जोगी बिना कांग्रेस
दिवाकर मुक्तिबोध
प्रदेश में आदिवासी नेतृत्व के असफल अभियान के बाद अजीत जोगी की अब आगे की रणनीति क्या होगी? क्या वे पार्टी हाईकमान द्वारा की जा रही उपेक्षा को बर्दाश्त करेंगे या प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में अपने वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने के लिए नई कोशिश करेंगे.
जोगी का जैसा मिजाज है, उसे देखते हुए यह सोचना मुश्किल है कि वे खामोश बैठे रहेंगे और प्रदेश कांग्रेस के नए नेतृत्व के सामने कोई चुनौती पेश नहीं करेंगे. दरअसल यह उनकी राजनीतिक शक्ति के पराभव का प्रश्न है, इसलिए उनकी पहली कोशिश होगी अपने ताकत को बनाए रखना तथा अपने गुट को छिन-भिन्न होने से बचाना. अत: इसके लिए जरुरी होगा प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ अघोषित ‘युद्ध’ को जारी रखा जाए. जोगी इसी रणनीति पर कार्य करेंगे ताकि अपने खेमे को इसी नवंबर में होने वाले राज्य विधानसभा के चुनाव के पूर्व सौदेबाजी की स्थिति में खड़ा किया जा सके. वे इसमें कामयाब होंगे या नहीं, अलग प्रश्न है अलबत्ता प्रदेश कांग्रेस की नई कार्यकारिणी के जरिए संदेश दे दिया गया है कि हाईकमान उन्हें सीमित दायरे में रखना चाहता है इसीलिए उनके पर कतर दिए गए हैं.
इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं के बीच जोगी की अलग शख्सियत है जो उन्हें भीड़ से अलग करती है. उनके जैसा धाकड़ रणनीतिकार, कूटनीतिक और चालाक राजनीतिक प्रदेश कांगे्रस में कोई दूसरा नहीं है. यह भी सही है कि उनकी जमीनी पकड़ भी सबसे मजबूत है. वे वास्तविक जननेता हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि वे जहां भी खड़े रहते हैं, लाइन वहीं से शुरु होती है. एक प्रखर वक्ता के रुप में भी उनकी छवि अद्वितीय है. वे ग्रामीण जनसभाओं में प्राय: छत्तीसगढ़ी में भाषण करते हैं. राज्य की ग्रामीण जनता उन्हें पसंद करती है. अलबत्ता शहरों का एक बौद्धिक तबका उनसे खौफ खाता है.
इस वर्ग को यह डर है कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो जोगी को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक रोक पाना मुश्किल होगा और कांग्रेस उसी तानाशाही के दर्शन होंगे जो 2001 से 2013 के बीच, खासकर 2003 में चरम पर थी. लेकिन इस दोहरी जनछवि के बावजूद जोगी ने अपनी जो राजनीतिक शक्ति 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद भी कायम रखी है, वह अद्भुत है विशेषकर ऐसी परिस्थिति में जब उनका लगभग आधा शरीर सुन्न है और वे कुर्सी पर बैठे बैठे राजनीति करते हैं. उनकी ताकत का यह आलम है कि वे एक तरफ तथा पूरा संगठन खेमा दूसरी तरफ. यानी पूरी की पूरी कांग्रेस जिनका नेतृत्व मोतीलाल वोरा, चरणदास महंत, रविंद्र चौबे और दिवंगत विद्याचरण शुक्ल, महेंद कर्मा व नंदकुमार पटेल जैसे शीर्ष नेताओं के हाथ में रहा है.
जीरम घाटी घटना के बाद जिसमें नक्सली हमले में शुक्ल, पटेल, कर्मा, सहित 30 लोग मारे गए थे, हाईकमान का जोगी के प्रति रुख बदलना शुरु हुआ. इसका संकेत चरणदास महंत के पहले कार्यकारी अध्यक्ष एवं बाद में पूर्णकालिक अध्यक्ष बनने से मिलता है. दरअसल जीरम घाटी घटना में कोंटा के विधायक एवं जोगी के कट्टर समर्थक कवासी लखमा को हमलावर नक्सलियों द्वारा अभयदान देने से जोगी गुट शक के दायरे में आ गया और इसका खासा नुकसान अजीत जोगी को हुआ.
रही कसी कसर इसी जून में दिग्विजय सिंह के चार दिन छत्तीसगढ़ दौरे ने पूरी कर दी. उनके इस दौरे से जोगी विरोधी संगठन खेमे को नई ताकत मिली. जोगी इस दौरे से कितने भयभीत थे, इसका उदाहरण इस बात से मिलता है कि उन्होंने सार्वजनिक रुप से कहा कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस के बाहरी नेताओं की जरुरत नहीं है. उनका इशारा दिग्विजय सिंह की ओर था. इस घटना के बाद केशकाल नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में जोगी समर्थक उम्मीदवार की ऐन वक्त पर टिकिट काट दी गई तथा दिल्ली में राहुल गांधी द्वारा कांग्रेस जिलाध्यक्षों की बैठक में कवासी लखमा को नहीं बुलाया गया. मर्माहत जोगी को अहसास हो गया कि कांग्रेस हाईकमान के इशारे पर उनकी उपेक्षा की जा रही है इसलिये दबाव बनाने के अपने अंतिम अस्त्र के रुप में उन्होंने प्रदेश कांग्रेस में आदिवासी नेतृत्व का बिगुल फूंका और इसके लिए अभियान शुरु किया लेकिन दाल नहीं गली.
हाईकमान ने पिछड़े वर्ग के प्रतिनिधित्व को तरजीह देते हुए चरणदास महंत को पूर्णकालिक अध्यक्ष घोषित किया. आदिवासी नेतृत्व की मांग को खारिज करने के साथ ही हाईकमान ने प्रदेश पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी की घोषणा कर दी जिसमें जोगी समर्थकों को अपेक्षित महत्व वहीं मिला. संकेत स्पष्ट थे कि प्रदेश कांग्रेस में वही होगा जो संगठन खेमा चाहेगा. जोगी को आईना दिखा दिया गया.
प्रदेश कांग्रेस के ताजा घटनाक्रमों के तहत जोगी की हाल ही में राहुल गांधी एवं सोनिया गांधी से मुलाकात महत्वपूर्ण है. 29 जुलाई को नई दिल्ली में राहुल गांधी के साथ उनकी मुलाकात काफी लंबी चली. दो दिन बाद 31 जुलाई को सोनिया गांधी से भी जोगी मिले. इन मुलाकातों के राजनीतिक निहितार्थ है. यद्यपि इन बैठकों में हुई बातचीत का खुलासा नहीं हुआ है पर समझा जाता है कि प्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियों एवं चुनाव की संभावनाओं पर बातचीत के साथ – साथ जोगी को यह समझाईश दी गई होगी कि उन्हें संगठन खेमे के साथ मिलकर काम करना चाहिए ताकि कार्यकर्ताओं के बीच अच्छा संदेश जाए तथा उनका उत्साह बढ़े. जोगी इस सलाह को कितना आत्मसात करेंगे यह आगे की बात है. फिलहाल जोगी को अब सबसे बड़ी चिंता अपने गुट को एकजुट रखने की है क्योंकि परिस्थितियों को भांपते हुए उनके समर्थक, विधायक एवं नेता एक – एक करके छिटकते जा रहे हैं और पूर्व की तुलना में जोगी को शक्ति क्षीण हुई है.