सरकार के सारे इंडेक्स फेल
सुरेश महापात्र
बस्तर का हाल जानना हो तो छत्तीसगढ़ के आंकड़ों की पड़ताल ज़रुरी है.मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के जरिए छत्तीसगढ़ एक नवम्बर 2000 को नया राज्य बना. क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का 9वां और जनसंख्या की दृष्टि से 16 वां बड़ा राज्य है. इसके कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का लगभग 44 प्रतिशत इलाका वनों से परिपूर्ण है. वन क्षेत्रफल के हिसाब से छत्तीसगढ़ देश का तीसरा बड़ा राज्य है.
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की कुल जनसंख्या दो करोड़ 55 लाख 40 हजार 196 है. छत्तीसगढ़ में जनसंख्या का घनत्व 189 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जबकि भारत में जनसंख्या का घनत्व 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से अधिक है.
खनिज राजस्व की दृष्टि से देश में दूसरा बड़ा राज्य है. वन राजस्व की दृष्टि से तीसरा बड़ा राज्य है. देश के कुल खनिज उत्पादन का 16 प्रतिशत खनिज उत्पादन छत्तीसगढ़ में होता है. छत्तीसगढ़ में देश का 38.11 प्रतिशत टिन अयस्क, 28.38 प्रतिशत हीरा, 18.55 प्रतिशत लौह अयस्क और 16.13 प्रतिशत कोयला, 12.42 प्रतिशत डोलोमाईट, 4.62 प्रतिशत बाक्साइट उपलब्ध है. देश के कुल कोयले के भण्डार का लगभग 17 प्रतिशत छत्तीसगढ़ में है. सरकार का दावा है कि छत्तीसगढ़ में अभी देश का 38 प्रतिशत स्टील उत्पादन हो रहा है.
सरकार की वेबसाइट के अनुसार छत्तीसगढ़ गठन के वक्त, अविभाजित मध्यप्रदेश के हिस्से के रूप में छत्तीसगढ़ के भौगोलिक क्षेत्र के लिए कुल बजट प्रावधान पांच हजार 704 करोड़ रूपए था, जो अलग राज्य बनने के बाद क्रमशः बढ़ता गया और अब दस सालों में 30 हजार करोड़ रूपए से अधिक हो गया है.
प्रति व्यक्ति आय की गणना, वर्ष 2000-2001 में प्रचलित भावों में प्रति व्यक्ति आय 10 हजार 125 रूपए थी, जो वर्तमान में बढ़कर 44 हजार 097 रूपए (अनुमानित) हो गयी.
अगर इन आंकड़ों को देखें तो छत्तीसगढ़ में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. चारों ओर विकास के प्रतिमान देखने को मिलना चाहिए. पर परिस्थिति इसके उलट है. यहां यह बताना लाजिमी है कि ये आंकड़े छत्तीसगढ़ सरकार बता रही है. जिसे झूठा नहीं कहा जा सकता. अगर इन परिस्थितियों को देखें तो बीते दस बरस की उपलब्धियां ही हैं. या कहें कि छत्तीसगढ़ बनने के बाद का हाल है. अगर सब कुछ ऐसा ही है तो समस्या क्या है, जिसके कारण यहां के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं?
पहली बात तो यह है कि छत्तीसगढ़ की सीमाएं देश के छह राज्यों को स्पर्श करती हैं. इनमें मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश शामिल हैं. इसमें से चार राज्य झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में भी माओवाद एक समस्या है. इनमें से झारखंड को छोड़कर शेष बस्तर से सटे हैं. पर वहां की स्थिति और छत्तीसगढ़ की स्थिति में जमीन-आसमान का अंतर है.
उड़ीसा में बीजू जनता दल, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है. सीमावर्ती क्षेत्रों में सबसे बढ़िया हाल आंध्र का है. दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र और तीसरे नंबर पर ओड़िसा है. इन तीनों में सबसे मजबूत आर्थिक संसाधन केवल छत्तीसगढ़ में है. जो सरकार का इंडेक्स भी बता रहा है.
छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी लगातार तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हो गई है. पर इस बार सत्ता की कुंजी बस्तर से निकल कर मैदानी इलाके के हाथ में आ गई है. इस बार बस्तर में भाजपा को 12 में से केवल चार सीटों पर जीत मिल सकी. इससे पहले यहां की 11 सीटों पर भाजपा कब्जा था. इस बार रायपुर इलाके में कांग्रेस को 21 में से केवल चार सीटे मिलीं यहां भाजपा को नौ सीटों का फायदा हुआ. जिसके कारण वे डा. रमन सिंह सरकार बना सके. यानी आदिवासी क्षेत्रों से कम हो रहा विश्वास और मैदानी इलाकों में सरकार के प्रति बदले हुए रूख को इस बार छत्तीसगढ़ की जनता ने प्रतिबिंबित किया है.
