चुनाव विशेषप्रसंगवश

बस्तर से सरगुजा:बदलाव की बयार

रुद्र अवस्थी
छत्तीसगढ़ में बनेगी किसकी सरकार..? कौन बनेगा मुख्यमंत्री? प्रदेश में क्या कुछ बदला है और क्या कुछ बदलने वाला है? या कुछ भी नहीं बदला है और कुछ बदलने वाला भी नहीं है? ये कुछ ऐसे अहम् सवाल है,जो पिछले कुछ दिनों से सभी को बेचैन किये हुए है. वोटों की गिनती के साथ इन सवालों का जवाब मिल जाएगा.

लेकिन अगर जवाब पहले ही पाने की ललक हो तो, प्रदेश के आम लोगों तक सीधे पहुंचने के अलावा कोई रास्ता नहीं है…जिनके पास हर सवाल का जवाब है. और इसे सुनने-समझने की कोशिश में रूख किया आम आदमी की ओर….. इस जुगत में बस्तर-राजनांदगांव से जशपुर-सरगुजा तक करीब तीन हजार किलोमीटर से अधिक का रास्ता नापते हुए हर जगह,हर तबके तक लोगों तक पहुंचने की कोशिश की. आम आदमी से रू-ब-रू होकर बहुत कुछ जानने-समझने को मिला.

इस सफर में एक बड़ा सवाल यही था कि क्या छत्तीसगढ़ में राज्य बनने के बाद कुछ बदला है और क्या कुछ बदलने जा रहा है? लगा कि इस सवाल का जवाब मिलने पर अपने-आप कई सवालों का जवाब मिल जाएगा. इस प्रश्न को ध्यान में रखकर,हालात को समझने की कोशिश की तो सचमुच कई जगह बदलाव की झलक मिली.

अव्वल तो आम आदमी में ही एक बदलाव नज़र आया. वह आम आदमी जिसे किसी भी चुनाव के दौरान एक “वोटर” मानकर,उसके मन के भीतर दाखिल होने और उसका “मत”जान लेने के जुगाड़ में लोग अपने तरीके से लगे रहते हैं. हालांकि उस आम आदमी की परंपरागत सरलता,सहजता अब भी उसकी खासियत की शक्ल में उसके साथ मौजूद है. लेकिन वह इतना तो जरूर बदल गया है कि उसके “मन” और “मत” की थाह पाना अब आसान नहीं रह गया है. अलबत्ता आम-आदमी तो पहले खुद इस सवाल का जवाब चाहता है कि आपकी इस मुहिम का मकसद क्या है ? और आप किसकी तरफ से यह जानने के लिए यहां आए हो..?

तसल्ली मिलने के बाद वह इस बात का अहसास कराता है कि बदलाव तो हो रहा है….. मसलन नुमाइंदगी करने वाले लोग भी और पार्टियां भी बदल गई हैं. और सरकार चलाने का अंदाज भी बदल गया है. अविभाजित मध्यप्रदेश के जमाने में भी सिर्फ भोपाल को ही प्रदेश नहीं माना जाता था. लेकिन अब सिर्फ राजधानी को ही छत्तीसगढ़ मानकर बदलाव की मिसाल पेश की जा रही है. लोग पूछते हैं क्या सरकार के अगुवा ने कभी लोगों से मिलने जुलने या उनकी जरूरतों को समझने के लिए प्रदेश के किसी शहर में रात गुजारी है? लम्बे समय तक विपक्ष की राजनीति करने वाली पार्टी की सत्ता के एक दशक बाद ऊपर के जमीनी कार्यकर्ताओं तक आए बदलाव को भी आम आदमी महसूस कर रहा है.

वहीं दूसरी तरफ लम्बे समय की सत्ता से विपक्ष में आई कांग्रेस पार्टी में आ रहे बदलाव पर भी लोगों की नज़र है. हालांकि कांग्रेस को सशक्त विपक्ष की भूमिका के मामले में बहुत अधिक नम्बर नहीं मिलते. लेकिन पार्टी में नेतृत्व बदलने को लेकर चल रही अंदरूनी कवायद को पर्दे के भीतर तक झांक लेने में खुद को कामयाब बताने वाले यह दलील भी देते हैं कि किस तरह एक नेता की तस्वीर चुनावी पोस्टर व विज्ञापनों से गायब हैं.

वहीं नेताओं की अगली पीढ़ी की उम्मीदवारी को लोग आने वाले दिनों में बदलाव की ओर इशारा मानते हैं. बदलाव को लेकर लोगों से कई दिलचस्प बातें सुनने को मिली.

