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होना बशीर बद्र का

सचिन श्रीवास्तव | फेसबुक: इन दिनों कवि, कलाकारों, संगीतज्ञों, शायरों, लेखकों को उनकी राजनितिक पसंद नापसंद और हैसियत के मुताबिक प्रिय-अप्रिय के खाते में रखने का चलन है.

ऐसे में मुझे मुश्किल होती है. कलाकारों में खास तौर पर. शायरों में भी. ऐसे ही एक शायर बशीर बद्र हैं. 1998 के आसपास शायरी में दिलचस्पी बारास्ता जगजीत सिंह, गुलाम अली, मेहंदी हसन से होते हुए बशीर जी तक पहुंचा था. और उनकी कई गजलें जल्द ही जुबान पर चढ़ गई थीं. जो आज भी जेहन में दर्ज हैं.

दिलचस्प है कि इस ऊंचे पाये के शायर का राजनीतिक पतन भी उन्हीं दिनों हुआ. जब एक मक्कार और घाघ राजनीतिक को बशीर जी ने अपना “अदबी बाप” तक कह दिया था. बाद में उसके लाभ भी बशीर जी को मिले. मुझे लगता है कि बशीर जी की शायरी को 2 हिस्सों में बांटकर देखें तो फर्क भी साफ दिखता है.

1995-96 के पहले की उनकी शायरी आवाम की दुख, तकलीफों के साथ इश्क और रूमानियत का बेहद सघन जाल बुनती है. जिसमें कोई भी थका, हारा इंसान छांव पा सकता है.

उसके बाद की शायरी में बशीर बेहद मामूली शायर हैं और शाब्दिक बाजीगरी ही करते पाए जाते हैं.

बहरहाल, अभी तो उनकी एक गजल, जो 2 दिनों से खास वजहों से याद आ रही है….

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे
बहुत तलाश किया कोई आदमी न मिला

तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला

बहुत अजीब है ये क़ुरबतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला

ख़ुदा की इतनी बड़ी क़ायनात में मैंने
बस एक शख़्स को माँगा मुझे वही न मिला

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