आर पार की लड़ाई में अजीत जोगी
दिवाकर मुक्तिबोध
छत्तीसगढ के प्रथम मुख्य मंत्री अजीत जोगी अपने राजनीतिक जीवन के आखिरी पड़ाव पर हैं. इसी साल नवंबर- दिसंबर में राज्य विधानसभा का चुनाव संभवत: उनका आखिरी चुनाव होगा. हालाँकि अगले वर्ष मई-जून में प्रस्तावित लोकसभा चुनाव में भी वे किस्मत आजमा सकते हैं लेकिन यह बहुत कुछ विधानसभा चुनाव के परिणामों पर निर्भर करेगा. पर यह तय है कि राजनीति के संदर्भ में अगले कुछ महीने उनके लिए आर या पार की इबारत लिख देंगे.
उन्होंने मुख्यमंत्री रमन सिंह के खिलाफ राजनांदगाँव से चुनाव लडऩे की घोषणा की है. वे एक और सीट से चुनाव लड़ेंगे. वह सीट कौन सी होगी, स्पष्ट नहीं है. पर यह जाहिर है, वे हर सूरत में विधानसभा में पहुँचना चाहते है. राजनांदगाव तो नहीं, अलबत्ता जिस किसी निर्वाचन क्षेत्र से वे लड़ेंगे जीत की शत -प्रतिशत संभावना रहेगी. जोगी 72 के हो चुके हैं.
पिछले 15 वर्षों से वे व्हील चेयर पर हैं, उनकी जीवटता, इच्छा -शक्ति बेमिसाल है, प्रदेश में वे लोकप्रियता के मामले में रमन सिंह को टक्कर देते है. उनकी जमीनी पकड़ मजबूत हैं, अपने भाषणों के मोहपाश से लोगों बाँधने की कला में उनका कोई मुक़ाबला नहीं हैं तथा अशक्तता के बावजूद वे निरंतर लोगों के सम्पर्क में रहते है, तेज दौरे करते हैं. किन्तु अब ऐसा प्रतीत होता है कि शारीरिक स्वास्थ्य व राजनीतिक परिस्थितियां उनकी कवायद पर पूर्ण विराम लगा सकती हैं. इससे मुकाबला करने उनके पास महज चंद महीने हैं. कितना कर पाएँगे, यह समय ही बताएगा. फिलहाल यह ज़रूर कहा जा सकता है कि यदि वे विधानसभा चुनाव में कोई चमत्कार नहीं दिखा पाए तो देर-सबेर सक्रिय राजनीति को उन्हें अलविदा कहना ही होगा.
अजीत जोगी ने सक्रिय राजनीति से हटने के लिए 60 वर्ष की उम्र तय की थी. जाहिर है, भावावेश में की गई इस घोषणा का कोई मतलब नहीं था क्योंकि आम तौर पर जब तक जनता कूड़ेदान में नहीं फेंक देती तब तक राजनीति से मोह नही छूटता. बहरहाल इस 60 को बीते 12 साल हो गये हैं. वे सक्रिय राजनीति में बने हुए हैं तथा अभी भी मुख्यमंत्री बनने लालायित हंै. उनका इरादा राजनीति से संन्यास लेने का नहीं है. वे घोषणा कर चुके हैं कि यदि उनकी पार्टी, छत्तीसगढ जनता कांग्रेस को बहुमत मिला तो वे ही मुख्यमंत्री बनेंगे.
यह उनका दिवास्वप्न भी हो सकता है और एक हद तक हकीकत भी. क्योंकि राज्य के चौथे चुनाव न तो भाजपा के लिए आसान है और न ही कांग्रेस के लिए. कांग्रेस के लिए संभावनाएँ और भी उजली हो सकती थी बशर्ते जोगी कांग्रेस मैदान में न होती या फिर दोनों कांग्रेस के बीच चुनावी गठजोड़ हो जाता जिसकी सम्भावना कांग्रेस की ओर से ख़त्म कर दी गई है. इस स्थिति में यदि कांग्रेस व भाजपा दोनों सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत से कुछ कदम दूर रह गईं तो जोगी का टेका लेना ही होगा. बशर्ते वे कुछ सीटें जीतकर लाएं. और जोगी कितने बड़े सौदेबाज हैं यह उनके वर्ष 2000 से 2003 तक मुख्यमंत्री रहते सिद्ध हो चुका है. तब एक मुश्त 12 भाजपा विधायकों के कांग्रेस प्रवेश की राजनीतिक घटना को कौन भूल सकता है.
