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कभी न भूलेगी वह मनहूस रात

भोपाल | एजेंसी: मध्य प्रदेश की राजधानी में दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी को हुए भले ही 30 बरस बीत गए हों, मगर यहां के लोग उसे अभी तक भुला नहीं पाए हैं. हादसे का शिकार बने परिवारों के मन में डर अब भी समाया हुआ है. उन्हें उस मनहूस रात की याद आती है, तो नींद उड़ जाती है और तबाही का मंजर स्मृति-पटल पर सिनेमा के रील की तरह चलने लगता है.

दो-तीन दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात में यूनियन कार्बाइड संयंत्र से निकली जहरीली गैस ने हजारों परिवारों की खुशियां छीन ली थीं. संयंत्र के आसपास बसी बस्तियां अब भी हादसे की गवाही देती नजर आती है. 30 साल बाद बच गई है बुजुर्गो की कराह, अपंग पैदा हुए बच्चों के घिसटकर चलने की लाचारी. अपनों के खोने का गम और सांस की बीमारी से जूझतीं अनगिनत महिलाएं. संयंत्र के आसपास की अमूमन हर बस्ती की यही कहानी है.

यूनियन कार्बाइड संयंत्र के कर्मचारी रह चुके आजाद मियां बताते हैं कि वह अपनी ड्यूटी पूरी कर घर लौटे और सो गए. अचानक उन्हें शोर सुनाई दिया और आखें खुल गईं, फिर आंखों में जलन होने लगी. बाहर निकलकर देखा तो हर तरफ भगदड़ मची थी. बेचैन लोग बेतहाशा इधर-उधर भाग रहे थे, एक-दूसरे से टकराकर गिर रहे थे.

आजाद ने कहा, “यह समझते देर नहीं लगी कि संयंत्र में कुछ हो गया है. मेरे परिवार के लोगों ने किसी तरह अपनी जान बचाई, मगर बीमारियां आज भी इन्हें घेरे हुई हैं. कई लोगों की आंखें कमजोर हो गई हैं.”

जेपी नगर में रहने वाली हाजरा बी बताती हैं कि हादसे की रात का मंजर आज भी उनकी आंखों के सामने आ जाता है तो उन्हें नींद नहीं आती है. हादसे की रात सबको भागते देख वह भी अपने एक बेटे और पति के साथ भागी थीं. कुछ देर बाद याद आया कि दूसरा बेटा तो घर में ही सोता छूट गया. वापस घर में आकर देखा तो बेटा बेहोश पड़ा था. इलाज के बाद उसकी जान बची.

इसी तरह तबाही को याद कर लक्ष्मी बाई की आंखें भर आती हैं. वह बताती हैं, “उस रात ऐसे लग रहा था जैसे धरती पर कोई प्रलय आ गई हो. हर किसी को अपनी जान की चिंता थी. जिसको जिधर खुली जगह दिख रही थी, उधर भागे जा रहा था. उस वक्त सबकी आखों में काफी जलन थी. आंखें बंद किए ही लोग भाग रहे थे और एक-दूसरे के ऊपर गिर-पड़ रहे थे.”

बीमार-लाचार लक्ष्मी ने कहा, “अच्छा होता, उसी वक्त हम मर गए होते.. 30 साल से तो हम मर-मर कर जिए जा रहे हैं.”

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार कहते हैं कि आफत तो एक रात आई, मगर सैकड़ों परिवार 30 साल से रोज जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. सरकार ने जो मुआवजा दिया, उससे तो इलाज भी मुमकिन नहीं है.

वह कहते हैं, “पीड़ितों को वाजिब मुआवजा, रोजगार और बेहतर इलाज की सुविधा मिल जाती तो तकलीफ कुछ कम महसूस होती.”

भोपाल गैस पीड़ितों का दर्द कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है, क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ दवा का असर कम होने लगा है, बीमारी बढ़ने लगी है. विडंबना ऐसी कि हादसे के बाद जन्मी नई पीढ़ी भी जहरीली गैस के दुष्प्रभावों को झेल रही है.

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