खेती की उम्मीदें
देविंदर शर्मा
लोग बरसों से मुझसे पूछते आ रहे हैं कि बीतने वाला यह साल खेती के लिए किस लिहाज से खराब था और आने वाले साल में ऐसा क्या किया जाए जो कृषि क्षेत्र को नई उम्मीदों से भर दे. नई सरकार के लिए क्या कृषि एजेंडा होना चाहिए? मुसीबतों में घिरे किसानों को उबारने के लिए सरकार की रणनीति और दृष्टिकोण क्या होने चाहिए? हम जानते हैं कि भारत किसी भी कीमत पर अपनी खाद्य आत्मनिर्भरता से समझौतानहीं करेगा, लेकिन इसे सुनिश्चित करने के लिए कई अल्प अवधि और दीर्घ अवधि उपाय करने होंगे.
भारतीय कृषि इस समय भयानक संकट से गुजर रही है. यह संकट मूलत: स्थिरता और आर्थिक व्यावहारिकता का है. इसकी भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पिछले 21 बरसों में कर्ज के बोझ तले दबे लगभग 3.2 लाख किसानों ने आत्महत्या करना बेहतर समझा. महाराष्ट्र में ही बीते 17 बरसों में 23 हजार से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इसी दौरान पंजाब में भी 16 हजार किसान अपनी जानें दे चुके हैं. किसानों की आत्महत्याओं में तीव्र वृद्धि और किसानों द्वारा स्वेच्छा से खेती छोड़ने की प्रवृत्ति घटना की गंभीरता का अहसास दिलाने के लिए काफी है.
गुजरात चुनावों ने दिखा दिया है कि किसान अब इसे मूकदर्शक बनकर नहीं देखते रहेंगे. उन्होंने वोट के जरिए अपने गुस्से का इजहार किया है. मैं उम्मीद करता हूं कि गुजरात के किसानों ने जो नाराजगी दिखाई हैवह देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले चुनावों में भी झलकेगी. तभी सत्तारुढ़ दल मानेंगे कि गांवों में गलत हो रहा है.
गुजरात नतीजों ने लोगों का ध्यान आने वाले बजट की तरफ खींचा है, अब उम्मीद की जा रही है कि वित्त मंत्री अरूण जेटली कुछ ऐसे साहसिक कदमों का ऐलान करेंगे जिनसे ग्रामीण क्षेत्रों में चले आ रहे संकट का समाधान हो सकेगा. ऐसे में मुझसे पूछा जा रहा है कि सरकार को कृषि संकट समाप्त करने के लिए कौन से कदम उठाने चाहिए. मुझे नहीं लगता कि कृषि क्षेत्र का काम मामूली मरहम-पट्टी से लगाने से चलेगा. इसकेलिए जरुरी है कि आर्थिक नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन किया जाए और पूरा ध्यान खेती पर केंद्रित किया जाए.
1. किसानों को हर महीने एक निश्चित आमदनी मुहैया कराई जाए. आर्थिक सर्वे 2016 के मुताबिक, भारत के 17 प्रदेशों या कहा जाए आधे देश में एक किसान परिवार की औसत आय 1700 रूपये प्रति माह से भीकम है. हम किसानों की उपेक्षा नहीं कर सकते, ये किसान ही कृषि, बागवानी और डेयरी उत्पादों के जरिए देश की आर्थिक संपन्नता को बढ़ाते हैं. अब समय आ गया है कि इन्हें इनकी मेहनत का वाजिब हकमिले.
मेरा सुझाव है कि सरकार को राष्ट्रीय कृषक आय आयोग का गठन करना चाहिए. इस आयोग के पास अधिकार होना चाहिए कि वह किसी किसान परिवार की आय का अनुमान उसके उत्पादन और उसके खेतोंकी भौगोलिक स्थिति के हिसाब से लगा सके. मेरा यह भी सुझाव है कि एक नए आयोग का गठन करने की जगह पहले से मौजूद कृषि लागत एवं कीमत आयोग (सीएसीपी. का नाम बदल कर कृषक आय एवंकल्याण आयोग कर दिया जाए. साथ ही उसे इस बात का अधिकार दिया जाए कि वह किसानों के लिए न्यूनतम आय की भी गणना करे.
