पास-पड़ोस

व्यापमं एक शैक्षिक घोटाला

नर्ई दिल्ली | बीबीसी: व्यापमं घोटाला एक शैक्षिक घोटाला है जिसमें शिक्षा के अवसरों की हेराफेरी की गई है. ‘ला कैरे’ के प्रसिद्ध जासूसी उपन्यासों में एक या दो लोग अचानक मर जाते हैं तो सैकड़ों पन्ने की कथा चल पड़ती है. मध्य प्रदेश में लोग जिस पैमाने पर यकायक मरे पाए जा रहे हैं, उसकी टक्कर का प्रसंग तलाशने हमें रूस या कोलंबिया छोड़कर ग्वाटेमाला या कांगो की तरफ़ का रुख करना होगा.

राजनीतिक विश्लेषक नीरजा चौधरी कहती हैं, “व्यापमं जैसा घोटाला आज़ाद भारत में पहले कभी नहीं हुआ.” व्यापमं ने घोटाला शब्द की व्यंजना काफ़ी फैला दी है. सामान्य घोटाले पैसे के भ्रष्टाचार में केंद्रित होते हैं. कोई घोटाला छोटा है या बड़ा, यह बात घोटाले के जरिए कमाई गई रकम पर निर्भर होती है.

फ़िलहाल ऐसा लगता है कि व्यापमं का मामला सिर्फ पैसे का नहीं है. अगर है भी तो विकेंद्रित ढंग से है. व्यपामं की जांच पूरी और निष्पक्ष हो, तो भी अधूरी ही रहेगी. इसकी वजह समझने के लिए हमें दो सवाल पूछने चाहिए- एक, इस घोटाले का मुख्य विषय क्या है?

दूसरा, यह घोटाला मध्य प्रदेश में ही क्यों हुआ? दूसरे सवाल को इस तरह भी पूछा जा सकता है- क्या यह घोटाला बिहार या उत्तर प्रदेश में भी हो सकता था?पहले सवाल का जवाब देना आसान है. व्यापमं घोटाले का विषय है शिक्षा. दूसरे सवाल का उत्तर देना इतना आसान नहीं है, मगर कोशिश दिलचस्प रहेगी.

व्यापमं एक शैक्षिक घोटाला है. इस घोटाले में शिक्षा के अवसरों की हेराफेरी हुई है. डॉक्टरी की शिक्षा के अवसर वैसे भी बहुत कम हैं, पर कोचिंग उद्योग ने डॉक्टरी और अन्य पेशों की शिक्षा में दबाव बहुत बढ़ा दिया है. सरकारी और निजी संस्थानों के खर्चों में भी भारी अंतर है. इन परिस्थितियों में मेडिकल कॉलेजों में घुसने या घुसाए जाने का व्यापार पनपना स्वाभाविक है.

व्यपामं घोटाले में सरकारी सेवाओं के लिए प्रतियोगिता भी शामिल है. सरकारी नौकरियां लगातार घटाई जाती रही हैं और इससे इन्हें पाने की जद्दोजहद बेतहाशा बढ़ गई है. नौकरियां घटाए जाने का सिलसिला तथाकथित आर्थिक सुधारों से जुड़ा है, जो देश में सभी जगह लागू किए जा रहे हैं, पर मध्य प्रदेश का अनुभव कुछ निराला है.

स्कूल के शिक्षक की नौकरी को अस्थायी बनाने में मध्यप्रदेश का किसी और राज्य से मुक़ाबला नहीं है. नब्बे के दशक में ही मध्य प्रदेश ने स्थायी रूप से नियुक्त पुराने शिक्षकों को ‘डाइंग काडर’ घोषित कर दिया था- यानी, भविष्य में पुराने वेतनमानों पर स्थायी शिक्षकों की भर्ती नहीं की जाएगी.

जन शिक्षण अधिनियम के तहत प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती का जिम्मा पंचायतों को सौंप दिया गया. उच्च शिक्षा पर गौर करें तो कॉलेजों में प्रवक्ताओं के पदों पर आखिरी भर्ती 25 साल पहले हुई थी. ये प्रक्रियाएं अन्य राज्यों में भी चली हैं पर मध्यप्रदेश ने उन्हें कहीं ज़्यादा उत्साह से आगे बढ़ाया.संविदा शिक्षकों की भर्ती कर धीरे-धीरे हज़ारों स्थायी पद समाप्त करने की नीति को मध्यप्रदेश ने सबसे पहले आजमाया था. यह रीति अंततः बिहार ने भी सीखी पर काफी देर से. उत्तर प्रदेश ने इसे अभी लागू नहीं किया.

इन कदमों ने मध्य प्रदेश की शिक्षा-व्यवस्था को खोखला कर दिया है. शिक्षा केवल अवसरों का निर्माण और वितरण ही नहीं करती, वह सामाजिकता का निर्माण भी करती है. ‘नई दुनिया’ के संपादक दिवंगत राहुल बारपुते ने कहा था- मध्य प्रदेश एक निर्माणाधीन समाज है. केंद्रीय भारत के राजे रजवाड़ों को इकट्ठा करके उसे एक प्रशासनिक इकाई बना दिया गया.

उसके भूगोल में कई अलग-अलग आंचलिक इतिहास समाए थे. निष्ठाएं और समर्पण सामंती शासन की तंग परिधियों के आदी थे. पढ़े-लिखे वर्ग की आबादी में बढ़ोतरी आसपास के राज्यों से रोज़गार की तलाश में आने वालों से हुई. ऐसे ढांचे को समाज की पहचान देने में राज्य की भूमिका अहम थी, खासकर शिक्षा के संदर्भ में.

कोई बड़ा आश्चर्य नहीं कि जिस घोटाले की विकरालता से आज पूरा देश चौंक गया है, वो मध्य प्रदेश के भीतर एक सामान्य घटनाक्रम से ज़्यादा महत्व हासिल नहीं कर पाया है. राज्य का पढ़ा-लिखा वर्ग शिक्षातंत्र के बिखराव का आदी होता चला गया है. पुरानी नामी संस्थाएं भी भीतर से गल चुकी हैं और संस्थागत सुधारों की आशा भी लोग छोड़ चुके हैं.

सरकारें आती-जाती रही हैं, पर किसी ने शिक्षा के पतन के सिलसिले को रोकने या पलटने के लिए ज़रूरी रुचि और इच्छाशक्ति नहीं दिखाई. ऐसी सामाजिक परिस्थिति में लोग अपने-अपने अकेले दम पर जूझें और ख़त्म हो जाएं, फिर भी कहीं कोई फ़र्क न पड़े तो हमें अचरज नहीं होना चाहिए.

(कृष्ण कुमार, शिक्षाविद, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए)

error: Content is protected !!