कला की सोहबतःकुछ शब्द-3
गायन में आपका राग तब सातवें आकाश में होता है जब किसी एक वाद्य से आपके मन का टांका भिड़ जाता है. यह इश्क़ सरीखा होता है. जैसे बेग़म अख़्तर और उनका हारमोनियम. उसके बिना उनका गाना कल्पनातीत था. वह सुरों के स्पर्श और सुरों को साधने का अपरिहार्य माध्यम था. आकाशवाणी में आज़ादी के पूर्व पदस्थ ब्रिटिश संगीतकार जान फाउल्डस ने हारमोनियम का प्रयोग वर्जित कर दिया. उनका कहना था कि हारमोनियम का हेम्पर्ड स्केल और टोनल क्वालिटी भारतीय संगीत के अनुकूल नहीं है.
बेग़म अख़्तर ने विरोध में आकाशवाणी पर गाना बंद कर दिया. हर प्रतिरोध काम करता है. बेग़म अख़्तर के विरोध ने जन दबाव बनाया और सालों बाद सही हारमोनियम संगत का अभिन्न अंग हो गया. उस दौर की रिकार्डिंग और गुफ़्तगू सुनने से मेरे भीतर के कई कपाट खुले. यह समझ सका कि हारमोनियम उनका हमनफ़स था. उसके पर्दों में बेग़म साहिबा की रुह थी. भला उसके बिना वो क्या गातीं, सो गाने का क़रार तोड़ दिया. हारमोनियम से हुआ क़रार ताजिंदगी रहा.
इतिहास में कोई -कोई ही क़रार का महत्व समझता है. उसकी आत्मा में क़रार के टूटने का दर्द रिसता रहता है गोया क़ायनात में गूंजती उनकी ग़ज़ल-‘वो जो हममे तुममे क़रार था, तुम्हें याद हो कि न याद हो’ अपना काम करती रही. बेहतर हुआ कि बेग़म अख़्तर मनाने या कहें मुआफ़ी मांगने पर लौट आयीं.
रजवाड़ों और महफिलों के ख़त्म होने पर रेडियो उनका घर हो गया था. वे इस बात की ममनून थीं कि आकाशवाणी ने उन्हें घरों-घर पहुंचाने का और इतिहास में ज़िंदा रखने का काम किया. हम इसलिये कृतज्ञ हैं कि हमने उनकी अमूल्य रिकार्डिंग सुनीं और वो बातें जो आकाशवाणी और सिर्फ़ आकाशवाणी के आर्काइव्ज़ में है.
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लखनऊ संगीत का मरकज़ था. पेशेवर तवायफों को आकाशवाणी में सम्मान से बाई जी पुकारा जाता था. जब उनकी कोठियों के फ़ानूस उतर चुके थे. सारंगी,तबले और घुंघरू लंबी नींद में चले गये थे. और कोठे की गलियों से इत्र और फूलों की ख़ुशबुओं का वक़्त बीत चुका था.
तब शानो-शौक़त लौटाने का काम तो आकाशवाणी न कर सकी लेकिन उनके गायन की शोहरत को ज़रूर देश के कोने-कोने में पहुंचा दिया. और उनके चेहरों पर मसर्रत लौट आयीं थीं. उनकी इस मक़बूलियत ने उनके लिए रिकार्ड कंपनियों और फ़िल्म के दरवाज़े खोल दिए. उनमें से कुछ को ढलती उम्र और लगभग बुढ़ापे की दहलीज पर आकाशवाणी में देखा, सुना, रिकॉर्ड किया. उनकी बंदिशों को उनके शागिर्दों से गाते सुना. कई बार कल और आज,तब और अब,रवायत के रंग शीर्षक से रेडियो पर कार्यक्रम पेश किये.
आकाशवाणी रायपुर में मुझे एनाऊंसर का काम भी करना होता. प्रोग्राम एक्सचेंज एकांश से ऐसी रिकार्डिंग मिल जातीं और मैं अपनी रुचि का कार्यक्रम बनाकर पेश करता. शांति हीरानंद से बेग़म अख़्तर की यादों को रिकार्ड किया और लगा आप उस दौर में पहुंच गये. उस दौर की गायन-वादन कला ख़ूबियों को शन्नो खुराना, शोभा गुर्टु, रीता गांगुली, गिरजा देवी और पं. जसराज से सुना. और सुगम व उपशास्त्रीय संगीत से आशिक़ी बढ़ती गयी. मैं मुन्नी बेग़म, मुख़्तार बेग़म, मल्लिका पुखराज, गुलबहार बानो, सुरैया ख़ानम, नूरजहां, नाहीद अख़्तर, महनाज़ बेग़म,तसव्वर ख़ानम, सुरैया मुल्तानपुरक और लिली चक्रवर्ती की रिकार्डिंग ढ़ूंढता या आकाशवाणी पत्रिका में उन पर लिखा पढ़ना न भूलता.