रायपुर जिले के एक विधानसभा क्षेत्र में –‘’मौजूदा मंत्री का मोबाइल और पूर्व मंत्री का स्माइल….’’चर्चा में है. वहीं सरगुजा में चाय दुकान,पान ठेले में आसानी से मेल- मुलाकात करने वाले एक युवा नेता अब संगठन के बड़े पद पर काबिज होने के बाद लोगों की पहुंच से दूर हो गए..यह तो एक बानगी है. बदलाव के ऐसे कई नमूने जगह-जगह मौजूद हैं.

एक दिलचस्प नमूना देखने को मिला,महासमुंद-गरियाबंद इलाके में. एक विधायक ने विकास और सुविधा संबधी जरूरतों के लिए अपना दस्तखतशुदा लेटरपेड कार्यकर्ताओं को बांट रखा था. चुनाव के समय किसी कार्यकर्ता ने कोरे लेटरपेड में व्यक्तिगत कारणों से इस बार चुनाव मैदान से बाहर रहने के अनुरोध के साथ एक पाती-हाइकमान के नाम भेज दी और बदलाव हो गया.

सियासी दांव-पेंच ने छत्तीसगढ़ में चाहे कुछ बदला हो या ना हो, लेकिन प्रदेश की जातिगत समरसता में बदलाव लाने के लिए जोर-आजमाइश जरूर की है. सियासी पार्टियों ने कई सीटों पर जाति के आधार पर अपने उम्मीदवार का नाम तय किया है. जाति के नाम पर कहीं ‘’मंच’’,तो कहीं ”सेना” खड़ी हो गई है. इस गोलबंदी में बदलाव की झलक मिलती है.

मजेदार यह भी है कि आम-आदमी तक यह हिसाब भी पहुंच गया कि किसे, कौन, क्यों, कितनी और कैसे मदद पहुंचा रहा है. इस खेल में यह सोचने की जहमत किसी ने नहीं उठाई कि जातिवाद का यह ज़हर आने वाले समय में उस खिलाड़ी के लिए भी ”डोपिंग” की मानिंद घातक साबित हो सकता है.

यह आने वाले समय में एक बदलाव का सबब भी बन सकता है. लेकिन,दूसरी तरफ लोगों की यह दलील शुकुन भी देती है कि छत्तीसगढ़ में जातीय समरसता को तोड़ना कठिन है. यहां पहले भी कई प्रयोग नाकाम हो चुके हैं. पहली बार छत्तीसगढ़ से चुनाव लड़कर बाद में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान कायम करने वाले बसपा सुप्रीमों ने भी इसे महसूस कर लिय़ा था,और दूसरे प्रदेशों के ओर रूख करने के पीछे शायद एक वजह यह भी थी.

जहां तक समाज और जीवन-शैली का सवाल है-छत्तीसगढ़ में एक-डेढ़ दशक के भीतर शेष भारत की तरह बड़ा बदलाव तो आया है. खान-पान,पहनावे से लेकर काम-काज की तकनीक में भी बदलाव नज़र आता है. खेत खलिहान, बैलगाड़ी, ट्रेक्टर, मोटर सायकल, चार पहिया से लेकर मोबाइल-कम्प्यूटर तक कई चीजों का जिक्र कर इस बदलाव को विस्तार से रेखाओं पर अंकित किया जा सकता है.

तरक्की के मामले में एक बदलाव यह भी है कि पहले,सार्वजनिक विकास के मान से बड़ी योजनाओं-परियोजनाओं की चर्चा अधिक होती थी. अब चांवल, गेहूं, सायकल, सिलाई मशीन से लेकर लेपटॉप,टेबलेट जैसी व्यक्तिगत जरूरतों से जुड़ी चीजों की चर्चा है. मजा यह भी है कि आम लोगों के बारे में यह भी धारणा रही है कि उन्हें चुनाव जैसे मौकों पर ‘’कुछ’’ देकर ‘’बहुत कुछ’’ हासिल किया जा सकता है. लेकिन इस बार लोगों ने इस धारणा में बदलाव के संकेत दिए.

बहरहाल एक तरफ से इस बदलाव का पासा फेंककर दूसरे तरफ से बदलाव की आस लगाए सियासी खिलाड़ी भी मंच के आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर अपनी निगाहें जमाए हुए हैं. और बस्तर से सरगुजा तक बदलाव की बयार से सभी सहमे हुए भी हैं.
*लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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