देश के सभी बड़े माओवादी हमले बस्तर क्षेत्र में हुए. यह साफ है कि माओवादियों ने अपना बस्तर को बेस कैंप बना लिया है. बस्तर के करीब 60 फीसदी इलाके में सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है. माओवादी समस्या के चलते यहां के लोगों का जीना दूभर हो गया है. स्थानीय आदिवासी फोर्स और माओवादी दोनों के बीच पिसते रहे हैं. इस इलाके में इस बार करीब 20 फीसदी मतदान ज्यादा हुआ. परिणाम सत्तारूढ़ भाजपा सरकार के खिलाफ गया.
यानी लोग इस बात से नाराज हैं कि सरकार ने मैदानी इलाकों में जिस तरह से काम के दावे किए उसके विकास की परछाई तक बस्तर में नहीं पहुंच सकी. कस्बाई इलाकों को छोड़ बड़े इलाके में सुराज आज भी एक बड़ा सपना है. सवाल केवल उस इंडेक्स का नहीं है, जिसे सरकार पूरी दुनिया को दिखाकर अपनी पीठ थपथपवा रही है. बल्कि यह भी देखना होगा कि विकास की सारी बातें केवल मैदानी इलाकों तक सिमट कर रह गई हैं.
सच्चाई तो यह है कि बीते दस बरसों में बस्तर के कई इलाके सरकार से कट गए हैं. सुकमा जिले में जगरगुंडा में कड़ी सुरक्षा में बीते आठ बरसों से पांच हजार लोगों के लिए तीन से चार माह का राशन भेजना पड़ता है. इसी क्षेत्र के ताड़मेटला में माओवादियों ने देश के सबसे बड़े हमले को अंजाम दिया था. यहां 76 जवान शहीद हुए थे. सरकार वहां तक नहीं पहुंच पा रही है. तो विश्वास हासिल करने का सवाल ही कहां उत्पन्न होता है. इसे सरकार की कमजोरी मानें या माओवादियों की जीत, समझ में नहीं आता.
हाल ही में बस्तर के ग्रामीण पत्रकार साईं रेड्डी की बीजापुर जिले के बासागुड़ा में नक्सलियों ने हत्या कर दी. बासागुड़ा का हाल भी कमोबेश जगरगुंडा जैसा ही है. इससे पहले एक और पत्रकार नेमीचंद जैन को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया था. दोनों पत्रकार ग्रामीण इलाके की रिपोर्टिंग करते थे. दोनों पत्रकार अपनी पत्रकारिता के कारण प्रशासन और नक्सलियों के टारगेट में थे.
पहले माना जाता था कि माओवादियों की लड़ाई में केवल आदिवासी पिस रहे हैं. अब तो दायरा बढ़ता जा रहा है. पत्रकार भी सीधे निशाने पर आ गए हैं. लग रहा है कि बस्तर का सच यहां से बाहर निकले न तो सरकार चाहती है और न ही माओवादी! यह स्थिति तालिबानी हालात को बयां करती दिख रही है. देश में पहली बार इस तरह से लगातार दो पत्रकारों की हत्या से यही प्रतीत हो रहा है.
बस्तर के पत्रकारों ने बासागुड़ा में धरना दिया. नक्सली खबरों के बहिष्कार की चेतावनी दी है. इससे पहले भी इस तरह की चेतावनी पत्रकार दे चुके हैं. माओवादियों पर असर सिफर रहा.
बस्तर में माओवादियों के संघर्ष के कारण हालात दिन पर दिन बिगड़ते जा रहे हैं. केंद्र और राज्य सरकार एक-दूसरे पर ठिकरा फोड़कर जिम्मेदारी से बचते दिख रहे हैं. यही वजह है कि बस्तर के जनादेश से साफ झलक रहा है कि सूबे में सरकार की सफलता का परचम लहराने वाले डा. रमन को जनता ने सिर्फ इसलिए नकार दिया क्योंकि यहां विकास के सारे इंडेक्स फेल हैं, जिसे सरकार दिखा रही है.
*लेखक दंतेवाड़ा से प्रकाशित दैनिक ‘बस्तर इंपैक्ट’ के संपादक हैं.