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राष्ट्रवादी या बौध्दिकता का डर

बादल सरोज:
जेएनयू विवाद की जड़ क्या है इस पर देशद्रोही बनाम राष्ट्रवाद का तगमा लगा दिया गया है. अब तो इसमें कथित तौर पर पाकिस्तानी आतंकवादी का हाथ भी बताया जा रहा है. इस विवाद को समझने के लिये हम इतिहास के पिछले पन्नों से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हैं.

प्रसंग एक ; अक्टूबर 2015 ; बीजिंग में सिल्क रुट पर हुयी एक अंतर्राष्ट्रीय बैठक में पाकिस्तानी डेलीगेशन ने – अपनी आदत के अनुरूप- कश्मीर की आज़ादी का सवाल उठा मारा. उस बैठक में भारत के प्रतिनिधिमंडल में शामिल सीपीआइ (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी ने मंच से ही पाकिस्तानी प्रतिनिधियों को जोरदार फटकार लगाई, जो अगले दिन सारी दुनिया के अखबारों में बड़ी खबर बनी. हालांकि इस प्रतिनिधिमंडल में भाजपा और कांग्रेस के नेता भी शामिल थे, मगर यह करारा जवाब सीताराम येचुरी ने ही दिया.

प्रसंग दो ; सत्तर का दशक ; तबकी जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी लंदन के दौरे पर थे. इधर देश में इंदिरा गांधी की बढ़ती तानाशाही के खिलाफ जबरदस्त जनांदोलन जारी था. एक अंग्रेज पत्रकार ने उनसे पूछा कि इंदिरा जी के बारे में उनकी क्या राय है, सुना है वे तानाशाह होती जा रही हैं? अटल जी का जवाब था ; वे हमारी प्रधानमंत्री हैं. उनके बारे में विदेश की धरती पर हम अपने मतभेद उजागर नहीं करते. हम अंदर 100 और 5 हैं, बाहर 105 हैं.

प्रसंग तीन ; पचास के दशक के अंतिम वर्ष ; 100 देशों का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन होने वाला था. इसमें गुटनिरपेक्ष आंदोलन के महत्व सहित अनेक मसलों के उभरने की संभावना थी. भारतीय डेलीगेशन का चयन करने के लिए प्रधानमंत्री नेहरू के पास फाइल गयी. उन्होंने उसके नेता के रूप में उस समय के धाकड़ विरोधी नेता और धुर नेहरू विरोधी माने जाने वाले डॉ राम मनोहर लोहिया का नाम तय किया. तबके विदेश मंत्री ने जब आश्चर्य से नेहरू की ओर देखा तो उन्होंने कहा कि प्रतिनिधमंडल भारत का जा रहा है कांग्रेस का नहीं.

फिलहाल इन प्रसंगों का उल्लेख आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने तकरीबन हर विदेश दौरे में वहां के स्थानीय गायकों और फिल्म कलाकारों के साथ मिलकर इवेंट की तरह आयोजित की गयी सभाओं में भारत के अपने राजनैतिक विरोधियों और अब तक की सरकारों के खिलाफ दिए गए भाषणों से तुलना के लिए नहीं किया जा रहा. इस वक़्त इन सन्दर्भों की वजह दिल्ली की जेएनयू पर थोपे गए संकट, लगाए गए आरोप और उसकी पुष्टि में किसी और के द्वारा नहीं, खुद गृहमंत्री राजनाथ सिंह के श्रीमुख से पाकिस्तानी आतंकी हाफिज सईद के कथित ट्वीट को ब्रह्मवाक्य की भांति उपयोग में लाये जाने की है.

किसी भी देश की आतंरिक सुरक्षा और विदेश नीति उस देश की अंदरूनी राजनीति की काटछांट और गरमागरमी से इतर और ऊपर की बात होती है. एक गंभीर और राष्ट्रीय एकता की अभिव्यक्ति होती है. 128 करोड़ आबादी वाले दुनिया के इतने बड़े लोकतंत्र का गृहमंत्री अपनी अंदरूनी राजनीति के चलते इस स्तर तक आ जाएंगे कि अपनी सरकार की असंवैधानिक करतूत पर पर्दा डालने के लिए एक दुर्दांत आतंकी की फर्जी ट्वीट का सहारा लेंगे यह हाल के समय तक अकल्पनीय बात थी. मगर देश का दुर्भाग्य है कि मर्फी के नियम की तरह यह असंभाव्यता भी अब संभव हो गयी है.

किसी सरकार का इस तरह का बर्ताव खुद लोकतंत्र के लिए अशुभ और शर्मनाक है. उम्मीद है पठानकोट के वक़्त किये गए अपने ट्वीट से मुकरने वाले गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस बार अपने कहे से नहीं मुकरेंगे और जेएनयू पर हुड़दंगिया ब्रिगेड द्वारा थोपे गए (एक वीडियो में बताया गया है कि जेएनयू में पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे कोई और नहीं अभाविप के लड़के-लडकियां ही लगा रहे थे) हमले में पाकिस्तानी हाथ होने का सबूत देश के सामने लाएंगे.