ग़ज़ल से आशिक़ी इन कलाकारों की आवाजों में रहने की वजह से हुई. क्या कमाल जगहें हैं. भाव और रस निष्पत्ति तक पहुंचना का सफ़र हसीन रहा. यह सोहबत से कुछअधिक था. कई-कई दिनों तक एक ही कलाकार को सुनने और दीवाना हो जाने के दिन.
जैसे ग़ज़ल की वो मशहूर पंक्ति- ‘दीवाना बनाना है,दीवाना बना दे. ‘सो ख़ुशी-ख़ुशी दीवाना हो गये. आकाशवाणी में संगीत श्रवण ने क्या दिया यह सवाल लोग पूछते हैं.
मैं कहता हूं प्रेम और अहिंसा.
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पूजा के गायन का स्वर -संगतकार मंजीरा.
सुर को और अधिक सुरीला बनाने वाला हमसाज़ और हमराग. धीरे-धीरे उत्तर भारत में मंजीरे का लोप होता गया लेकिन दक्षिण भारत में उसे संगत के लिए आज भी अपरिहार्य माना जाता है.
मैं उत्तर भारत का मंजीरा हूं. अब इसकी ज़रुरत नहीं रही. मैं मंदिर के एक कोने में उदास- उपेक्षित किसका इंतज़ार कर रहा हूं.
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जलतरंग अब दृश्य से बिल्कुल विलुप्त होने के मुहाने पर है. हम उसे न देख पा रहे हैं न प्रत्यक्ष सुन पा रहे हैं. इसके वादक अब मुश्किल से दृश्य में दीखते हैं. पहले आकाशवाणी की कलाकार सूची में कुछ जलतरंग वादकों को देखने और दुर्लभ वाद्य को सुनने की स्मृति है. कैसे छोटे -बड़े प्यालों में कितना जल भरना है फिर डंडी से स्वर मिलाने की प्रक्रिया में प्यालों में जल कम या ज़्यादा करना है. फिर राग का आरंभिक रियाज़ करना है और फिर बजाना है.
रिकार्डिंग में जलतरंग के 14,16 या 22 अर्धचंद्राकार प्यालों से निकलते स्वरों को पैनल से बैलेंस करना सबसे कठिन होता. रिकार्डिंग पैनल पर हम संगीत के वादक कलाकार को साथ रखते. पैनल की बटनों को आलाप,जोड़ और द्रुत गत में किस तरह और किस सूक्ष्म सीमा तक बैंलेस करना है,यह सोहबत भी आपके भीतर संगीत का संस्कार डालती है.
मैं जलतरंग को फिर वैसे प्रत्यक्ष अनुभव कर न सका और लगा भीतर कुछ मुरझा गया. दुबारा मिला तो संतोष चौबे के उपन्यास ‘जलतरंग’ में. सिर्फ़ जलतरंग ही नहीं अन्य वाद्यों के सौंदर्य से और गायन की अमूर्त सूक्ष्मताओं से. उपन्यास के फार्म में यह एक कला इतिहास भी है और कला समीक्षा भी. हालांकि यह फ़र्क बारीक है.
पांच खंडों में क्रमशःआलाप,जोड़,बिलंबित ,द्रुत और झाला में विभक्त यह सांगीतिक प्रतीति की तरह है. संतोष चौबे स्वंय जलतरंग के वादक कलाकार रहे हैं अतः यह किताब कला आस्वाद का एक अनूठा उदाहरण है. यह अपने उपन्यास फार्म का अतिक्रमण कर कब कला समीक्षा के आत्मीय शिल्प में प्रवेश कर जाती है,पता नहीं चलता. संगीत में बार-बार लौटने के लिए यह मेरी प्रिय किताबों में एक है.
इसे पढ़ते हुए मुक्तिबोध की कृति ‘एक साहित्यिक की डायरी’ याद आई. मुझे लगा संतोष चौबे को संगीत के घरानों या किसी एक घराने पर ‘एक संगीतकार की डायरी’जैसी नवाचारी किताब लिखना चाहिए.
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फूल जितने नाज़ुक लगते हैं होते नहीं है. वे उड़ते हुए भौंरों और पांखियों के परों को अपनी महक में बांध कर ग़ुलाम बना लेते हैं. और वे फूलों के जोगी बने-बने ताउम्र की क़ैद मज़े-मज़े स्वीकार कर लेते हैं. यह जैसे औरों के साथ हुआ, हमारे साथ भी और हम, हम न रहे. फूल की सोहबत में कांटे भी थे सो ज़ख़्म भी हैं.