सोच का सैन्यीकरण किया जा रहा है
नजरिया | बीबीसी: इस बात को बहुत सावधानी से मगर कहा ज़रूर जाना चाहिए कि मौजूदा सरकार और उसकी विचारधारा भारत की हथियारबंद सेनाओं को एक तरह की विचारधारा के रंग में रंगने की कोशिश कर रही है. कुछ इस तरह कि जैसे आज से पहले भारत में सेना ही नहीं थी और न ही देशभक्ति. इस मुद्दे पर फ़ौज और पुलिस के रिटायर्ड अधिकारियों को सवाल उठाने चाहिए.
जिस तरह सरकार अपनी विदेश नीति या कूटनाति में भारत की हथियारबंद ताक़त का इस्तेमाल करती है, उस पर अगर आप सवाल उठाएँ तो उसे राष्ट्रविरोधी क़रार दे दिया जाएगा. यानी सरकार ने राष्ट्रहित की परिभाषा तय कर दी और आपको उसी दायरे में रहना होगा. जबकि रणनीतिक मुद्दों पर या सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर खुली और गंभीर बहस होनी चाहिए.
दूसरी ओर एक तरह से हमारे दिमाग़ों का सैन्यीकरण किया जा रहा है और ये सैन्यीकरण पाकिस्तान के संदर्भ में हो रहा है. लोगों की सोच को पाकिस्तान के संदर्भ में मिलिटराइज़ करने के कई नतीजे हैं. आप चाहें या न चाहें, इसे मुसलमानों से जोड़कर देखा जाता है और ये समाज को बाँटने वाली बात है. भारत की सेना की छवि बहुत ही तटस्थ है. अगर सांप्रदायिक दंगों का इतिहास देखें तो आम तौर पर सेना बुलाए जाने पर सब दंगाई अपने घर चले जाते हैं.
जिस तरह से सरकार सेना का इस्तेमाल कहीं करती है, सेना का इस्तेमाल कहना भी लोडेड बात है. जिस तरह सरकार देश की हथियारबंद ताक़त का इस्तेमाल अपनी नीतियों में करती है अपनी कूटनीति या विदेशनीति में और आप उस पर सवाल उठाते हैं तो वो देशविरोधी हो जाता है.
इसका मतलब ये है कि सरकार ने राष्ट्रहित की परिभाषा तय कर दी है यानी एक दायरा तय कर दिया है और आप उसी दायरे के भीतर काम करेंगे और उसके बाहर नहीं जाएँगे. ये बिलकुल ग़लत है. क्योंकि रणनीतिक मुद्दों पर, सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर कड़ी और खुली बहस होनी चाहिए.
जैसे रणनीतिक संयम की नीति (यानी भारत के दूरगामी फ़ायदे को ध्यान में रखते हुए पड़ोसी देशों की भड़काऊ कार्रवाइयों के बावजूद संयम बरक़रार रखना) से भारत को बहुत फ़ायदा हुआ है. अटल बिहारी वाजपेयी और नरसिंह राव के ज़माने में इस नीति पर चला गया पर अब इसे बदल दिया गया है. ये बड़ा बदलाव है और नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद ये बदलाव कई स्तरों पर हुआ है. इसे अँग्रेज़ी में पैराडाइम शिफ़्ट कहा जाता है.
ये इसलिए हो रहा है क्योंकि भारत में पहली बार असली दक्षिणपंथी विचार वाली सरकार बनी है. अब तक की सभी सरकारें मोटे तौर पर वामपंथी या मध्यमार्गी-वामपंथी रुझानों वाली सरकारें रहीं. यहाँ तक कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में भी आरएसएस की दक्षिणपंथी विचारधारात्मक शुद्धता को दबा-छिपा कर रखा गया था.
इस पैराडाइम शिफ़्ट से मैं न तो नाराज़ हूँ और न ही ख़ुश, पर इस बदलाव से पहले बहस होनी चाहिए थी. सिर्फ़ ये कहना कि ‘हम सरकार हैं, हमने ये बदलाव कर दिया है, हमें राष्ट्रहित मालूम है… इसलिए हमारी जयजयकार कीजिए’ ये ग़लत है. पर यहाँ तो बिना किसी बहस के एक के बाद एक चीज़ें बदलती गईं — पहले मज़बूत राज्य की बात कही गई, फिर एक फ़ौजी और मज़बूत राज्य, फिर फ़ौजी-अतिराष्ट्रवादी मज़बूत राज्य और फिर फ़ौजी-हिंदू-अतिराष्ट्रवादी राज्य की बात कही जाने लगी. ये सब कुछ बिना बहस मुबाहसे के हो रहा है.
इन परिस्थितियों में प्रेस की आज़ादी पर हर क़दम पर बहस चलनी चाहिए. जिस तरह पिछले दिनों सरकार ने एनडीटीवी पर एक दिन की पाबंदी लगाई उससे कई सवाल खड़े हो गए हैं. गंभीर बात ये है कि इसके पीछे राज्य की ताक़त यानी स्टेट पावर है. इस तरह की बहसें इमरजेंसी के दौरान भी हुई थीं जो सत्ता की ओर से ही शुरू की गई थीं.