लोकतंत्र का मतलब ही है पक्ष-विपक्ष की राजनीति, तीखी बहसें और असहमतियों को अबाध स्थान देने की गारंटी. पूरा अमरीका जब अपनी सरकार के वियतनाम युद्द या इराक़ युद्द या अफगानिस्तान कब्जे के खिलाफ जलूसों – हड़तालों के जरिये खड़ा होता है या इंग्लैंड के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर को झूठ पर आधारित इराक़ की लड़ाई में अंग्रेज फ़ौज भेज देने के लिए जब उनके देश में “बुश के टॉमी” का उपनाम देकर दुत्कारा जाता है तो इसे वहां राष्ट्र विरोध नहीं कहा जाता. बुश के जमाने में अमरीका की नुमाईंदगी करने के लिए कई बार उन पूर्व राष्ट्रपति जिम्मी कार्टर तो एकाध बार बिल क्लिंटन को दुनिया के मंचों पर भेजा जाता है, जो देश के भीतर बुश की नीतियों के प्रबल आलोचक माने जाते रहे थे और उनकी विरोधी राजनीतिक पार्टी- डेमोक्रेटिक पार्टी – के नेता थे. किन्तु भारत के राष्ट्रवादियों के लिए राष्ट्रवाद उनकी नाकामियों और विभाजक राजनीति पर डाला जाने वाला आवरण है.

जेएनयू में उस दिन क्या हुआ, नारे किसने क्या और क्यों लगाए यह जांच की जानी चाहिए और दोषियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए. जेएनयू के मुट्ठी भर छात्रों के इस कथित आयोजन में न किसी छात्र संगठन की हिस्सेदारी थी न ही छात्र संघ का अनुमोदन था. इसके उलट इन सभी ने इस तरह के नारों और बयानों की भर्त्सना ही की. हालांकि बाद में आये वीडियों में इन नारों को लगाने वालों में केंद्र सरकार में बैठी पार्टी से जुड़े संगठनो की लिप्तता साफ़ दिखाई दे रही है. ऐसा नामुमकिन नहीं है क्योंकि साम्प्रदायिक तनाव भड़काने के लिए पाकिस्तानी झंडे फहराने के पुण्यप्रतापी कामों में इनकी लिप्तता अनेक बार सामने आयी है. कई तो मुकदमे भी चले हैं, चल रहे हैं इनपर.

हाफ़िज़ सईद का ट्वीट और जेएनयू में पाकिस्तान के हस्तक्षेप के अगर इतने “पुख्ता प्रमाण” है तो क्या सरकार ने वह पहला काम किया जो छोटे से छोटा देश ऐसी स्थितियों में करता? यानि क्या पाकिस्तानी सरकार को कड़ा विरोध दर्ज कराया? उससे कहा कि अब ये सबूत हमारे पास हैं लिहाजा हाफिज सईद के खिलाफ कार्यवाही की जाए?

विडम्बना ये है कि अफज़ल गुरु के बहाने राष्ट्रवाद का दावा वे लोग कर रहे हैं जिनकी खुद की पार्टी अफज़ल गुरु को शहीद मानने वाली देश की इकलौती पार्टी पीडीपी के साथ जम्मू-काश्मीर में सरकार बनाये बैठी है. मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत के बाद अब सरकार में न रह पाने की आशंका से इतनी विचलित और प्रचलित है कि अपने आला नेताओं को महबूबा मुफ्ती के दरबार में हाजिरी लगाने भेज रही है.

यह वही पार्टी है जिसने अपने पिछले कार्यकाल में मसूद अज़हर सहित अनेक दुर्दांत आतंकियों को कंधार तक सुरक्षित पहुंचाने के लिए अपने तबके विदेश मंत्री को भेजा था. जिनके अपने ही कार्यकाल में संसद पर हमला हुआ था. हाल ही में जिसके सबसे बड़े नेता, प्रधानमंत्री मोदी भारतीय इतिहास के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं जो पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की नातिन की शादी में 40 बनारसी साड़ियां, इतने ही पठानी सूट और नवाज़ शरीफ के लिए गुलाबी पगड़ी की सौगातें लेकर लाहौर के उनके गाँव बिनबुलाये ही पहुँच गए थे और बदले में पठानकोट पर आतंकी हमले की रिटर्न गिफ्ट लेकर आये थे.

हैदराबाद के बाद जेएनयू का घटनाक्रम यह साबित करता है कि मौजूदा सत्ताधारी पार्टी बौध्दिकता और तार्किकता से इस कदर घबराती है कि वे ज्ञान और चिंतन, मेधा और बुद्दिमत्ता के सारे दीपकों को बुझा देने पर आमादा है. उन्हें लगता है कि ऐसा होने पर ही वे अँधेरे के उस साम्राज्य को स्थापित कर पाएंगे जिसकी आड़ में उनकी सत्ता स्थाई हो सकेगी.

(यह लेखक के निजी विचार हैं. लेखक मध्य प्रदेश सीपीएम के सचिव हैं.)

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