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जौं न ब्रम्ह सर मानौं महिमा मिटइ अपार

डॉ. विक्रम सिंघल

“ब्रम्हास्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह विचार, जौं न ब्रम्ह सर मानौं महिमा मिटइ अपार”

सुन्दरकाण्ड में इंद्रजीत से युद्ध का यह प्रसंग आज मन को घेरे हुए है. आखिर यह कैसा युद्ध है कि शत्रु के बाण को ख़ुशी से स्वीकार करने की बात हो रही है और यह महिमा क्या चीज़ है, जो युद्ध और वह भी धर्मयुद्ध से बढ़कर है.

शत्रु अपने समस्त प्रयास कर हार चुका है, अब अपना अंतिम दांव चल रहा है, जो निष्फल है. यह महिमा या कीर्ति एक बड़ा मूल्य है, विशेषकर एक ऐसी मूल्य व्यवस्था में जहाँ व्यवस्था खुद ही सबसे बड़ा मूल्य हो. जहाँ सर्वोच्च सत्ता ‘धर्म’ की हो और वह धर्म किसी आचार संहिता से निर्धारित न हो बल्कि तत्वमीमांसिक व्यवस्था का संरक्षक हो, जो समाज में व्यवस्था के रूप में परिलक्षित होता है.

यह अमूर्त धर्म ‘ऋत’, और काल के साथ सत्य भी कहलाता है. सभी ‘सत्ता’ एक व्यवस्था में स्थित होते हैं और उस व्यवस्था में ही उनकी सत्ता है. मतलब ये कि सन्दर्भ के बिना अर्थ नहीं हो सकता और उस व्यवस्था को बनाये रखने में ही इन सत्ताओं की सार्थकता है. महिमा व्यवस्था के सत्य होने का विश्वास है. यह आस्था का निर्माण करती है और नियमित प्रश्नो को रोक देती है.

यह दलील दी जा सकती है कि व्यवस्था तो पितृसत्ता और सामंतवाद का है और जाति व्यवस्था उसका व्यावहारिक आधार. और यह कि महिमा लोगों को यही प्रश्न करने से रोकती है और शोषण को वैध बनाती है. पर यहाँ जिस महिमा की बात हो रही है, वह सन्दर्भों से परे मानी जा रही है कि सभी प्रसंग देश काल से बाधित हैं और ऐसे संयोग बार बार उत्पन्न होंगे पर इन सिमित सन्दर्भों में असीमित महिमा की बलि नहीं दी जा सकती.

आज अयोध्या में श्री राम लला के मंदिर के शिलान्यास का विराट उत्सव प्रायोजित है. उत्सव में देश के प्रधानमंत्री चांदी की ईंट से शिलान्यास करेंगे.

राजनीतिशास्त्र में पढ़ते थे कि राजा की वैधता देव प्रतिनिधि के रूप में होती है और आधुनिक राष्ट्र राज्य में राष्ट्र प्रतिनिधि के रूप में. मगर एक ऐसा देश जो कई युगों में एक साथ जीता हो, वहां देव और राष्ट्र के मिश्रित प्रतीक को साधकर अक्षुण्ण राजनैतिक वैधता को साधने का प्रयास जारी है.

यह उत्सव बहुत से प्रतीकों को लिए हुए है. यह विजय-विजयिता का उद्घोष है, ‘मंदिर वहीँ बनाएंगे’ से ‘मंदिर वहीँ बनेगा’ तक का सफर यही कहानी कहता है. तो कल्पित शत्रुओं पर कल्पित विजय लोगों को उत्तेजित रखने के लिए जरूरी है, वहीं चांदी की ईंट उस व्यवस्था की वैधता कायम रखने के लिए है जहाँ धन
की महिमा है और वह देव महिमा में भागीदार है. न्यायालय के माध्यम से लायी हुई यह जीत इसे और भी मीठा बनाती है, क्योंकि यहाँ पराजित पक्ष इस बात का भी संतोष नहीं कर सकता कि वह असीमित संख्या बल (राजनैतिक व हिंसक) से पराजित हुआ है.

तो पराजित यहाँ क्या करे. क्या वह अन्याय को ओढ़ कर प्रतिशोध के अवसर की प्रतीक्षा करे या फिर अपनी हार को अपनी नियति और नयी पहचान स्वीकार कर एक नया उपनिवेश बन जाये? इन दोनों से लड़कर ही तो देश यहाँ तक आया है, गांधीजी ने इसी हार स्वीकार्य और प्रतिशोध की इच्छा से लड़ाई kr थी और यही हमारी राष्ट्रीयता का आधार है.

जाहिर है, ना तो लोग इसमें ऐतिहासिक अन्याय तलाश सकते हैं और न ही हार, हालाँकि यही तर्क आज विजयी शक्तियों द्वारा दिए जा रहे हैं. यह साझे इतिहास का निर्माण है जिसमें बहुत से कड़वे पल भी आएंगे.

लेकिन हनुमानजी द्वारा ब्रम्हाजी की महिमा रक्षा क्या कहता है. एक असुर दल के सेनापति द्वारा ब्रम्हाजी को शस्त्र के रूप में प्रयोग करना ब्रम्हाजी पर प्रश्न नहीं उठाता क्योंकि वह तो निरपेक्ष हैं, और उनकी महिमा उस परिणाम से परे है जो उस असुर के विजय से फलीभूत होगी.

आज अगर कोई आसुरी शक्ति प्रभु राम का शस्त्र रूप में प्रयोग कर रहा है तो उनकी महिमा की रक्षा का भार उनके सच्चे भक्तों पर है, और वह अधर्म के इस क्षणिक विजय से विचलित न होकर उस महिमा पर निष्ठा बनाये रखें जो समदर्शी न्याय का संरक्षक है. देश की वह जनता जो देश की और संविधान की महिमा में अपनी नियति को सुरक्षित मानती है, उसे यहाँ हार और अहंकार को न देखते हुए श्री राम लला के मंदिर का स्वागत मुक्त ह्रदय से करना चाहिए.

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