हमले के लिये संदेशों के स्रोत कहां हैं?
अनिल चमड़िया
बिहार में नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की फैसला कियाऔर ठीक उसके बाद वहां बजरंग दल वालों की हरकतें सतह पर आने लगी. चंद दिनों पहले तक गाय के बहाने मुसलमानों व दलितों के खिलाफ जर्मन गैंग, जिन्हें हिंसक भीड़ भी कहा जाता है, के हमलों की घटनाएं बिहार में नहीं सुनने को मिली थी. जबकि बिहार से अलग हुए भाजपा शासित झारखंड में अक्सर ऐसी घटनाएं होती है.
जिस तरह से छत्तीसगढ़ में ईसाईयों के प्रतीकों के खिलाफ एक अभियान देखा गया है, बिहार में भी बजरंग दल वाले ये ऐलान कर रहे हैं कि वे एक भी गांव का वैसा नाम नहीं रहने देंगे जिससे कि मुस्लिम ध्वनि आती हो. मुगलसराय बिहार का सीमावर्ती सबसे बड़ा रेलवे जंक्शन है जिसका नाम दीन दयाल उपाध्याय के नाम पर करने का फैसला उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने किया है.
इस प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए कि सरकार का बनना और बिगड़ना कैसे समाज में सक्रिय समूहों व गिरोहों को संरक्षित महसूस करने का एक संदेश देता है. किसी नेतृत्व के बदलने के साथ ही देश में वंचित वर्गों व अल्पसंख्यक समुदायों व उनकी भावनाओं के खिलाफ हमले इस तरह शुरू हो जाते है जैसे कि उसकी तैयारी पहले से चल रही हो और बस किसी मौके का इंतजार हो. उत्तर प्रदेश में जब योगी सरकार आई तो सहारनपुर में जाटवों, दलित जाति के खिलाफ हमले की बर्बर घटना हुई. योगी और सहारनपुर के हमलावर एक ही जाति के हैं.
क्या महज अपनी जाति के किसी व्यक्ति के नेतृत्व में आने भर से हमलावर खुद को संरक्षित महसूस करने लगते हैं ? न केवल संरक्षित महसूस करते हैं बल्कि क्या उन्हें ये भी लगता है कि पूरी संवैधानिक मशीनरी न केवल उनका संरक्षण करेंगी बल्कि उनका सहयोग भी करेगी? क्या कर्नाटक में राहुल गांधी पर हमला संभव था जिस तरह से भाजपा शासित गुजरात में हुआ? इस तरह की घटनाएं ये स्पष्ट करती है कि देश में संविधान, कानून और उसकी संस्थाओं का कोई मतलब नहीं है. ये एक नए तरह के हालात की तरफ इशारा कर रहा है.पार्टियां सरकार नहीं होती है बल्कि संविधान सम्मत सरकारों को चलाने के लिए पार्टियों को जिम्मेदारी दी जाती है.
सरकारों के नेतृत्व में फेरबदल का संदेश समाजिक समूहों की भूमिकाओं के लिए महत्वपूर्ण होता है. लेकिन यदि फेरबदल का ये संदेश संविधान के उद्देश्यों व सामाजिक कल्याण के बजाय समाजिक विभाजन की स्थितियों को खड़ा करने में सहायक होता है तो इसके दूरगामी नतीजों पर नजर डाली जानी चाहिए.
पहली बात तो एक साल से देश के प्रधानमंत्री होने के नाते नरेन्द्र मोदी गाय के नाम पर हत्या करने वाले जर्मन गैंग को असामाजिक तत्व कह रहे हैं. वे अगस्त 2016 में कह चुके हैं कि उनमें ज्यादातर वे लोग है जो रात में गंदी गंदी हरकतें करते हैं और सुबह गाय को माता का जाप करने लगते हैं. उसके बाद से प्रधानमंत्री के तौर पर वे जब जब गाय के नाम पर हत्या और हमलों की घटनाओं के विरोध में लोगों की संख्या सड़कों पर ज्यादा दिखाई देने लगती है तब तब वे जर्मन गैंग के सदस्यों को लताड़ते हुए टीवी पर दिखें हैं. उन्हें समझाते देखा गया है कि गाय की रक्षा कैसे की जाती है. उन्होने 2016 में भी राज्य सरकारों से कहा था कि वे इस तरह की घटनाओं को रोके और उसके बाद जब संसद में बहस हुई तब भी उसके जवाब में उनकी सरकार ने कहा कि कानून एवं व्यवस्था का क्षेत्र राज्य सरकारों का है और भारत के संघीय होने कारण वे केवल राज्य सरकारों से ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कह रहे हैं.
