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बस्तर में कोहराम 4 : क्या आदिवास नेस्तनाबूद होगा ?

कनक तिवारी
दोनों बड़ी सियासी पार्टियों की सत्ता में अदल बदल जारी है. वह एक रिले रेस है. पहला धावक दौड़कर रेस खत्म करता है. दूसरा उसी की झंडी लेकर आगे दौड़ता है. लोगों को आगे बढ़ने का भ्रम होता है, लेकिन दौड़ गोल मोल होती है. कहीं नहीं पहुंचती. जैसे धानी के बैल तेल पेरकर मालिक को देते हैं और खली आदिवासियों को मिलती है.

अब तो ऐसे भी राजनेता हैं. कहते हैं देश में महंगाई कहां है? अगर है तो लोग अन्न जल त्याग दें. खाते क्यों हैं? ऐसे भी राजनेता छत्तीसगढ़ में रहे जो कहते रहे गरीब इतने बच्चे क्यों पैदा करते हैं? ऐसे भी रहे भारत में जो कहते रहे भारतीय गरीब खाते बहुत हैं. इसलिए महंगाई है. भारतीय तो अमेरिका वालों से ज्यादा खाते हैं.

एक और रूपक कथा है. दिल्ली में एक बार छुरियां बनाने वाले कसाइयों की बैठक हुई. सब इस बात पर लड़ रहे थे कि उनकी बनाई छुरी सबसे तेज है. इसलिए बकरे उससे ही काटे जाएं. इस बात में सब एकमत थे कि बकरों को तो कटना है, लेकिन काटने का अधिकार किसको मिले, यही तय करना है.

बस्तर में यही हो रहा है. सरकारें काटें. नक्सली काटें या काॅरपोरेटिए काटें. कुछ राजनीतिक और मीडियाई दलाल भ्रम पैदा करते रहते हैं. कान भरते हैं. मदद करते हैं. बस्तर को दलदल बनाते हैं. सरकार हिंसा करेगी तो सबूत कहां से आएगा? सजा किसको मिलेगी?

मीडिया तो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की तस्वीरें और बयान ही छापेगा. बेचारा अरबों रुपयों की मिल्कियत का गरीब मीडिया विज्ञापनखोरी के बिना जिएगा कैसे? विज्ञापन ही तो उसकी देह का खून है. देश में कोई अखबार या टीवी चैनल नहीं हैं जो रोज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं लटकाता.

लोकतंत्र का रथ चल रहा है. वह राम, गंगा, गीता, गाय, हनुमान, दुर्गा, कब्रिस्तान, श्मशान, बीफ, गणेष इन प्रतीकों में ज्यादा जी रहा है. उसे आदिवासी, दलित, गरीब, मुफलिस, विधवा, बेरोजगार, गन्दी बस्तियों, बजबजाती मोरियों, सडांध, गरीब लोगों के परिवेश या पर्यावरण से कोई लेना देना नहीं है.

उनकी निगाह में क्या हैसियत है बस्तर के आदिवासियों की जो दो वक्त का खाना तक अपने लिए जुटा नहीं सकते. चीटी, चीटा, कीड़े-मकोड़े, कंद मूल महुआ कुछ भी खाकर जी लेते हैं. कपड़े तक गत के नहीं पहनते.

उनके पास भाषा, बोली और शिक्षा नहीं है. उन्होंने दुनिया नहीं देखी. इंटरनेट, टीवी, डिजिटल, लैपटॉप, इंस्टाग्राम, फेसबुक, ट्विटर शब्दों को सदियों में भी नहीं जान पाएंगे. मच्छर, मक्खी, कीट पतंगे जबरिया पैदा होते हैं. उनको सामूहिकता में मारा जाता है. आदिवासियों को भी इसी तरह ठिकाने लगाया जा रहा है. उसमें अजूबा क्या है.

जितनी उनकी हत्या हो रही हैं, उतनी सरकारी और नक्सली गोली से शहरों में क्यों नहीं होतीं? वे तो खुद अपनी हत्या करने मजबूर किए जा रहे हैं.