जब नरेंद्र मोदी सरकार के सूचनामंत्री वेंकैया नायडू कहते हैं कि बोलने की आज़ादी अपनी जगह है लेकिन सबसे ऊपर राष्ट्र हित है तो मुझे याद आता है कि बिलकुल ऐसी ही बात इमरजेंसी के समय विद्याचरण शुक्ल ने भी कही थी. दूसरी बात ये कह रहे हैं कि न्यूज़ का व्यूज़ से घालमेल नहीं करना चाहिए. इमरजेंसी के समय मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी था पर बिलकुल यही बात मैंने 15 अगस्त 1975 को (इमरजेंसी के कट्टर समर्थक) चौधरी बंसीलाल के भाषण में सुनी थीं – कि विचार आप एडिट पेज पर लिखें और ख़बरें बिलकुल अलग.
फिर भी मैं मानता हूँ कि नरेंद्र मोदी की तुलना अभी इंदिरा गाँधी से नहीं की जा सकती. क्योंकि (मोदी के पास) उतनी ताक़त भी नहीं है और भारत बदल चुका है. अब आप संविधान की धारा 356 का इस्तेमाल करके राज्य सरकारें नहीं गिरा सकते. अब किसी पार्टी के पास 400 सीटें भी आ जाएँ तो वो ताक़त नहीं मिल पाएगी.
मेरी शिकायत टीवी न्यूज़ उद्योग से है. शाम को सात बजे से 11 बजे तक चैनलों पर नज़रिया और बहस ही प्रसारित होती है. पर वो बहस भी जाली और बनावटी है. मेरी शिकायत ये है कि जब सूचना प्रसारण मंत्रालय ने टीवी न्यूज़ पर नज़र रखने के लिए कमेटी बनाई तो उसे टीवी न्यूज़ ने स्वीकार क्यों किया?
जब तक फ़ैशन टीवी या मनोरंजन टीवी के कंटेंट पर नज़र रखने के लिए ऐसे तरीक़े अपनाए जाते थे तब तक ठीक था लेकिन सरकार की ऐसी नज़र ख़बरों पर भी लगे, ये ख़तरनाक बात है. आज कोई सोच भी नहीं सकता कि इस देश में ख़बर छापने के लिए किसी अख़बार को दंड दिया जाए. एक बार इंदिरा गाँधी ने अख़बारों को सज़ा देने की बात सोची थी तो उनको बहुत बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ा.
लेकिन चिंता की बात ये है कि अगर आज सरकार टीवी न्यूज़ पर पाबंदी लगाने की कोशिश करेगी तो कल ये परंपरा बन जाएगी और फिर अख़बारों पर भी पाबंदी लगाई जा सकती है. ऐसे में मैंने कुछ दिन पहले ट्वीट किया कि पत्रकारों ने बिना कहे घुटने टेक दिए हैं.
ये मैंने इसलिए कहा क्योंकि शाम को अब टीवी चैनल वाले सोचते हैं कि पाकिस्तान से लड़ाई करनी है और पाकिस्तान को हरा देना है. यानी पाकिस्तान के साथ एक नूरा कुश्ती सी चल रही है. टीवी चैनलों को किसी ने हुक्म नहीं दिया कि आप पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ये नूरा कुश्ती खेलिए.
कोई पत्रकारों से नहीं कहता कि आपको झुकना पड़ेगा और जो हम कहते हैं वो करना पड़ेगा. फिर भी पत्रकार यही कर रहे हैं क्योंकि वो सोचते हैं कि इस तरह का माल बिकेगा और सरकार भी ख़ुश होगी. यहाँ तो पत्रकारों को (हुकूमत की ओर से) कोई फ़ोन भी नहीं आता है जबकि पाकिस्तान में तो फ़ौजी हेडक्वार्टर से फ़ोन आ जाता है.
ऐसे में अगर ज़रूरी हो तो पत्रकारों को सड़कों पर भी उतरना चाहिए. मैं चाहता हूँ कि एनडीटीवी अदालत में अपना केस लड़े क्योंकि अगर हम अपनी आज़ादी की परवाह नहीं करेंगे तो कौन करेगा? ये सोचना और ख़ुश होना एकदम ग़लत है कि सरकार दूसरे (चैनलों) के पीछे पड़ी है लेकिन मुझसे बहुत ख़ुश है. क्योंकि सरकार बदलेगी.
कुछ लोग आशंका ज़ाहिर कर रहे हैं कि हिंदुस्तान में स्थायी तौर पर कुछ चीज़ें बदल रही हैं. लेकिन भारत एक इतना विशालकाय रथ या जगरनॉट है जिसे हिलाना, बदलना बहुत मुश्किल है.
याद कीजिए कि 1985 में राजीव गाँधी 400 से ज़्यादा सीटें जीतकर सत्ता में आए थे. उस दौर में राजीव गाँधी कुछ भी कहते थे तो हमारी माताजी की आँखों में आँसू आ जाते थे कि ये नौजवान कितनी अच्छी बात कर रहा है. मगर ढाई साल के अंदर अंदर राजीव गाँधी कुछ भी कहते थे तो हमारे बच्चे भी हँसते थे. ये राजनीति की हवाएँ हैं – कभी इधर जाती हैं और कभी उधर जाती हैं.
मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि नरेंद्र मोदी फिर सत्ता में आएँगे या नहीं आएँगे. आ भी सकते हैं. पर सत्ता में कोई भी आए हमारी बुनियादी मान्यताएँ नहीं बदलतीं. पर अगर उनपर कोई आँच आती है तो सबको उसके बारे में सोचना चाहिए और अपनी आवाज़ उठानी चाहिए और डरना नहीं चाहिए.
(शेखर गुप्ता से बीबीसी हिंदी के रेडियो संपादक राजेश जोशी से बातचीत पर आधारित)