ब्रेख्त के बहाने विदेशी लेखन का अनुवाद कर्म
कनक तिवारी | फेसबुक: अंग्रेजी से इतर भाषाओं के लेखकों के रचनात्मक अवदान के आयात को लेकर हिन्दी के पाठकों की थोड़ी मुश्किल भी है. ऐसे अनुवाद लेखक की मातृभाषा से सीधे हिन्दी में करने के दावे किए जाते हैं. विकल्प में उनके अंग्रेजी अनुवादों से हिन्दी में अनुवाद किए जाते हैं. दोनों स्थितियों में पाठकों को अनुवादक की रचनात्मक क्षमता पर यकीन करना होता है. जर्मन साहित्य से भारत का गहरा रिश्ता रहा है. साहित्येतर विषयों को लेकर भी हमारी परस्पर निर्भरता, जिज्ञासा और विश्वसनीयता दिलचस्प इतिहास रचती रही है.
आर्यों के मूल या उद्भव की थ्योरी, हिटलर से भारतीय आजादी की मदद की अपेक्षा, मैक्समूलर से लेकर लोठार लुत्से तक जर्मनों की भारतीय जीवन की व्याख्या में सक्रियता भी हमारी पुलक के कारण रहे हैं. इस सिलसिले में (ब्रेख्त, ब्रेष्ट या ब्रेष्त) के रचनाकार को हमारे सामने परोसे जाने की कुछ विसंगतियां भी उजागर हुई हैं.
ब्रेख्त खुद अपने अनुसार तथा उनकी विश्व स्तर पर हो चुकी सर्वम्मत स्थापना के कारण नाटककार पहले और ज्यादा समझे जाते हैं. उनकी कविताओं और लघुकथाओं पर चर्चा ब्रेख्त के लेखन के आनुषंगिक या कमतर पक्ष पर बहस नहीं होने पर भी ब्रेख्त के समग्र मूल्यांकन से कुछ पृथक विमर्श तो है ही. कविताएं ब्रेख्त मुख्यतः अपने नाटकों को ध्यान में रखकर लिखते थे. वे इसलिए गीतात्मक कविताओं के रचयिता के रूप में भी विख्यात हैं.
मसलन कविता ‘जलता हुआ पेड़‘ को लेकर एक परेशानी उठ खड़ी हुई. मोहन थपलियाल का अनुवाद इसी कविता के दूसरे अनुवादक हरीशचंद्र अग्रवाल से काफी अलग है. शाब्दिक अभिव्यक्तियां, अन्तर्लय, बिम्बविस्तार और ध्वन्यात्मकता आदि के आधारों पर दोनों पंक्ति दर पंक्ति अपना अलग अनुवाद संसार रचते हैं. थपलियाल लिखते हैं ‘धुएं के बीच धधकता अग्नि ज्वाल.‘ इसी को अग्रवाल लिखते हैं, आग के सैलाब की जबर्दस्त लहरों के कोहरे के पार.‘ थपलियाल लिखते हैं ‘फिर विस्फोटित होता है. लाल चिनगारों के बीच और नाचने लगता है सब कुछ साथ साथ.‘ अग्रवाल फरमाते हैं, ‘और फिर तना, लाल चिनगारियों से घिरा हुआ कड़कड़ाना आरम्भ कर देता है.
‘‘कला की इष्टदेवियां‘‘ की थपलियाल अनूदित पंक्तियां सूजी आंखों से/वे उसका आदर करती हैं/पूँछ मटकाती हुई कुतियों की तरह.‘‘ हरीषचन्द अग्रवाल का अनुवाद है, ‘‘काली आंखों से/कुतियों की, वे उसकी आराधना करती हैं.‘‘ ‘‘सूजी‘‘ का अर्थ ‘‘काली‘‘ कैसे हुआ? अग्रवाल ने ‘‘पूंछ मटकाती हुई‘‘ जैसी श्वास-चरित्र की अभिव्यक्ति विलोपित कर दी या थपलियाल ने वर्णन को प्रभावशाली बनाने के लिए जोड़ लिया? इसी तरह‘‘ आदर्श वाक्य वाली चार पंक्तियों की कविता में थपलियाल ने ‘‘लट्ठों और कपड़ों से‘‘ पाल बनाने की बात कही है.
