असम के विदेशी नागरिकों का समाधान
संदीप पांडेय
नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर व नागरिकता संशोधन बिल के माध्यम से सरकार एक ऐसे राज्य में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है, जहां 1983 के नेल्ली जनसंहार को छोड़कर कोई सांप्रदायिक तनाव का इतिहास नहीं रहा है.
अखिल असम छात्र संघ का विदेशी नागरिकों को चिन्हित कर उन्हें वापस भेजने की मांग को लेकर हुआ छह वर्षीय आंदोलन जिसकी परिणति 1985 के राजीव गांधी के साथ हुए असम समझौते में हुई थी, सभी बंग्लादेशियों के खिलाफ था न कि सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई वर्षों से असम ही नहीं पूरे भारत में बंग्लादेशियों को वापस भेजने का अभियान चलाया हुआ है लेकिन उनका निशाना सिर्फ मुसलमान है. इसी वायदा पर उन्होंने असम का चुनाव भी जीता. किंतु असम के लोग मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि भाजपा सरकार नागरिकता संशोधन बिल लाकर हिन्दू बंग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की बात करेगी.
असम के लोकप्रिय जमीनी नेता अखिल गोगोई ने हाल ही में अमित शाह की असम यात्रा से पहले इस बिल के विरोध में बड़ी जन सभा की. यदि भाजपा असम का अगला चुनाव हारती है तो उसमें एक बड़ा कारण यह होगा. असम के लोग बंगाली, खासकर हिन्दुओं, द्वारा अपनी भाषा, लीपि व संस्कृति उन पर थोपने से आहत रहे हैं.
3,29,91,384 लोगों ने नागरिकता हेतु आवेदन किया था. जिसमें से 2,89,83,677 का नाम 31 अगस्त, 2018 को प्रकाशित दूसरी सूची में आया है. जो 40.07 लाख छूट गए हैं. उनमें से 2.48 लाख लोग ऐसे हैं जिन्हें ‘संदिग्ध मतदाता’ की सूची में रखा गया है. छूटे हुए नामों में हिन्दू व मुस्लिम दोनों हैं.
नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में नाम आने के लिए या तो आपका या आपके पूर्वजों का नाम 1951 के नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में होना चाहिए अथवा आपके पास बारह किस्म के पहचान पत्रों में से एक हो जो 24 मार्च 1971 के पहले बना हो, जो तिथि असम समझौते में तय हुई थी. जो छूटें हैं, वे ज्यादातर गरीब होंगे जिनके लिए ऐसे राज्य में जहां खूब बाढ़ आती है, 48 साल अपने दस्तावेजों को सम्भाल कर रखना मुश्किल होगा.
यह सर्वविदित है कि खास कर गरीब लोगों के लिए, चाहे वे रोजगार की तलाश में अपने राज्य के अंदर ही पलायन किए हों, स्थानीय प्रशासन से निवास प्रमाण पत्र बनवाना टेढ़ी खीर है. इसके लिए घूस देनी पड़ती है, एक चालाक किस्म का वकील चाहिए अथवा कोई दलाल ये काम करवा सकता है.
असम भारत का अकेला राज्य है जो 1951 के बाद अद्यतन नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर तैयार करवा रहा है. आमतौर पर भारतीय परम्परा यह है कि हम विदेशियों का स्वागत करते हैं. पूरे इतिहास में चाहे वह आक्रांता के रूप में आया हो अथवा शरणार्थी के रूप में वह भारत की संस्कृति में रम गया.
देश के विभाजन के समय जो हिन्दू पूर्वी पाकिस्तान से आए थे जिन्हें सम्मान के साथ पुनर्वास का वायदा किया गया था को उस समय भी दिक्कतें हुई थीं, जैसा अंगारकाटा के सत्यग्रह के वर्णन से स्वतः स्पष्ट है. बाद में जो बंग्लादेशी आए वे रोजगार की तलाश में आए. कई तो ऐसे हैं जो आज भी रोजाना आते हैं और शाम को लौट जाते हैं जिनका भारत में बसने का कोई इरादा नहीं है.