2. कीमतें तय करने की नीतियों के दिन अब खत्म हुए. हर बार जब न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाए जाते हैं तो खाद्य मुद्रास्फीति पर इसके असर को लेकर सवाल उठते हैं. बाली में आयोजित विश्व व्यापार संगठन केमंत्रिस्तरीय सम्मेलन में पहले ही न्यूनतम समर्थन मूल्य के जरिए किसानों को मुहैया कराई जाने वाली सब्सिडी पर ऐतराज जताया जा चुका है. मूल्य निर्धारित करने वाली नीति की जगह आय निर्धारित करने वालीनीति की ओर बढ़ने का यह सही समय है. किसान अपनी उपज बेचकर जो कीमत पाता है उसे उसकी आय नहीं मानना चाहिए. इसीलिए मैं किसान के लिए एक निश्चित आय की मांग कर रहा हूं.
हमें नहीं भूलना चाहिए कि अगर महंगाई बढ़ रही है तो वह किसानों के लिए भी तो बढ़ रही है. बढ़ती महंगाई से निबटने के लिए हर छ: महीने पर सरकारी कर्मचारी को महंगाई भत्ता मिलता है, प्रत्येक कुछ वर्षों पर उसके वेतन कोफिर से तय करने के लिए वेतन आयोग का गठन होता है. लेकिन किसानों को केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य से संतोष करना पड़ता है, और उससे भी उसे कोई लाभ नहीं मिलता.केरल में एक दिलचस्प शोध किया गया. जिसमें अनुमान लगाया गया कि अगर धान की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी को सरकारी अधिकारियों के वेतन में होने वाली वृद्धि के अनुपात में रखा जाता तो धान की कीमतें 2005 में 2669 रूपये प्रति क्विंटल होनी चाहिए थीं, जबकि आज भी यह महज 1450 रूपये प्रति क्विंटल हैं. दूसरे शब्दों में धान के किसानों को 2017 में उस कीमत की आधी राशि मिल रही है जो उन्हें आज से 12 साल पहले मिलनी चाहिए थी.1.3 अरब लोगों को किफायती दरों पर भोजन उपलब्ध कराने का जिम्मा सिर्फ किसानों के कंधों पर नहीं होना चाहिए. समाज को भी यह बोझ उठाना होगा.
3. देश भर की मंडियों के नेटवर्क को तुरंत मजबूत करने की जरूरत है. ये मंडियां किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए एक मंच उपलब्ध कराती हैं. इन्हें बाजार के भरोसे छोड़ देने से किसानों को अपनी उपज मजबूरी में कम दाम पर बेचनी पड़ेगी. पिछली बार पंजाब के किसानों को गेहूं का समर्थन मूल्य प्रति क्विंटल 1625 रूपये मिला. बिहार में चूंकि कृषि उत्पाद बाजार समिति अधिनियम लागू नहीं है इसलिए किसानों को अपनी उपज के महज 1200 से 1400 रूपये प्रति क्विंटल ही मिल पाए. इधर लागत एवं कीमत आयोग (सीएसीपी. पंजाब सरकार पर जोर डाल रहा है कि वह अपने यहां मंडियों को खत्म करके बाजार को अपना काम करने दे. इसका मतलब है कि पंजाब के किसानों की भी हालत बिहार के किसानों जैसी हो जाएगी, जबकि होना चाहिए इसका उलटा. हमें और मंडियों की जरुरत है जिनकी बागडोर कृषि उत्पाद बाजार समिति के हाथ में हो.
4. हमारे देश ने दूध जैसे जल्द खराब होने वाले उत्पाद के लिए बेहतरीन मार्केटिंग नेटवर्क बनाने में कामयाबी पाई है, इसलिए मुझे नहीं लगता कि इसी तरह का नेटवर्क फल और सब्जियों के लिए नहीं बनाया जा सकता. अगर नेशनल डेयरी डवलेपमेंट प्रोग्राम के जरिए एक-एक गांव से दूध इकट्ठा करके, अंतत: सहकारी इकाइयों के माध्यम से शहरी उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराया जा सकता है तो क्यों नहीं भारत में फल, सब्जियों और दूसरे कृषि उत्पादों के लिए मार्केटिंग चेन बनाई जा सकतीं.
5. सहकारी कृषि को बढ़ावा देने की जरुरत है. सहकारी समितियों को और स्वतंत्र, और असरदार बनाने के लिए जरुरी कानून बनाने होंगे. डेयरी फार्मिंग में अमूल की सहकारी समितियों के अनुभव से लाभ उठाकर सब्जी और फलों के लिए भी उसी तरह की व्यवस्था विकसित करने की जरुरत है. मैं जैविक खेती करने वाले ऐसे छोटे किसानों को जानता हूं जिन्होंने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है.
