भूपेश बघेल सरकार: हर दिन विज्ञापन का खर्च था 2.74 करोड़
रायपुर | ममता मानकर: क्या आप इस बात पर भरोसा करेंगे कि छत्तीसगढ़ की पिछली भूपेश बघेल सरकार हर दिन विज्ञापनों पर लगभग पौने तीन करोड़ रुपये खर्च कर रही थी? राज्य सरकार ने विज्ञापन के जो आंकड़े विधानसभा में पेश किए हैं, उसके अनुसार भूपेश बघेल की सरकार अपना चेहरा चमकाने के लिए हर दिन 2 करोड़ 74 लाख 34 हज़ार 719 रुपये खर्च कर रही थी.
बीमारु राज्यों में शुमार, छत्तीसगढ़, देश के उन थोड़े से राज्यों में है, जहां सर्वाधिक ग़रीबी है. लेकिन इस ग़रीब राज्य में अपना चेहरा चमकाने के लिए हर सरकार बेतहाशा पैसे खर्च करती रही है. अपने कामकाज को जनता तक पहुंचाने के लिए राज्य और केंद्र सरकारें अख़बार, टीवी चैनल, रेडियो, वेब पोर्टल, होर्डिंग, सोशल मीडिया और दूसरी जगहों पर हर साल अरबों रुपये खर्च करती हैं.
पिछले कुछ सालों में तो राज्य सरकारों ने दूसरे राज्य के अखबारों और लोकल चैनलों पर विज्ञापन देना शुरु कर दिया है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री की तस्वीरों वाले पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन राजस्थान में छप रहे हैं और पंजाब सरकार के विज्ञापन छत्तीसगढ़ में. छत्तीसगढ़ सरकार अपने विज्ञापन, नेपाली टीवी पर दिखाती रही है.
लेकिन पिछली भूपेश बघेल की सरकार ने विज्ञापनों पर होने वाले खर्चों के सारे रिकार्ड तोड़ दिए.
सोमवार को छत्तीसगढ़ विधानसभा में विधायक मोतीलाल साहू के सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने, पिछली भूपेश बघेल सरकार के विज्ञापनों के जो आंकड़े पेश किए हैं, वो चौंकाने वाले हैं.
127 करोड़ से आंकड़ा पहुंचा 532 करोड़
छत्तीसगढ़ विधानसभा में पेश जानकारी के अनुसार जिस साल दिसंबर में भूपेश बघेल की सरकार सत्ता में आई, उसके अगले साल यानी 2019-20 में सरकार ने 127 करोड़ से अधिक की रकम विज्ञापनों पर खर्च की थी.
जिस साल भूपेश बघेल सरकार की विदाई हुई यानी 2022-23 में विज्ञापनों का खर्च दोगुने से अधिक हो चुका था. 2022-23 में भूपेश सरकार ने 295 करोड़ से अधिक की रकम विज्ञापनों पर खर्च की. इस साल अप्रैल तक सरकार ने हर दिन विज्ञापनों पर 80 लाख 90 हज़ार 660 रुपये खर्च किए.
यह दिलचस्प है कि सरकार के लिए निविदा समेत अन्य ज़रुरी वर्गीकृत विज्ञापनों का खर्च में बहुत मामूली बढ़ोत्तरी हुई. राज्य में जब भूपेश बघेल की सरकार ने सत्ता संभाला, उस समय 2019-20 में वर्गीकृत विज्ञापनों पर 16 करोड़ 85 लाख, 80 हज़ार 576 रुपये खर्च किए गए थे. 2022-23 में वर्गीकृत विज्ञापनों का खर्च 17 करोड़ 65 लाख 72 हज़ार 221 रुपये तक पहुंचा.
इसी तरह आदिवासी उपयोजना पर सरकार लगभग 2 करोड़
रुपये खर्च करती थी, उसमें भी मामूली बढ़ोत्तरी हुई. 2 करोड़ 39 लाख रुपये की यह रकम बढ़ कर 2 करोड़ 63 लाख तक पहुंची. आदिवासी बहुल राज्य में, आदिवासियों का सबसे अधिक भला करने का दावा करने वाली सरकार में आदिवासी उपयोजना के विज्ञापनों पर बेहद मामूली बढ़त चौंकाता है. लेकिन आदिवासियों को लेकर सरकारों का रवैय्या किसी से छुपा हुआ नहीं है.
सोशल मीडिया पर रिकार्ड खर्च
बहरहाल, जिस डिजिटल और सोशल मीडिया पर 2019-20 में महज 3 करोड़ 67 लाख 5 हज़ार 235 रुपये खर्च हुए थे, उसमें बेतहाशा वृद्धि हुई. 3 करोड़ 67 लाख के मुकाबले, 2022-23 में सोशल और डिजिटल मीडिया पर भूपेश सरकार ने 25 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार 899 रुपये खर्च किए. यानी हर दिन केवल सोशल मीडिया पर भूपेश बघेल की सरकार 7 लाख रुपये खर्च कर रही थी.
अब जरा साल दर साल बढ़ते सरकार के विज्ञापन के खर्चे की ओर नज़र डालें तो पता चलता है कि 2019-20 में सरकार प्रिंट मीडिया को 30 करोड़ रुपये के आसपास का विज्ञापन देती थी. 2022-23 में यह आंकड़ा 74 करोड़ रुपये हो गया.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लगभग 35 करोड़ रुपये का विज्ञापन देती थी, वह बढ़ कर 73 करोड़ से अधिक हो गया.
क्षेत्र प्रचार पर सरकार का खर्च था 37 करोड़ रुपये, वह 2022-23 में बढ़ कर एक अरब रुपये से अधिक हो गया.
आंकड़े अभी बाकि हैं
विधानसभा में इसी साल फरवरी में पेश आंकड़ों की मानें तो 2023 में, जिस साल दिसंबर में भूपेश बघेल की सरकार सत्ता से बाहर हुई, उस साल अप्रैल से दिसंबर तक राज्य सरकार ने विज्ञापनों पर 534 करोड़, 31 हज़ार 506 रुपये खर्च किए.
राज्य में 9 अक्टूबर 2023 से विधानसभा चुनाव के कारण आचार संहिता लगी थी. ऐसे में भूपेश बघेल की सरकार ने एक अप्रैल 2023 से 9 अक्टूबर 2023 यानी लगभग 191 दिन में ही अरबों रुपये खर्च कर डाले.
अगर आप इन 191 दिनों में 534 करोड़, 31 हज़ार 506 रुपये का हिसाब-किताब देखें तो पता चलता है कि भूपेश बघेल की सरकार ने इस दौरान हर दिन, विज्ञापनों पर 2 करोड़ 74 लाख 34 हज़ार 719 रुपये खर्च किए.
जनता की गाढ़ी कमाई पर, एक के बाद एक टैक्स लादती सरकारें, जब अपना काम जनता के बीच पहुंचाने के बजाय, अपना नाम पहुंचाने के लिए, अपने चेहरे को चमकाने के लिए, हर दिन करोड़ों खर्च करने में भरोसा करती हों तो लगता है कि संविधान में जिस लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई थी, उससे ये सरकारें अभी भी कोसों दूर हैं.