बंगाली बोलने वाले मुस्लिम जिनके पास असम का पहचान पत्र है भारत के अन्य हिस्सों में कूड़ा बिनने का काम करते हुए पाए जा सकते हैं. इनकी हमारे समाज को जरूरत है क्योंकि जो लोग पारम्परिक रूप से कूड़ा बिनते थे वे या तो सरकारी नौकरियां पा गए हैं अथवा इससे ज्यादा सम्मानजनक कार्यों में लग गए हैं.
बंग्लादेशी भारत में रोजगार की तलाश में वैसे ही आता है जैसे भारत से लोग, कई बार तो अवैध तरीकों से, दुबई से लेकर अमरीका तक जाते हैं. पुराने समय से भारतीय काम की तलाश में पूरी दुनिया में जाते रहे हैं और उनमें से कुछ पहल लेने की क्षमता रखने वाले तो स्थानीय शासन-प्रशासन-न्यायपालिका, आदि में ऊंचे पदों पर विराजमान हैं अथवा रह चुके हैं. कुछ देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारतीय मूल के लोग बने हैं. उस त्रासदी की कल्पना की जा सकती है यदि दूसरे मुल्क तय कर लें कि अवैध भारतीय लोगों को अपने यहां से निष्कासित करेंगे.
रोहिंग्या लोगों की स्थिति तो अत्यंत दयनीय है क्यों बंग्लादेशी तो अपनी इच्छा से भारत आया किंतु रोहिंग्या तो अपने देश म्यांमार में प्रताड़ित किए जाने के कारण मजबूरी में आया है.
बंग्लादेशी और खासकर रोहिंग्या को भारत की सुरक्षा के लिए खतरा बताना तो उनकी गरीबी का मजाक उड़ाना है. कई सम्पन्न भारतीय नागरिक हैं जो वित्तीय अनियमितताओं से लेकर हिंसा भड़काने जैसे कामों में लिप्त हैं, जो राष्ट्र के हित के खिलाफ है. इसलिए देश का नागरिक होने या न होने व देश की सुरक्षा के लिए खतरा होने के बीच कोई सम्बंध नहीं है.
हमने यह भी देखा कि मेहुल चौकसी जैसे अमीर लोग देश की नागरिकता का कितना सम्मान करते हैं, जिसने भारत के कानून से बचने के लिए अपनी नागरिकता ही बदल डाली. विजय माल्या व सुब्रत रॉय, सरकार से संबंध खराब होने के पहले बड़ा राष्ट्रवादी होने का दावा करते थे.
किंतु असम के लोगों की यह जायज चिंता है कि कहीं एक दिन बाहरी लोग संख्या की दृष्टि से उन पर हावी न हो जाएं. 1971 के पहले भारत आ चुके बंग्लादेशियों के लिए यह प्रावधान है कि वे विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण अधिकारी के यहां अपने आप को पंजीकृत करा सकते हैं और प्रारम्भ के दस वर्ष उन्हें मतदाता अधिकार से वंचित रखा जाएगा.
यदि असम के लोगों को लगता है कि उनके यहां उनके हिस्से से बहुत ज्यादा विदेशी आ गए हैं तो उन्हें देश के अन्य राज्यों में बांटा जा सकता है. ममता बनर्जी तो कह ही चुकी हैं कि वे नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में छूट गए बंगालियों को अपने यहां बसा लेंगी.
जिन लोगों का नाम नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर में नहीं आया है, उन्हें संदिग्ध मतदाता अथवा ‘घोषित विदेशी’ की श्रेणी में रखने के बजाए, अमरीका की व्यवस्था की तरह, बिना मतदाता अधिकार के काम करने का अधिकार दे देना चाहिए ताकि उन्हें वापस भेजे जाने का अथवा जेल जाने का डर न सताए और वे अपने परिवार के साथ सम्मानजनक ढ़ग से जी सकें और भारतीय नागरिकों के बराबर उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली व आवास के अधिकार प्राप्त हों.
चाहे कोई देश का नागरिक हो अथवा विदेशी, आखिर उसके मानवाधिकार तो हैं ही. वर्तमान के नियम की तरह 1971 के बाद आने वालों को भी दस वर्षों के बाद नागरिकता देने पर विचार किया जाना चाहिए. असम समस्या का यही एक मानवीय हल है.