कलारचना

अनीता सिंह की कवितायें

एक
तुम्हारी ये तस्वीर
जिसमे मुंह फेर के खड़े हो तुम
यूँ तो बारहा गुज़री है मेरी निगाहों से
बाज़वक़्त ना जाने क्यूँ
उस पर अटक अटक जाती है निगाह

इसमें चश्मे के भीतर से
झांकती आँखें
एक पर्दा है तुम्हारे मेरे बीच,पारदर्शी

इस परदे से गुरेज़ नहीं
शिकायत तो उन आँखों से है
जो परदे का सहारा ले
तकती हैं कहीं दूर, बहुत दूर

सच बताना इन आँखों में क्या है ??
चलो झूठ ही कह दो
के मेरी कोई तस्वीर है
जो ठीक इसी तरह बिंध गयी है.

दो
लगभग चीखती-सी
दिल को चीरती हुई
तुम्हारी वो अनकही
सुनी मैंने अभी-अभी
लेकिन जाने कैसा शोर बरपा है
इन दिनों हर तरफ ?

भीतर-बाहर का मौसम बड़ा सर्द है
कि तुम्हारी अबोली बातें
न सुन सका दिल
उफ्फ्फ़…कितने उदास
कितने हताश हुए होगे तुम
चीखने से ठीक पहले
कितना तड़पे होगे

जानते हो
अनजाने ही हुआ सब
कभी होता भी तो है कि
हम सुनने की हालत में
लिसनिंग मोड में नहीं होते

अब सुन ली है दिल ने
वो अनकही सदा तुम्हारी
अबोले की गलतफहमियां
अब नहीं होंगी इतना यकीन है
और यूँ भी अस्फुट स्वरों में
बिना कुछ कहे
जैसे दूर बैठे बतियाते हैं
हमेशा बतियाते रहेंगे हम !

तीन
किताबों की तरह
मुझे भी पढ़ते-पढ़ते
ख़ुद इक किताब हो गए हो
अल्फाज़ से भरपूर…मगर ख़ामोश
जिसे मुसलसल पढ़ने के इंतज़ार में
निरक्षर हो गई मैं.

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