इतिहास के पन्नों पर: बाबर
सुदेशना रुहान
सन 1507 की एक गुनगुनी दोपहर. उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई. सब कुछ कितना खूबसूरत था. पहाड़ों के जिस्म पर शफ़्फ़ाक़ बर्फ़ टूट रहे थे. पानी का कतरा बहकर बादाम और नारंगी की जड़ों में सिमटने लगा. फूल बिछे हुए थे सुर्ख़ रंगों के साथ. अंगूर और अनार इससे रसीले क्या होते? एक बादशाह मुस्कुराने लगा. वो शायद यहीं जीना चाहता था, मर जाना भी. पर अब ये मुमकिन कहाँ? फरगाना पीछे छूट चुका था, आगे हिंदुकुश के लंबे पहाड़ थे. सो आगे बढ़ने से पहले, एक आखरी बार, बादशाह ने अपने पसंदीदा बाग़ में फिर से निगाह दौड़ाई. वो बाग़ जिसका नाम था- ‘बाग़-ए-बाबर.’
14 फरवरी 1483 को उमर शेख़ मिर्ज़ा और क़ुतलुघ निगार ख़ानम के घर एक बच्चे का जन्म हुआ. ये घर उज़्बेकिस्तान के फ़रगाना इलाके में था, जहां उमर शेख़ मिर्ज़ा स्वयं शासक थे. बच्चे का नाम यूँ तो ‘जहीरुद्दीन मोहम्मद’ रखा गया, पर लोग प्यार से उसे ‘बाबर’ पुकारते. बाबर शब्द दरअसल फ़ारसी के ‘बाब्र’ से आता है, जिसका मतलब होता है शेर. और वाकई, इस राजकुमार का साहस, कूटनीति और युद्ध कौशल किसी शेर से कम नहीं था. भारतीय उपमहाद्धीप के इतिहास को एक नया कलेवर देने का श्रेय इसी शासक को जाता है.
बाबर की एक शख़्सियत में कई संस्कृतियों का प्रभाव रहा जो कि उस दौर के मध्य से लेकर दक्षिण एशिया तक मौजूद रहे. ये देश थे उज़्बेकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, भारत और चीन. चीन पर हालांकि बाबर ने कभी राज नहीं किया, पर चूँकि वह चंगेज़ ख़ान की वंशावली से थे, सो उन्हें चीनी शस्त्र और युद्ध कला में खासी दिलचस्पी थी. अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में वो ज़िक्र करते हैं- “बचपन से मेरी चीन जाने की इच्छा रही है, मगर शासन और अन्य ज़िम्मेदारियों की वजह से ऐसा कभी संभव नहीं हो सका.”
सन 1494 में, 11 वर्ष की आयु में बाबर को फ़रगाना का शासक बनना पड़ा. पिता की घाटी में गिरने से मृत्यु हो चुकी थी. उस वक़्त समूचे उज़्बेकिस्तान में हालात बड़े अस्थिर से थे. शासकों की आपस में लड़ाईयां चल रही थी. शुरूआत में बाबर ने फ़रग़ाना के साथ समरकंद इलाके पर भी राज किया, मगर हालात कुछ यूँ बिगड़े के उन्हें दोनों राज्यों से हाथ धोना पड़ा. नौबत यहां तक आयी कि बाबर अपने ही मुल्क में छुपते फिर रहे थे.
अब न उनके पास कोई ताज था, और न ही सेना. 1503 तक परिस्थितियां और खराब हो गयीं. वे बेहद ज़िल्लत के साल थे. तशकंत के अनुभवों को वे यूँ साझा करते हैं- “इतने कष्ट में जीने से बेहतर है मर जाना. इससे पहले की लोग मुझे इस गरीबी और अपमान में जीते देखें, बेहतर है चले जाना उतनी दूर जहां तक मेरे पैर ले जा सकें.”
रंजिश ही सही…
1504 में बाबर ने अफ़ग़ानिस्तान का रुख़ किया. इस वक़्त तक वे एक छोटी सी, मगर प्रशिक्षित सेना तैयार कर चुके थे. उन दिनों काबुल में आर्घन राजवंश का शासन था. उसे हटाकर 1505 में बाबर स्वयं काबुल के शासक बन बैठे. ये शासन 1526 तक बरकरार रहा. इस दौरान हेरात प्रांत भी उनके कब्जे में आता जाता रहा. काबुल और हेरात में रहते हुए उन्होंने चुगतई भाषा पर काफी काम किया. यह भाषा उनके मंगोल समुदाय की थी, जिस पर आगे चलकर उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ लिखा.
अपने समुदाय के पुरुषों से इतर, बाबर को महिलाओं में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं थी. यद्यपी उन्होंने कई शादियां की, और उनके हरम में कई उपस्त्रियाँ रहीं, पर बाबर केवल अपने वंश और उत्तराधिकारी को लेकर सचेत रहे. कई संतानों की असमय मृत्यु के बाद हुमायूं का जन्म हुआ, जो आगे चलकर हिन्दुस्तान के अगले मुग़ल शासक बने. हुमायुं के बाद उनकी तीन संतानें और रहीं.
