Columnist

रमन-भूपेश: बर्फ पिघली या और जमी

दिवाकर मुक्तिबोध
यह लगभग 43 वर्ष पुराना मामला है, जिसकी गांठें अब खोलने की कोशिश की जा रही है.आरोपों के केन्द्र में हैं छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल.

कहा जा रहा है कि दुर्ग जिले की पाटन तहसील के गांव कुरुदडीह में उनके परिजनों ने 22 किसानों की 77 एकड़ जमीन पर कब्जा कर रखा है. प्रभावित किसानों का कहना है कि सन् 1975 से उस जमीन पर उनका कब्जा था जिस पर खेती करके वे अपना व परिवार का गुजर-बसर करते थे. लेकिन सन् 1992 में बघेल के विधायक बनने के बाद उन्हें इस जमीन से बेदखल कर दिया गया, उसे दीवार से घेर लिया गया.

प्रभावितों के अनुसार उनके पास जमीन से संबंधित ऋण पुस्तिका है जिसके आधार पर बैंकों से उन्हें ऋण भी मिला और अदालतों से भी कई मामलों में उन्हें जमानत मिली. लेकिन ऋण पुस्तिका पर किसी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं हैं जबकि किसान ऋण पुस्तिका में राजस्व अधिकारियों मसलन तहसीलदार, नायब तहसीलदार के हस्ताक्षर होने चाहिए?

अब सवाल है कि क्या फर्जी ऋण पुस्तिकाएं तैयार की गई? किसानों को झांसा दिया गया? उन्हें विश्वास दिलाया गया कि पट्टे न होने के बावजूद वे ही जमीन के वास्तविक मालिक हैं.

ऐसा किसके कहने पर, किसके इशारे पर, किसने किया? क्या भूपेश बघेल के कहने पर जो उन दिनों तत्कालीन म.प्र. के राजस्व मंत्री थे और विवादित जमीन उनकी पुश्तैनी जमीन से सटी हुई थी. तो क्या सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करके किसानों से उनकी जमीन छिन ली गई. ऋण पुस्तिकाएं तो बना दी गई किंतु पुस्तिका पर जानबूझकर अधिकारियों से हस्ताक्षर नहीं करवाए गए? या तो उन्हें अंधेरे में रखा गया या ऐेसी पुस्तिकाएं तैयार करवाने के लिए उन पर दबाव बनाया गया? यानी ऋण पुस्तिका पर अधिकारियों के हस्ताक्षर न होना भी जांच का विषय है.

बहरहाल इस मुद्दे पर अब राजनीति गर्म है. इस राजनीति के तीन कोण हैं. एक छोर पर है छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जिसके अजीत जोगी प्रमुख हैं, दूसरे छोर पर भूपेश बघेल व प्रदेश कांग्रेस और तीसरा कोण बना रहे हैं मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह एवं उनकी सरकार. इस

भूपेश बघेल रमन सिंह
भूपेश बघेल रमन सिंह
मामले को हवा देने का श्रेय अजीत जोगी की पार्टी को है. प्रदेश की राजनीति में पार्टी के स्तर पर उनके दो प्रतिद्वंदी हैं, सत्तारुढ़ भाजपा व प्रदेश कांग्रेस. लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर भूपेश बघेल से उनका खास बैर है. बघेल की वजह से जोगी, कांग्रेस से विदा हुए तथा उन्हें अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बनानी पड़ी. इसलिए रमन सिंह से कहीं ज्यादा उनके टारगेट में भूपेश बघेल रहते हैं, जिन्हें आरोपों के कटघरे में खड़े करने की वे हरचंद कोशिश करते हैं. यह मामला भी इसी कोशिश का परिणाम है.

कुछ माह पूर्व भूपेश बघेल व उनके परिजनों द्वारा किसानों की जमीन हथियाने व उस पर बेजा कब्जा करने का आरोप अजीत जोगी ने ही लगाया था. आरोप के बावजूद मामले ने ज्यादा तूल नहीं पकड़ा हालांकि राज्य सरकार ने जांच के निर्देश दिए थे. जांच में इस बात का खुलासा हुआ कि कब्जे की जमीन दरअसल सरकारी है तथा चारागान के लिए छोड़ी गई है. इसी जमीन पर प्रभावित किसानों का कब्जा रहा है जिस पर वे खेती करते रहे हैं.

इस प्रकरण में राजनीति का रंग अब भरा जा रहा है. किसानों की जमीन हथियाने के आरोप के साथ-साथ बघेल पर तत्कालीन विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकारियों (साड़ा) भिलाई – 3 की आवासीय कालोनी मानसरोवर में अनियमित तरीके से भूखंड आवंटित कराने का आरोप है. इस मामले में उनकी माँ और पत्नी के खिलाफ आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) में भी आपराधिक प्रकरण दर्ज किया गया है.

