जोगी होने का मतलब-अंतिम
दिवाकर मुक्तिबोध
फसल चक्र परिवर्तन
प्रशासनिक कसावट की चर्चा पर हम पहले कर चुके हैं. जवाबदेही तय होने की वजह से सरकारी कामकाज की गति तीव्र हुई और मामलों को लंबित रखने की प्रवृत्ति घटी. इसका फायदा जनता को मिला. जोगी ने सरकारी खर्चे पर भी नियंत्रण रखा और उन्होंने सार्वजनिक उपक्रम, निगम एवं संस्थाओं के रुप में सफेद हाथी ज्यादा नहीं पाले. खेत और किसान, खेतीहर मजदूर एवं आदिवासियों की समृद्धि उनकी प्राथमिकताएं थी.
उनके कार्यकाल में कृषि भी उन्नत हुई पर फसल के चक्रीय परिवर्तन का उनका फार्मूला नहीं चल पाया. वे चाहते थे, धान की फसल लेने के बाद 6 माह तक हाथ पर हाथ धरे बैठा किसान नगद फसलों की ओर प्रवृत्त हो ताकि उसकी आमदनी बढ़े लेकिन उनकी यह बात नहीं चल पाई क्योंकि परंपरागत कृषि से बंधे हुए किसान प्रयोग के लिए राजी नहीं हुए.
जोगी के बारे में यह कहा जाता है कि उन्होंने यदि अपनी कुछ कमजोरियों पर काबू पाया होता तो वे छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक शासन करते और उनकी राजनीतिक दूरदर्शिता एवं विद्वता का लाभ राज्य की जनता को, राज्य के सर्वागीण विकास के रुप में अधिक तेजी से मिलता. छत्तीसगढ़ को ऐसा प्रशासक चाहिए जो उसकी जरुरतों को समझते हुए कार्यों के निष्पादन में बला की तेजी दिखाए.
राज्य की अपनी सम्पदा अकूत है और उसे विकास के लिए केन्द्र पर पूर्णत: निर्भर रहने की जरुरत नहीं है. बशर्ते उसकी प्राकृतिक संपदा का भरपूर दोहन हो. छत्तीसगढ़ के गर्भ में लोहा, कोयला, बाक्साइट, टिन, लाइम स्टोन जैसे खनिजों का भंडार है. अकेले देवभोग की हीरा खदानें ही इस राज्य को सर्वाधिक समृद्धशाली बना सकती है.
छत्तीसगढ़ के हितों के संदर्भ में ही जोगी के राज में कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं जो उनकी चिंता, उनका जुझारुपन एवं दृढ़ता को रेखांकित करती है. इसमें प्रमुख है सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी बालको का निजीकरण. केन्द्र में सत्तारुढ़ तत्कालीन भाजपा सरकार के नीतिगत निर्णय के तहत भारत एल्यूमीनियम कंपनी (बालको) के 52 फीसदी शेयर स्टरलाइट को महज 550 करोड़ में बेच दिए गए. इस निर्णय का प्रबल विरोध करते हुए जोगी ने सड़क की लड़ाई लड़ी. यह अलग बात है, राजनीतिक कारणों से इस निर्णय को वे रोक नहीं सके. किन्तु इस मुद्दे पर उन्होंने जो दृढ़ता दिखाई, उसकी जमकर प्रशंसा हुई.
सत्ताधीश के रुप में जोगी के राजनीतिक जीवन में भूचाल लाने वाली घटनाओं में प्रमुख है राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता रामअवतार जग्गी की सन 2003 के चुनाव के चंद माह पूर्व हत्या. इस घटना से जोगी का कोई सरोकार नहीं था, यह बात अदालत में सिद्ध हो चुकी है पर इसने जनता के बीच आक्रोश की वह लहर पैदा की, जो अंतत: जोगी की सत्ता को तिरोहित कर गई.
जोगी को इसका आजीवन मलाल रहेगा कि वे अपने बेटे की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर अंकुश नहीं लगा सके और न ही प्रशासनिक कामकाज में उसके अप्रत्यक्ष दखल को रोक सके. जग्गी हत्याकांड में आरोपों के छींटे अमित जोगी पर भी उड़े हालांकि वे भी अदालत में आरोप मुक्त हो गए पर पुत्र मोह में फंसे जोगी अपयश से अपने दामन को नहीं बचा सके.
गलती दर गलती
कूटनीति के महारथी जोगी से उस समय भी गलती हुई जब 31 मार्च 2003 को उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि केन्द्र सरकार का गृह मंत्रालय कांग्रेस शासित राज्यों में चुनावी तैयारियों पर गुप्त निगाह रख रहा है.