सात सौ गांव खाली करा दिए गए. पड़ोस के प्रदेशों में पलायन कर गए. बंधुआ मजदूर के रूप में ले जाये जाते हैं. पुलिस उन्हें नहीं मारती तो क्या वे तो अपने आप मर रहे हैं? ऐसी बीमारियां होती हैं कि उसे ठीक नहीं कर पाते. तब उनमें इच्छा मृत्यु का विकल्प होता होगा.

अरुणा शानबाग नामक नर्स का प्रसिद्ध मुकदमा तो सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था. खुद गांधी ने साबरमती आश्रम में एक बछड़े के लाइलाज दुख को देखकर डॉक्टर को इंजेक्षन देकर मर्सी किलिंग करने की अनुमति दी थी.

अंगरेजों से तो सबसे पहले और सबसे ज्यादा आदिवासी लड़े हैं. शहरी तो बाद में आए. छत्तीसगढ़ में भी गुंडा धूर, नारायण सिंह और रामाधीन गोंड़ का इतिहास आज तक दमक रहा है. झारखंड में बिरसा मुंडा के बाद पौरुष के कारनामे भरे पड़े हैं. युवा आदिवासी मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने हिम्मत की जो कहा प्रधानमंत्री जी मन की बात बहुत करते हैं. कभी काम की बात भी करिए.

आदिवासियों को मर्दुमशुमारी में अंगरेजों के वक्त अलग से पहचान दी गई थी. वहां वे अपनी जाति आदिवासी लिखते थे. उसे हटाकर, मिटाकर कॉलम को हिन्दू कर दिया गया है.

इस पहचान को मिटाने का भी आदिवासी विरोध कर रहे हैं. वे नहीं चाहते उनका शहरी और मशीनी विकास हो. उन्हें शहरियों के धार्मिक हथकंडों से कोई लेना देना नहीं है. सभ्य सरकारें उनकी संस्कृति को अपनी मुट्ठी में पीसती प्रशासनिक बलात्कार कर रही हैं. फिर भी कहती हैं आदिवासी चुप रहें.

यह वक्त है आदिवासी शिक्षित युवकों को अपनी पहचान, अतीत और भविष्य को लेकर वैज्ञानिक, प्रगतिशील, आर्थिक और सामाजिक बंधुता के आधारों पर आगे बढ़ना चाहिए. ‘चाहिए‘ शब्द का अर्थ है कि वे बढ़ें.

आदिवासियों के लगातार जन आन्दोलन सत्ता की ठसक कुचल देती है. मंत्री मियां मिट्ठू बनते होंगे कि जो उनकी दया के मोहताज हैं, उन्हें हिम्मत कैसे हुई कि सरकार को आंखें दिखाए. आदिवासियों के पास न कोई मजबूत संगठन है, न साधन है. फिर भी उनका हौसला उनकी पूंजी है.

वे टिटहरी नहीं हैं जिसे मुगालता होता है कि वह अपने पैरों पर आसमान उठा लें. शाहीन बाग, जेएनयू, किसान आन्दोलन अपनी मंज़िल तक कहां पहुंच पाए. संघर्ष के तेवर के आगे निजाम खुद को बौना महसूस करेगा ही.

असेम्बली में अहिंसक बम फेंककर भगतसिंह और साथियों ने दुनिया में भूचाल ला दिया था. आदिवासी हत्यारे नहीं मृत्युंजय होते हैं. जो मौत से नहीं डरता, उसे सरकारें और नक्सली खौफजदा कब तक बनाए रख पाएंगे? यही यक्ष प्रश्न इक्कीसवीं सदी से आदिवासियों का इतिहास और भविष्य एक साथ पूछ रहे हैं.

कांकेर

वर्षभाजपाकांग्रेस
202447.23%47.08%
201947.1%46.5%
201457.7%42.3%
200946%43.4%

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