लाल बहादुर वर्मा के अनुवाद में ‘‘लट्ठों‘‘ की जगह ‘‘लकड़ी‘‘ तो खैर ठीक है लेकिन ‘‘कपड़ों‘‘ के बदले‘‘ बोरे का इस्तेमाल हुआ है. सबसे मजेदार पंक्ति ‘‘जलता हुआ पेड़‘‘ में वह है जहां थपलियाल ‘‘मुंह पर झेलता लाल नीली लपटों की ताबड़तोड़ मार‘‘ और अग्रवाल ‘‘इसके शिखर की तरफ बैंगनी लपट उठती है‘‘ लिखते हैं. जाहिर है जो लाल नीली है वह कविता में बैंगनी-कैसे हो सकती है? कलर बाॅक्स के जरिए भले हो जाये.
विदेशी कविताओं के सभी उपलब्ध अनुवाद समानान्तर रखकर पढ़ें तो उलझनें भी पैदा होती हैं. अनुवाद केवल उल्था नहीं हैं. यह अनुवादक बखूबी जानते हैं. अनुवादक निस्संदेह भाषाविद् और विद्वान होते हैं. लेकिन रचनात्मक लेखन का अनुवाद विद्वता से कहीं ज्यादा छंद के सीधे अन्तरण, काव्यात्मकता की सहज अनुभूति और शब्द विधान के प्राकृतिक रूप से आत्मसात होने का प्रयोजन है. पाठक में यह सब जाँचने की क्षमता कहां है? विदेशी मुहावरों का भारतीयकरण केवल अनुवादक के वश की बात नहीं हैं. उसमें कवि और भाषा विज्ञानी भी धड़कना चाहिए.
सवाल है इनमें से कौन और कितना कविता की आत्मा का अनुवाद है? क्या अनुवादकों को लेकर कोई कार्यविधि सुनिश्चित की जा सकती है? मसलन क्या कोई अनुवाद गिल्ड या फेडरेशन हो सकता है? क्या अनुवाद के सम्बन्ध में (दोनों) भाषाओं के एक एक अनुवादक का जुड़कर काम करना जरूरी नहीं लगता? ये प्रश्न हिन्दी के पाठकों को ब्रेख्त जैसे लेखकों की और से उद्वेलित कर रहे हैं क्योंकि वे अपने को यथासम्भव जैसे का तैसा परोसा जाना चाहते हैं. शरद जोशी ने अपने निबन्ध ‘‘हिन्दी का नया वाद अनुवाद‘‘ में तल्खी के साथ लिखा है, ‘‘अनुवादक हमेशा डिब्बों में बन्द फल का मजा देते हैं. अर्थबोध तो पाठक में होता है.‘‘
क्या ब्रेख्त की कृतियों की तरह विदेशी लेखकों के विदेशी और भारतीय प्रकाशकों का यह संयुक्त उत्तरदायित्व नहीं है कि वे मूल से भारतीय भाषा (मसलन हिन्दी) में अनुवाद की प्रामाणिकता/विश्वसनीयता की संयुक्त जिम्मेदारी लें? क्या इस सम्बन्ध में कोई द्विपक्षीय कानून या करार नहीं होना चाहिए जिसके अनुसार आवेदक (पहलकर्ता) भारतीय अनुवादक पर विद्वान की सहमति का नोट हो जो सम्बन्धित भारतीय भाषा का स्तरीय जानकार हो.
सूचना के अधिकार की व्यापक प्रसरणशीलता के चलते क्या भारतीय पाठकों को पूरा ब्रेख्त जैसा का तैसा पाने का अधिकार नहीं है? सूचना का अधिकार यदि जनता को सरकार से है, तो सरकारी कानूनों के तहत होने वाले/किए जाने वाले व्यापारिक/बौद्धिक संस्थानों/व्यक्तियों के आचरण से क्यों नहीं? ऐसा नहीं है कि प्रकाशक/अनुवादक हर स्थिति में गलत ही हों. अनुवाद साहित्यिक कर्म के साथ ही व्यवसाय भी है. पाठक के लिए पढ़ना एक साहित्यिक अधिकार है.