बाबा साब: भारतीय संग्राम की विरासत
बादल सरोज
बाबा साहब की 125 वी वर्षगाँठ पर देश उन्हें जितनी शिद्दत से याद कर रहा है उतनी व्यापकता कम ही देखने में आती है. यह डॉ़ भीमराव अम्बेडकर के मिशन की शक्ति है कि उनके मनसा वाचा कर्मणा धुर विरोधी रहे आरएसएस और उनके राजनीतिक मुखौटों को भी रुंधे गले से बाबा साहब की स्तुति करने के लिये विवश होना पड़ रहा है.
वाम सामाजिक सरोकारों के इस आधुनिक पुरोधा को उनके अनुकूल मान प्रतिष्ठा के साथ याद कर रहा है. दक्षिणपंथ के अम्बेडकर स्मरण और वाम के द्वारा उन्हें याद किये जाने के बीच एक बुनियादी भिन्नता है.
इस भिन्नता को समझे बिना कुछ थोड़े से कथित वाम विचारक आज डॉ अम्बेडकर को जिस फुटे, इंची और स्केल से नापने बैठे हैं उसके हिसाब से तो मार्क्स भी एक बार फिर से कहने को मजबूर हो जाएंगे कि अगर यही मार्क्सवाद है तो वे मार्क्सवादी नहीं हैं.
खुद अम्बेडकर मार्क्सवादी नहीं थे.
हालांकि बुध्द पर लिखे अपने भाष्य में उन्होंने कहा था कि गौतम बुध्द अपने समय के कार्ल मार्क्स थे और मार्क्स आज के बुध्द हैं. कोई भी परिवर्तन शून्य में नहीं होता. कोई भी क्रान्ति आसमान से नहीं टपकती.
बदलाव की एक परम्परा होती है. हर सभ्यता और समाज की अपनी परम्पराएँ होती हैं. ये मनुष्यता की साझी धरोहर होती हैं. कोई भी क्रांतिकारी आंदोलन कोरे पन्ने या खाली जेब से नहीं शुरू होता. अपने समयकाल में क्रांतिकारी भूमिका निबाहने वाली परम्पराये आगामी समय के बदलाव की पूंजी होती हैं.
चीनी क्रान्ति के पास सनयात सेन थे, उन्होंने निरंतरता के रिश्ते कन्फूशियस और लाओत्से तक जोड़े.
क्यूबा के चे और फिदेल खुद को होजे मार्ती के वारिस मानते थे/हैं. लैटिन अमरीका का पूरा मुक्तिकामी समूह (क्यूबा भी) 500 साल पुराने साइमन बोलिवर के सपने को आगे ले जाने की बात करता है. वियतनामी, कोरियाई क्रान्ति के भी अपने पुराने नायक थे. फ्रेंच रेवोल्यूशन से अक्टूबर क्रान्ति तक हरेक की अपनी विरासतों की सूचियाँ हैं.
हमारे अपने चे (क्रान्ति सफल हो जाती तो शायद वे चे से भी बड़े विश्व आइकन होते) भगत सिंह की नोटबुक, आख़िरी समय पन्ना मोड़कर रखी गयी लेनिन की किताब से पहले अनगिनत दार्शनिको विचारकों के उद्दरणों से भरी पडी है.
दुनिया भर की तरह भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन भी न तो अनाथ है न अज्ञातकुलशील.
इसकी बेहद समृद्ध परम्परा है जो चार्वाक, लोकायत, बुध्द, कबीर से आधुनिक दौर में ज्योतिबा फुले, सावित्री फुले, तुकाराम, बिरसा मुंडा, बादल भोई, यहां तक कि पेरियार से समृद्ध होती हुयी मार्क्स तक पहुंचती है.
ताजे समय में इस परम्परा के सबसे मुखर और स्वीकार्य प्रतीक हैं डॉ भीमराव अम्बेडकर. कथित रूप से “अपने लोगों द्वारा धोखा दिए जाने ” से निराश होकर न जाने कितनी साल पहले मर जाने के बाद भी वे यदि ज़िंदा और प्रासंगिक है तो इसलिए कि महाड़ के जिस तालाब से पानी पीने की लड़ाई उन्होंने लड़ी थी. वैसे तालाब, कुंए, हैंडपंप आज भी हर गाँव और शहर में हैं. जब तक ये हैं तब तक अम्बेडकर रहेंगे.
हर फैक्ट्री और कार्यक्षेत्र पर लाल झण्डा फहराने की जद्दोजहद जरूरी है, अनिवार्य है, मगर वह तब तक किसी क्रांतिकारी बदलाव में कामयाब नहीं हो सकती जब तक कि इन तालाबों, कुओं, हैण्ड पम्पो पर भी लाल झंडा नहीं फहर जाता.
भारतीय क्रान्ति के झंडों को सैकड़ों वर्ष की इस सामाजिक आर्थिक सांस्कृतिक लड़ाईयों में पैने होकर सामने आये मजबूत डंडों पर लगाने का काम 40-50 के दशक में गोपालन, नम्बूदिरीपाद ने शुरू किया था. वामपंथ के लिए यह कोई नया काम नही है. सवाल उसे समुचित प्राथमिकता से लेने का है. और यह काम सिर्फ राजनीतिक मोर्चेबंदी तक महदूद रहने वाला काम नहीं है.