प्रदेश कांग्रेस का यह दुर्भाग्य रहा है कि ऐन मौकों पर उसे अपनों ने ही मात दी. वरिष्ठ नेताओं के अहंकार का टकराव पार्टी को बहुत पीछे ले गया. कांग्रेस के दिग्गज व प्रभावशाली नेता विद्याचरण शुक्ल अलग-अलग कारणों से अंदर-बाहर होते रहे. अहंवाद को दरकिनार रख यदि 2003 के विधान सभा चुनाव में विद्याचरण शुक्ल के प्रादेशिक नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ कांग्रेस का चुनावी तालमेंल हो गया होता तो भाजपा सत्ता में नहीं आ सकती थी. एनसीपी ने लगभग 7 प्रतिशत वोट लेकर कांग्रेस के रास्ते बंद कर दिये. यह विशुद्ध रूप से कांग्रेस के आंतरिक कलह व गुटबाजी से कही अधिक आपसी द्वेष का परिणाम था जिसने दोनों कांग्रेस को एक मंच पर आने नही दिया.
शुक्ल को विश्वास था कि सरकार वे ही बनाएँगे पर उन्हें सिर्फ एक सीट मिली. वे खुद बहुमत से कोसो दूर रहे पर उन्होंने कांग्रेस की सरकार नहीं बनने दी. अब पुन: वहीं स्थिति नजर आ रही है. इस बार कांग्रेस के वोट-बैंक में सेंध लगाने के लिए अजीत जोगी मौजूद हैं. अजीत जोगी जो कांग्रेस का बीता हुआ बड़ा चेहरा है, चुनावी समीकरण बिगाडऩे की हैसियत रखते हैं. लेकिन इस तथ्य को भलीभाँति समझने के बावजूद कांग्रेस बसपा के साथ तो सीटों के तालमेंल के लिए तैयार है, बातचीत भी जारी है पर वह अजीत जोगी की पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती.
प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल जोगी को पसंद नहीं करते और यही स्थिति जोगी की भी है. भूपेश बघेल और अजीत जोगी. इसके पूर्व अजीत जोगी व विद्याचरण शुक्ल. संगठन से बड़ा अहम् नेताओं का रहा है. तब भी था, अभी भी है. प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता यह समझने के लिए तैयार नहीं है कि किन्हीं कारणों से बिरादरी से बाहर हुआ धड़ा चुनाव में अंतत: पार्टी की संभावनाओं को कमतर करता है. और वोटों के विभाजन का फ़ायदा भाजपा को मिलता है. 2018 के चुनाव के पूर्व यदि रमन सिंह छत्तीसगढ जनता कांग्रेस को तीसरी शक्ति कह रहे है तो इसके पीछे चुनाव समीकरणों का गणित छिपा हुआ है.
जोगी की पार्टी जितनी मज़बूत होगी, उतना ही उसका फायदा भाजपा को मिलेगा. वैसे भी रमन-जोगी के बीच बरसों से चली आ रही नूरा कुश्ती अब बंद आँखों को भी दिखाई देने लगी है. जाहिर है, मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों से अजीत जोगी को बड़ा फायदा है. संगठन को जिंदा रखने के लिए जरूरी है, सत्ता का लाभ मिले. और चुनाव में तो इसकी ज़्यादा ज़रूरत होती है.
बहरहाल आगामी विधान सभा चुनाव के नतीजे जोगी एवम् उनकी पार्टी का भविष्य तय कर देंगे. वह तीसरी राजनीतिक शक्ति है कि नहीं, यह भी साबित हो जाएगा. पर एक सवाल बना रहेगा कि उनके बाद पार्टी का क्या होगा? क्या सबल नेतृत्व के अभाव में वह मरणासन्न हो जाएगी या नया व और ज्यादा मज़बूत नेतृत्व उभरेगा जिसकी जनता में स्वीकार्यता रहेगी. इनका जवाब भविष्य ही देगा. अभी तो यही प्रतीत होता है कि अजीत जोगी है तो पार्टी है.
* लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.