प्रसंगवश

1984

कनक तिवारी
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपने संवैधानिक पद का लाभ उठाते हुए 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों की जांच के लिए विशेष जांच टीम बनाने की मांग की है. पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की उनके घर में सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा जघन्य हत्या किए जाने के बाद देश की राजधानी सहित कई शहरों में सिख विरोधी दंगे भड़के थे. इनमें निर्दोष सिखों की हत्याएं की गईं और उन्हें लूटा भी गया. कई सिखों को जान बचाने के लिए अपने केश भी कटवाने पड़े. लगातार उन कथित प्रायोजित दंगों की व्यापक जांच के लिए सिख संगठन आंदोलन कर रहे हैं.

शक की सुई कुछ कांग्रेस नेताओं जैसे सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर आदि पर भी ठहराई गई. न्याय और कानून की प्रक्रिया शिथिल गति से चलती रहती है. इस कारण भाजपा को अकाली दल का लगातार पुख्ता सहयोग भी मिल गया. दुविधा में फंसी कांग्रेस के लिए केजरीवाल ने नया हथियार चला है. इसे आगामी लोकसभा चुनाव के संदर्भ में समझा जा रहा है. दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि क्षेत्रों में सिख मतदाताओं का समर्थन मायने रखता है.

‘आप‘ के चुनाव घोषणापत्र में पहले ऐसा कोई उल्लेख नहीं था. अपने विवादास्पद बयानों तथा फैसलों के कारण ध्यान बंटाने के लिए भी केजरीवाल का यह नया पैंतरा है. ‘आप‘ के सिख विधायक विधानसभा के स्पीकर हैं और कांग्रेस विधायक दल के नेता अरविंदर सिंह लवली भी सिख हैं. इस मांग से भाजपा को अनुकूलता है. हो सकता है केजरीवाल जम्मू कश्मीर से दिल्ली में विस्थापित होकर रह रहे कश्मीरी पंडितों के लिए भी ऐसी ही कोई राजनीतिक मांग कर दें. वे केन्द्र-राज्यों के संबंध को लेकर भी भाजपा के दृष्टिकोण का समर्थन कर सकते हैं. ‘आप‘ के कुमार विश्वास ने तो राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान कर ही दिया है.

केजरीवाल लगातार घुड़की देते हैं कि उन्हें कांग्रेस के समर्थन की ज़रूरत नहीं है. उनकी पार्टी नरेन्द्र मोदी और आडवाणी के खिलाफ चुनाव लड़ने का कोई ऐलान नहीं करती, जबकि उम्मीदवारों की कमी नहीं है. संदेह होना स्वाभाविक है कि आम आदमी पार्टी अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते दिल्ली की सल्तनत को पुख्ता बनाए रखने के लिए भाजपा की बी टीम तो नहीं बनना चाहेगी. फिलहाल तो यही लगता है कि उसका भाजपा के साथ मैच फिक्स है.

यह अलग बात है कि उसके सदस्य प्रशांत भूषण कश्मीर में जिस मुद्दे को लेकर जनमत संग्रह की बात करते हैं उससे पार्टी अपने को अलग कर लेती है. भाजपाशासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश के कांग्रेसी प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया है और केजरीवाल ने भी नहीं. भाजपा ने भी पीली टोपी पहनना शुरू कर दिया है. लगता है सफेद और पीली टोपियां मिलकर कोई सियासी गुल खिला सकती हैं.

* उसने कहा है-2

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