत्री मोदी तथा अमित शाह के ही होर्डिंग लगे थे.
जाहिर है कि इससे बिहार विधानसभा चुनाव हाईप्रोफाइल वाला बन गया. नतीजनः इसकी हार को प्रधानमंत्री मोदी की हार के तौर पर देखा जा रहा है.
बिहार विधानसभा चुनाव का मोदी बनाम नीतीश होने के पीछे कुछ और कारण भी हैं. जिस समय भाजपा कार्यकारिणी में नरेन्द्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव की बागडोर सौंपने की गहमागहमी चल रही थी तथा जिसका भाजपा के पुराने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहे लालकृष्ण आडवाणी विरोध कर रहे थे, ऐन उसी वक्त जनतादल युनाइटेड ने नीतीश की सरपरस्ती में भाजपा के साथ अपना गठबंधन तोड़ दिया था. एक तरफ जहां लालकृष्ण आडवाणी ने पार्टी के भीतर नरेन्द्र मोदी का असफल विरोध किया वहीं नीतीश कुमार ने मोदी के कारण भाजपा से गठबंधन तुड़वा दिया था.
उसके बाद से ही नरेन्द्र मोदी तथा नीतीश कुमार का आपसी राजनीतिक अंतर्विरोध सतह पर आ गया.
राजनीतिक गलियारी की कानाफूसी
बिहार चुनाव के प्रचार के समय से ही कानाफूसी शुरु हो गई थी कि एक तबका बिहार चुनाव में मात देने की फिराक में था. बातें तो यहां तक सुनाई दी थी कि कई लोग नहीं चाहते थे कि प्रधानमंत्री मोदी बिहार चुनाव के बाद और ताकतवर होकर उभरे. जाहिर है कि बिहार चुनाव में नीतीश-लालू की जोड़ी को मात देने के बाद मोदी भारतीय संसदीय राजनीति के अपराजेय योद्धा बन जाते भले ही पांच साल के लिये जो हर किसी के लिये पचाना मुश्किल था.
बात दूर तलक जायेगी
पिछले एक साल में लोकसभा में भाजपा का स्पष्ट बहुमत होने के बावजूद भी प्रधानमंत्री मोदी को अपनी कई नीतियों को अमलीजामा पहनाने से पीछे हट जाना पड़ा. उसका कारण है कि राज्यसभा में भाजपा अल्पमत में है. वर्तमान में लोकसभा में भाजपा के 280 सांसद, कांग्रेस के 44, एआईडीएमके के 37 सांसद, बीजेडी के 20, शिवसेना के 18, तेलगुदेशम के 16 तथा टीआरएस के 10 सांसद हैं.
इसके उलट राज्यसभा में कांग्रेस के 67, भाजपा के 48, समाजवादी पार्टी के 15, जनतादल युनाइटेड के 12, बसपा के 10 तथा सीपीएम के 9 सांसद हैं.
245 सदस्सीय राज्यसभा में सबसे ज्यादा सांसद उत्तर प्रदेश से हैं. उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में 31 सीट, महाराष्ट्र से 19, तमिलनाडु से 18, बिहार से 16, पश्चिम बंगाल से 16, कर्नाटक से 12, राजस्थान से 10, मध्य प्रदेश से 11, केरल से 9 सीटे प्रमुख हैं.
भाजपा को अपनी नीतियों को लागू करने के लिये राज्यसभा में अपनी संख्या बढ़ानी पड़ेगी. इसके लिये जरूरी है कि भाजपा बड़े राज्यों में भी सत्ता पर काबिज हो ताकि वहां से राज्यसभा में भाजपा के सांसद भेजे जा सके.
बिहार चुनाव के नतीजे भाजपा के इस दूरगामी रणनीति के मार्ग में एक रोड़ा बनकर उभरा है. यदि यही 2016 में पश्चिम बंगाल में भी दोहराया जाये तो भाजपा को खासी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है.
उग्र राष्ट्रवाद की हार
बिहार चुनाव के ऐन पहले जिस तरह से बीफ का मुद्दा गर्माया उससे इसका प्रभाव बिहार के मतदाताओं पर भी पड़ना लाजिमी था. आखिर बिहार लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की जन्मभूमि रही है इसलिये उग्र राष्ट्रवाद को बिहार में पसंद नहीं किया जाता है. और तो और भाजपा की महाराष्ट्र मे सहयोगी शिवसेना ने इसी समय पाकिस्तानी गज़ल गायक गुलाम अली का विरोध किया, सुधीन्द्र कुलकर्णी के चेहरे पर कालिख पोती तथा पाक क्रिकेट बोर्ड के साथ मुंबई में बैठक नहीं होने दी. गोया ऐसे लगने लगा कि देश में क्या करना है, क्या खाना है इसे भी राजनीतिक नेतृत्व द्वारा तय किया जायेगा. इससे लोगों के मन में आशंका उत्पन्न नहीं हुई होगी ऐसा नहीं माना जा सकता. चूंकि केन्द्रीय सत्ता पर भाजपा विराजमान है इसलिये इसका राजनीतिक खामियाजा भी उसे ही भोगना पड़ा.
महंगाई का रोना
दाल के भाव भी पिछले साल भर में इसी समय सबसे उफान पर रहे. दाल का मूल्य 200 रुपये प्रतिकिलो तक पहुंच गया था. लोकसभा चुनाव में “बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार” का नारा देने वाली भाजपा के राज में यदि दाल ही खाने को न मिले तो उसके नारों तथा बातों पर जनता कहां तक विश्वास कर सकती है.
कार्पोरेट नीतियों को धक्का
बिहार में भाजपा की हार उसे मजबूर कर देगी कि वह अपनी नीतियों की समीक्षा करे. दरअसल में मोदी सरकार भी उन्हीं नीतियों पर चल रही है जिस पर कभी चलकर मनमोहन सिंह ने कांग्रेस की लुटिया डुबाई थी. चाहे कार्पोरेट घरानों को टैक्स में छूट देने की बात हो या श्रम सुधारों को लागू करने की बात हो. इसके दूसरी तरफ लोगों से गैस सब्सिडी छोड़ने के लिये बकायदा कैंपेन चलाया जा रहा है. जनता सवाल यह पूछ सकती है कि कार्पोरेट को टैक्स में छूट न देकर उसे ही बढ़ाया क्यों नहीं जाता है.
कुल मिलाकर बिहार में भाजपा की हार के भारतीय राजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे इससे इंकार नहीं किया जा सकता है.