कानून एवं व्यवस्था का विषय राज्यों के अधीन होता है ये एक प्रशासनिक तकनीकी तथ्य है.लेकिन यह महज कानून एवं व्यवस्था की मशीनरी से जुड़ा प्रश्न नहीं है. कानून एवं मशीनरी का ढांचा भी सरकार के फेरबदल के संदेशों से प्रभावित होता है. दूसरा प्रधानमंत्री भाजपा के नेता हैं और जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं वहां भी उनकी यह अपील असर नहीं दिखा पाती है. ये पहली बार देखने को मिल रहा है कि देश का नेतृत्व करने वाले पद प्रधानमंत्री से अपली की जा रही हो और उसे राज्य सरकारें भी अनसुनी कर रही हो और हमलावर भी कर रहे हो. इसका क्या अर्थ निकाला जा सकता है.
प्रधानमंत्री का हर वैसा संदेश असरदार होने का दावा करता है जिसे कि देश हित में बताया जाता है. नोटबंदी को लेकर प्रधानमंत्री ने कहा कि कैसे उनकी अपील के आलोक में लोग तकलीफें उठा रहे हैं. लेकिन गाय के नाम पर साम्प्रदायिकता फैलाने वाले और हत्या-हमला करने वाले गैंगों पर उनकी अपील का असर नहीं दिखाई दे रहा है. राज्य सरकारों की मशीनरी भी उनकी अपील के उल्ट कार्रवाईयां कर रही है. पीडित होने वाले हमले की घटनाओं के दौरान मशीनरी की मौजूदगी को खुद के लिए ज्यादा सुरक्षित महसूस करते है और पीड़ितों के खिलाफ ही मशीनरी कार्रवाईयां करने में ज्यादा सक्रियता दिखाती है. क्या साम्प्रदायिकता वाले संदेश इतने रहस्यमय होते हैं ?
एक खास तरह की विचारधारा के अनुरूप तैयार करने के लिए राजनीतिक पार्टियों की सक्रियता को पर्याप्त माना जाता है.सरकारें पार्टियों की तरह नहीं चलाई जा सकती है क्योंकि संसदीय पार्टियां अपना भरोसा लोगों के बीच खोकर पांच वर्षों के बाद फिर से हासिल कर सकती है. लेकिन सरकार से एक बार भरोसा टूट जाए तो सरकारों को यह मौका नहीं मिलता है. संसदीय राजनीति में पार्टियां ही सरकार को रूप ले लें तो संविधान, संवैधानिक संस्थाओं व संसद का कोई मतलब नहीं रह जाता है. भाजपा के नेता नरेन्द्र मोदी की बातें कोई गैंग नहीं सुनें ये तो संसदीय व्यवस्था के काबिले बर्दाश्त है लेकिन जब बतौर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बात नहीं सुनी जाए तो इसके मायने गंभीर होते हैं.
क्या प्रधानमंत्री के संदेश में प्रधानमंत्री द्वारा की जाने वाली अपीलों जैसी नैतिक ताकत नहीं हैं? संसद में जब किसी विषय पर बहस होती है तो वह बहस केवल सरकार के मंत्रियों के जवाब के लिए नहीं होती है. वह बहस समाज के लिए होती है ,सरकारी मशीनरियों के लिए होती है. लेकिन राज्य सभा और लोक सभा में हिंसक भीड़ द्वारा हत्या और हमले की बढ़ती घटनाओं पर लगातार बहस का असर हमलों को रोकने में सफल होता नहीं दिखाई देता है. क्योंकि संसद में बहस नहीं दिखती है बल्कि बहस के ढांचे को विवादित करने की कोशिश वहां ज्यादा दिखती है. वह लोकतंत्र के लिए नहीं बल्कि हिंसक भीड़ की बहस के रूप में नजर आती है.
हत्या और हमले के ये मामले कानून एवं व्यवस्था के मामले नहीं है. ये स्पष्ट रूप से सैनिक दिमाग तैयार करने के उद्देश्य से जुड़े मामले है. उस भीड़ में उन्हें शामिल करने का उद्देश्य निहित है जो आर्थिक और सामाजिक ढांचों की वजहों से उत्पीड़न या दमन के शिकार रहे हैं. इसके साथ ही उत्पीड़न और दमन का शिकार रहे वैसे लोगों के दिमाग में साम्प्रदायिकता को शोषण, उत्पीड़न की एक वजह के रूप में बारूद की तरह भरना है. दूसरी तरफ गाय के नाम पर हत्या और हमले के उत्पीडितों के भीतर यह गुस्सा पैदा करने का इरादा होता है कि वह भी असुरक्षा बोध से घिरकर हथियार उठा लें. उत्पीड़ित समूह में दो तरह की मानसिकता तैयार होती है. एक बदला लेने की भावना होती है दूसरा उस तरह के हालात को ही खत्म करने की भावना होती है. सरकारों में फेरबदल का संदेश हत्या और हमले की इस तरह के इरादों में सहायक हो रही है तो ये बेहद चिंता का विषय हैं.