दो दशक पुराने प्रकरणों का अब उजागर होना और परवान चढऩा कतई हैरतअंगेज नहीं है. राजनीति में गड़े मुर्दे कब उखाड़े जाएं तथा उनकी पुन: शवयात्रा निकाली जाए यह परिस्थितियों और अवसरों पर निर्भर है. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस छत्तीसगढ़ में ऐसी जिंदा हो गई है कि उसने सत्तारुढ़ दल की नाक में दम कर रखा है.

बघेल के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस ने जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं की सुध ली है तथा सरकार की नीतियों और उनकी नाकामियों पर बड़े जनआंदोलन खड़े किए हैं. वह दोतरफा मोर्चे पर लड़ रही है. एक तरफ भाजपा है तथा दूसरी तरफ अजीत जोगी की कांग्रेस. जोगी भले ही कहते रहें कि उनकी लड़ाई रमन सिंह से है लेकिन वे उनसे दोस्ती भी निभाते रहे हैं. दरअसल भाजपा और जोगी कांग्रेस दोनों का मकसद एक है.

भूपेश बघेल की सक्रियता को रोकना. इसके लिए सबसे मुफीद तरीका है कि उन्हें उनके ही मामलों में उलझाया जाए. कुरुदडीह भूमि विवाद और साडा भूखंड प्रकरण इसी का नतीजा है. प्रकरण में आरोप सही है या गलत यह तो जांच से स्पष्ट होगा पर इतना तय है इसे राजनीतिक बनाने की कोशिश की गई है. इस कोशिश में किसे कितना फायदा या नुकसान होगा, यह समय बताएगा.

यह अच्छा हुआ कि भूपेश बघेल मुख्यमंत्री से मिलने अपने साथी नेताओं के साथ गए. यदि वे अकेले जाते तो संदेह के बादल गहराते. क्योंकि यह मुलाकात तब हो रही थी जब बघेल बचाव की मुद्रा में थे तथा प्रत्यारोप के साथ ही प्रशासन को चुनौती देते नज़र आ रहे थे. उन्होंने मुख्यमंत्री से कहा भी यदि आरोपित क्षेत्र में उनकी जमीन भी हो तो किसानों को दे दी जाए पर इस पर राजनीति न की जाए. यह हथियार डालने जैसी बात थी. जवाब में शासन ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी कि पहले जमीन से अवैध कब्जा हटाया जाएगा और फिर राजस्व विभाग की रिपोर्ट के आधार पर किसानों के संबंध में फैसला लिया जाएगा.

बहरहाल, कुछ समय के लिए सही, भूपेश बघेल को राजनीतिक तौर पर घेरने की सरकार व भाजपा की कोशिश कामयाब होते दिख रही है. यह तो तय है, अब 22 साल पुराने कुरुदडीह जमीन विवाद का निपटारा हो जाएगा. कम से कम प्रभावित किसानों को जिनके पास विवादित घास जमीन का पट्टा नहीं है, अब उसके मिलने के आसार है. यानी एक ऐसे प्रकरण का पटाक्षेप होगा जिसके सिरे पर गरीब किसान खड़े होकर लंबे समय से आंसू बहा रहे थे और असहाय थे.

भूपेश बेदाग होकर इस प्रकरण से निकल भी जाएंगे तो भी भिलाई-3 मानसरोवर कालोनी में उनके व परिवार के आधिपत्य के एक दर्जन भूखंड गले की फांस बने रहेंगे. यकीनन इस प्रकरण का निपटारा तभी होगा जब राजनीतिक दृष्टि से मारक समय आएगा.

इस समूचे मामले में एक गंभीर प्रश्न है कि जब पूरी पार्टी उनके साथ खड़ी थी, तब इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री से मिलने की जरूरत क्यों पड़ी? मीडिया के माध्यम से वे पहले ही अपनी बात कह चुके थे, सफाई दे चुके थे, अपनी कथित संलिप्तता को नकार रहे थे व आरोपों को राजनीति से प्रेरित बता रहे थे, साजिश करार दे रहे थे. तब मुख्ममंत्री से भेंट के लिए समय मांगने का औचित्य क्या था?

जिन किसानों को मुख्यमंत्री से मिलवाने वे ले जाने वाले थे, उन्हें तो जोगी कांग्रेसी पहले ही ले उड़े थे और मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात करा दी थी. यानी यहां भी मात खानी पड़ी. यकीनन भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री से भेंट करने की जरूरत नहीं थी. उन्होंने 14 साल बाद मुख्यमंत्री से आमने-सामने बैठकर बातचीत की. क्या इसके पहले राज्य में और भी ज्वलंत मुद्दे नहीं थे जिस पर चर्चा के लिए वे समय मांग सकते थे. पर ऐसा कभी नहीं हुआ.

समय मांगा, मुलाकात की तो अपने लिए क्योंकि वे स्वयं आरोपित थे. जैसा कि उन्होंने कहा है- कमीशनखोरी के मुद्दे पर वे रमन सरकार के खिलाफ आंदोलन तेज करेंगे पर कुरुदडीह व मानसरोवर विवाद से जो कीचड़ उन पर उछला है, उसके दाग शायद आसानी से नहीं जाएंगे.

* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!