इंटेलीजेंस ब्यूरो के दुरुपयोग के इस आरोप को अटल बिहारी सरकार ने बहुत गंभीरता से लिया और जांच के आदेश दिए. ‘ऑपरेशन ब्लेक सी’ के नाम से मशहूर इस कांड के संदर्भ में बाद में सीबीआई ने 7 अक्टूबर 2003 को श्री एमसी गुप्ता की अदालत में जोगी के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया. जांच में यह पाया गया कि जोगी ने अपने पत्र के साथ जो दस्तावेजी सबूत पेश किए थे, वे जाली थे. लिहाजा उन पर धोखाधड़ी और जालसाजी की धाराएं लगाई गई. प्रकरण अभी भी अदालत में विचाराधीन है पर चुनाव के ठीक पूर्व उठे इस प्रकरण ने भी जोगी को राजनीतिक रुप से क्षति पहुंचाई.
जोगी ने अपने शासन के दौर में विपक्ष को एकदम बौना तो बना ही दिया था, सार्वजनिक हितों के सवाल पर अहम फैसले लेने के पूर्व कभी उन्होंने विपक्षी दलों से विचार-विमर्श की जरुरत नहीं समझी. ऐसी कोई बैठक कभी नहीं बुलाई गई. और तो और भाजपा कार्यकर्ताओं पर लाठी चार्ज के विरोध में मुख्यमंत्री कक्ष में सांसद नंदकुमार साय के नेतृत्व में रात भर भाजपा विधायकों द्वारा दिए गए धरने का भी मुख्यमंत्री की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा. एक तरफ विपक्ष के साथ इतना निर्मम व्यवहार और दूसरी तरफ विकास के सवाल पर प्रदेश के स्कूली छात्रों को भी विश्वास में लेने की इच्छा.
जोगी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते ही 22 दिसंबर 2000 को राज्य के 16 जिलों के 80 मेधावी छात्रों को राजधानी में बैठक बुलाई और उनसे यह जानने की कोशिश की कि अगले एक दशक तक यानी सन 2010 में राज्य की शक्ल किस तरह की होनी चाहिए. यह एक अभिनव प्रयोग था क्योंकि युवा किस तरह का छत्तीसगढ़ बनाना चाहते हैं, यह उनके विचारों से प्रकट हुआ. इससे यह भी प्रतीत हुआ कि जोगी राज्य के विकास के प्रति बहुत गंभीर है और सबको साथ लेकर चलना चाहते हैं पर राजनीतिक निर्ममता अपनी जगह पर थी इसलिए उन्होंने विपक्ष को कभी विश्वास में लेने की जरुरत नहीं समझी बल्कि उसकी कमर तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी.
बहरहाल तमाम विसंगतियों के बावजूद इसमें दो राय नहीं कि जोगी बेहद जीवट है. ऐसी जीवटता उनके समकालीन किसी भी राजनेता में देखने नहीं मिलती. आधे शरीर से लाचार होने के बावजूद उन्होंने अपनी राजनीति को मरने नहीं दिया. सन 2004 में लोकसभा चुनाव के पूर्व जब एक दुर्घटना में उनका आधा अंग जवाब दे गया था, तब यह कहा जाने लगा था कि अब जोगी की राजनीति खत्म. व्हील चेयर पर बैठा आदमी कैसे प्रदेश राजनीति के शीर्ष पर बना रह सकता है? पर इन आशंकाओं को खारिज करते हुए जोगी ने अपना वर्चस्व बनाए रखा. प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में वे अभी भी महत्वपूर्ण बने हुए हैं.
कांग्रेस विधायक दल के अधिकांश सदस्य उन्हें अपना नेता मानते हैं और उन्हीं के निर्देश पर अपनी राजनीति करते हैं. प्रदेश कांग्रेस में उनका गुट ही सबसे बड़ा और सर्वाधिक शक्तिशाली है. स्थिति यह है कि एक तरफ विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, चरणदास महंत और धनेन्द्र साहू जैसे दिग्गज तो दूसरी ओर अकेले अजीत जोगी जो इन सब पर भारी. व्हील चेयर पर बैठे-बैठे जोगी ने दो चुनाव लड़े एक लोकसभा 2004 और विधानसभा 2008. दोनों चुनावों में उन्होंने अपने गुट का संचालन किया और बड़ी संख्या में चुनावी सभाएं की. यदि शरीर लाचार हो तो मन भी कमजोर पड़ने लगता है लेकिन जोगी में गजब का आत्मबल है. उन्होंने अपनी राजनीतिक हैसियत को कम नहीं होने दिया. निश्चय ही राजनीति में ऐसे लोग बिरले ही होते हैं.
निष्कर्ष के तौर पर, जिसकी चर्चा आमजनों में भी होती है, यह कहा जा सकता है कि यदि जोगी में सकारात्मक शक्तियां प्रबल होती और यदि उन्होंने अपनी कमजोरियों को परख कर उन पर काबू पाया होता तो वे लंबे समय तक छत्तीसगढ़ पर शासन करते. अगरचे ऐसा होता आज शायद छत्तीसगढ़ की विकासपरक छवि अधिक उजली और प्रेरणास्पद होती.
समाप्त
*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.