अनुपम मिश्र – कहाँ गया उसे ढूँढो
शुभू पटवा | सप्रेस: मुझे एक गीत की ये पंक्तियाँ याद आ रही हैं- कहाँ गया उसे ढूँढो../ सुलगती धूप में छाँव के जैसा/ रेगिस्तान में गाँव के जैसा/ मन के घाव पर मरहम जैसा था वो/ कहाँ गया उसे ढूँढो…
पर वह तो अदृश्य में खो गया है. एक ऐसे अदृश्य में, जहाँ रोशनी नहीं पहुँचती. जब तक था, सबको रोशनी दी. सबको रोशन किया. क्या सूरज को कोई चिराग राह दिखा सकता है! जैसे सूरज अपनी राह खुद बनाता है, उसी तरह उसने अपनी राह बनाई. अपनी राह पर चला. बेबाक और पूरी निर्भीकता के साथ. वह एक खुली किताब था. और इसलिये उसकी लिखी सब पुस्तकों पर लिखा था- ‘इस पुस्तक की सामग्री का किसी भी रूप में उपयोग किया जा सकता है, स्रोत का उल्लेख करें तो अच्छा लगेगा.’
‘देश का पर्यावरण’, ‘हमारा पर्यावरण’ जैसी पुस्तकों का मूल सम्पादन अनिल अग्रवाल और सुनीता नारायण ने किया, पर परिवर्द्धित हिन्दी संस्करण का सम्पादन अनुपम जी ने ही किया. उस पर भी यही लिखा था. वे बहुत अच्छे अनुवादक थे. ‘गाँधी-मार्ग’ में छपे कई अनुवाद इसके प्रमाण हैं. मूल रचना की भावना अनुवाद में न मरे, तो वह अच्छा अनुवाद माना जाता है. पर अनुपम जी के अनुवाद के बाद मूल लेख पढ़ने की चाहत ही नहीं बनती थी.
मेरी पहली मुलाकात 1984-85 में हुई. वे ‘एक्सप्रेस बिल्डिंग’ से निकल रहे थे कि हम टकराए. वहीं खड़े-खड़े ‘भीनासर आन्दोलन’ के बारे में बातें हुईं. ‘गोचर-चरागाह विकास और पर्यावरण चेतना भीनासर आन्दोलन’ के नाम से चर्चित इस आन्दोलन की पूरी कहानी अनुपम ने सुनी. बस, तभी से दिल्ली में मेरा एक घर हो गया और बीकानेर-भीनासर में अनुपम जी का.
घर-बाहर मैं उनको अनुपम भैया कहता और वे मुझको शुभू भाई. हमारा यह भाईपा अन्त तक चलता रहा. शुरू के वर्षों में मेरा भी दिल्ली जाना लगा रहा और अनुपम का भीनासर (बीकानेर) आना. वे न होते तो प्रभाष जोशी, विष्णु चिंचालकर, महेंद्र कुमार (सप्रेस), अनिल अग्रवाल, रवि चोपड़ा, सुनीता नारायण, गाँधी शांति प्रतिष्ठान, गाँधी पीस सेंटर आदि से मेरा परिचय न होता. यह परिचय भी सामान्य परिचय न था. अधिकांश के साथ घरेलू सम्बन्ध बने.
स्वर्गीय प्रभाष जोशी तो जब भी बीकानेर आते, मेरी सह-धर्मिणी उषाजी को ऐसे आदेश देते जैसे वे ही इस घर के अग्रज हैं. अलबत्ता मैं अपनी मंजू भाभी से देवर-सा नहीं, गहरी औपचारिकता से बतियाता. बड़े भैया अमिताभजी, नंदिता जीजी से एक सहज दूरी रखता. हाँ, सरला अम्मा से पटती. वे माँ थीं और मैं बेटा. मैंने ‘मन्ना’ (अनुपम भाई के पिता) भवानी प्रसाद मिश्र को नहीं देखा. पर माँ से मेरी पटरी बैठ गई तो ‘मन्ना’ से भी बैठ ही जाती, ऐसा मैं सोचता.
वे देश के बड़े कवि थे और अनुपम उनके पुत्र थे, लेकिन उनका अपना व्यक्तित्व था. पिता की कोई छाप न अनुपम पर थी, न उस छाप को अनुपम ने भुनाया. वे बड़े कवि थे, अनुपम एक सुलझे हुए पर्यावरणविद! वे जानते थे कि जो कुछ देशज है, वही मेरी अपना है. वे कभी अपने को पर्यावरणविद कहलाना भी पसन्द नहीं करते थे. कहते थे कि हाँ, यह कह सकते हो कि मैं भी एक अदना-सा पर्यावरण कार्यकर्ता हूँ. ‘सप्रेस’ के चिन्मय मिश्र लिखते हैं कि वे क्या थे, क्या नहीं, सबके अपने विश्लेषण हो सकते हैं. पर एक बात तय है कि वे सभी के थे और उसके हिस्से नहीं किये जा सकते.
सचमुच वे सबके थे और इसके हिस्से नहीं किये जा सकते. एक घटना की याद मुझे सताती है. शुभम उनका बेटा, जो आज तो नौजवान हो गया है, पर तब 3-4 साल का रहा होगा. उसे अपनी पीठ पर चढ़ाए वे हमारे चारागाह से आ रहे थे और बतला रहे थे कि जंगल के सारे प्राणी उसके सखा हैं. हिरण, खरगोश, लोमड़ी, बिल्ली, कुत्ते और चूहे सबसे मित्रता रखनी है. तुम अगली बार यहाँ आओ, तो इनसे दोस्ती करना. इनके साथ खेलना. शुभम मुस्कुरा भर रहा था और मुझे लग रहा था कि पीठ पर लादे, अपने सयाने होते जा रहे बेटे को पर्यावरण का एक पाठ ही पढ़ा दिया अनुपम ने.
ऐसी ही एक-दो घटनाओं की याद ताजा हो रही है. हम दोनों खाना खाकर हटे कि थाली खींच कर उठाने लगे अनुपम. मैंने कहा, भैया रहने दो. सबके साथ ये भी मांजली जाएँगी. पर अनुपम रुकने वाले नहीं थे. बोलेः सब मिल-जुलकर काम करेंगे भैया. देखो, कितने बर्तन हो गए. अकेला एक प्राणी कैसे सब करेगा!!
ऐसी ही एक घटना और. अनुपम अल-सुबह उठे. मैं भी. देखता हूँ कि रात में चली आँधी ने बरामदे को रेत से भर दिया है और अनुपम झाड़ू से रेत साफ कर रहे हैं. मैंने टोका, यह क्या कर रहे हो भैया. आप छोड़ें, हमारे लिये मुसीबत खड़ी न करें. कल हमें भी यही करना पड़ेगा. अनुपम कहाँ छोड़ने वाले थे.
ऐसे थे अनुपम. आज जो मुखौटे हम देखते हैं, ऐसा कोई मुखौटा उनके तईं नहीं था. वे सचमुच अनुपम थे. अनुपम भैया. मेरे अपने.