यहां जानना रोचक होगा कि अफगानिस्तान में अपने शासन के दौरान, बाबर को लंबी लड़ाईयां नहीं लड़नी पड़ी. उज़्बेक और तुर्कों को अगर छोड़ दें, तो बाकियों ने उन्हें अपना बादशाह मान लिया था. साल 1514 तक शासकीय उधेड़बुन ख़त्म होने लगे थे. इसी वजह से अब बाबर का रुझान साहित्य, वास्तु कला और बागवानी की तरफ बढ़ने लगा.
बाबर ने अपने जीवन काल में कई ख़ूबसूरत बाग़ बनवाये. मगर वास्तु कला में दिलचस्पी होने के बावजूद, उन्होंने इस दिशा में कुछ ख़ास नहीं किया. उनके वंशजों ने ठीक इसके विपरीत, मुग़ल शैली की कलाओं को काफी बढ़ावा दिया. बाबर जिस शहर में बसते, वहां मरम्मत का काम अधिक करवाते थे. हाँ, कुछ मस्जिद (मसलन बाबरी मस्जिद), कारवांसराय और तालाब इसका अपवाद है.
बाबर ने शराब का पहला स्वाद 30 की उम्र में चखा. इस्लाम उनकी ज़िन्दगी का एक अहम हिस्सा था, मगर शराब भी. हालांकि मृत्यु से दो साल पूर्व उन्होंने शराब छोड़ दी थी, मगर अफ़ीम का सेवन वो अंत तक करते रहे. तब भी, जब उन्हें कान से ख़ून बहने की शिकायत रही! शराब के लिए उनकी मोहब्बत कुछ यूँ थी-
“नशे में हूँ जनाब,
जो होश में आ लूँ,
तो सज़ा दें!”
बा-मुलाहिज़ा होशियार!
गुज़रते वक़्त के साथ काबुल में रहना मुश्किल हो रहा था. राजस्व घटने लगा. ऐसे में बाबर ने फैसला किया कि वह दक्षिण की ओर जायेंगे. दक्षिण, यानी हिंदुस्तान! सन 1519 से उनकी भारत में बसने की कोशिश रही, मगर शुरू में वह पंजाब प्रांत तक ही सिमित रहना चाहते थे. कारण, कि पंजाब एक समय उनके परदादा ‘तिमूर’ के अधीन था. सो अपना हक़ मांगते हुए, बाबर ने एक विशेष दूत हिन्दुस्तान भेजा. दिल्ली उस वक़्त इब्राहिम लोधी के अधीन थी. पर कोई जवाब न देते हुए, उनके दूत को लाहौर में ही गिरफ्तार कर लिया गया.
संदेश साफ़ था “युद्ध”!
इस तरह वक़्त कुछ और आगे बढ़ा, और पंजाब का हिस्सा बाबर के कब्ज़े में आ गया. अब दिल्ली दूर नहीं थी. तारीख बदली और साल आया 1526. पानीपत की लड़ाई में लोधी की तरफ से 100,000 सैनिक और 100 हाथी आगे बढ़ने लगे. जवाब में बाबर के पास केवल 30,000 की फौज थी. बाबर ने तुलुग्मा तकनीक अपनाते हुए दुश्मन फ़ौज को दोनों तरफ से घेर लिया, और आग से वार करने लगे. इस लड़ाई में इब्राहिम लोधी मारे गए. और आनेवाले 300 सालों के लिए दिल्ली में मुग़ल शासन कायम हो गया. अपनी इस जीत को बाबर दर्ज़ करते हुए लिखते हैं-
“उपरवाले के करम से ये मुश्किल काम मेरे लिए आसान हो गया, और डेढ़ दिन के अंदर इतनी सशक्त सेना धूल में मिल गयी.”
पर इसके बाद, हिन्दुस्तान के शासक के रूप में बाबर केवल चार साल ही जीवित रहे. कहते हैं, 1530 की एक तपती दोपहर जब उनके बेटे हुमायूँ अफगानिस्तान से आगरा लौटे तो बीमार पड़ गए. कोई ईलाज, कोई तीमारदारी काम न आयी. किसी ने बाबर से कहा- वो एक विशेष हीरा दान कर दें. ये हीरा था ‘कोहिनूर’- जो ग्वालियर के राजा बिक्रमजीत ने अपनी जान बख़्शने के बदले बाबर को भेंट की थी. बाबर न माने. उनका कहना था कि कोहिनूर हुमायूँ की ज़िन्दगी जितनी कीमती नहीं. और अगर कुछ है, तो वह है बाबर की अपनी ज़िंदगी. वो उसे देना चाहेंगे.
और ऐसा ही हुआ!
हुमायूँ स्वस्थ हो गए. मानो दुआ कुबुल हो गयी. 26 दिसंबर 1530 को हिंदुस्तान के पहले मुगल शासक, जहीरुद्दीन मोहम्मद ‘बाबर’ का 47 वर्ष की आयु में निधन हो गया. उनकी शुरूआती कब्र यूँ तो आगरा में थी. पर बाबर की आखरी इच्छा का सम्मान करते हुए, उनके शव को 1539 में काबुल के एक बाग़ में फिर से दफनाया गया. उस बाग़ में जिसे बादशाह ने कभी बड़े करीने से बनवाया था. उस बाग़ में, जिसका नाम था ‘बाग़-ए-बाबर’.
बादशाह की कब्र आज भी वहाँ मौजूद है.