उनका तरीका बाकी फसलों में क्यों नहीं लागू किया जा सकता? लेकिन इसकी जगह केंद्र सरकार अनुबंध खेती या कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग को बढ़ावा दे रही है. उसने एक मॉडल कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग कानून भी तैयार किया है, और चाहती है कि राज्य सरकारें भी ऐसा ही करें. बाजार की आधारिक संरचना भी कमोडिटी ट्रेडिंग के हिसाब से तैयार की जा रही है.
6. गांवों को खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर बनाना होगा. जनता की भोजन आवश्यकता को खेती से जोड़ना होगा. छत्तीसगढ़ ने खेती और खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करके बेहतरीन उदाहरण पेश किया है. उसने स्थानीय उत्पादन, स्थानीय खरीद-फरोख्त और स्थानीय वितरण पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. फिलहाल यह बहुत सफल नहीं है लेकिन पूरे देश में इसी तरह से काम करने की जरुरत है.
इसके लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम में संशोधन करने की आवश्यकता है. ग्रामीणों को हर महीने 5 किलो गेहूं/चावल/बाजरा उपलब्ध कराने की जगह सरकार का जोर इस बात पर होना चाहिए कि गांववाले अपनी खाद्य सुरक्षा जरुरतों की जिम्मेदारी खुद उठाएं. इससे खाद्य सुरक्षा के नाम पर दी जाने वाली सब्सिडी में कमी आएगी. हर साल राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए ऐसा करना जरुरी भी है. ऐसे कार्यक्रमों से ही धीरे-धीरे भूख के खिलाफ लड़ाई में हमें जीत हासिल हो सकेगी.
7. देश के जिन हिस्सों में हरित क्रांति हुई थी वे आज संकट से गुजर रहे हैं. इन इलाकों में मिट्टी की उर्वरता खत्म हो गई है, भूजल और नीचे चला गया है, वातावरण रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों की वजह से प्रदूषित हो गया है. ये सारे दुष्प्रभाव समूची खाद्य श्रंखला और सेहत पर दिखाई देने लगे हैं. सरकार को चाहिए कि वह एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाकर कीटनाशक रहित खेती की तकनीकों को बढ़ावा दे.
आंध्र प्रदेश के 35 लाख एकड़ क्षेत्र में किसी तरह का रासायनिक कीटनाशक प्रयोग नहीं किया जाता. किसानों ने करीब 20 लाख हेक्टेयर इलाके में रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया है. नतीजे में उत्पादन बढ़ गया है, कीटनाशकों से होने वाला प्रदूषण कम हुआ है, फसलों पर होने वाले कीटों के हमले भी कम हुए हैं. सबसे अहम बात यह है कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे कम होने से खेती से होने वाली आय में 45 पर्सेंट का इजाफा हुआ है. इस इलाके में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. आज जरुरत है कि इसी तरह की व्यवस्था स्थानीय जरुरतों के हिसाब से फेरबदल के बाद पूरे देश में लागू की जाए.
8. खेती, डेयरी, वानिकी और मछली पालन को एक कर दिया जाए. कृषि में वृद्धि सिर्फ खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी के रुप में न देखी जाए बल्कि इसे पूरे गांव के पारिस्थितिकी तंत्र के संदर्भ देखा जाना चाहिए. इसके लिए खेती में रासायनिक कीटनाशकों और उर्वरकों का कम से कम इस्तेमाल करना होगा. परिणामस्वरुप इससे पर्यावरणीय नुकसान भी कम से कम होगा.
9. बाहर से भोजन आयात करने का मतलब है बेरोजगारी को आयात करना. हाल ही में हिमाचल प्रदेश के सेब उगाने वालों ने आयातित सेबों पर आयात शुल्क कम करने का विरोध किया है. इनकी वजह से बाजार में स्थानीय सेबों के खरीदार नहीं रह गए हैं और उनके दामों में भी भारी गिरावट आई है. यही हाल दूसरी फसलों जैसे तिलहन, दाल, गेहूं और मसालों का है. सरकार को चाहिए कि वह कृषि, बागान और डेयरी उत्पादों पर आयात शुल्क बढ़ा दे और मुक्त व्यापार समझौतों के दबाव के आगे घुटने टेकना बंद कर दे.
उसे यूरोपियन यूनियन की वह मांग नहीं माननी चाहिए जिसके तहत सरकार से कहा जा रहा है कि वह फल, सब्जियों और डेयरी उत्पादों पर आयात शुल्क घटाए. जानकारों का कहना है कि बिना सोचे मुक्त व्यापार समझौतों और दोपक्षीय समझौतों का पालन करने से देश का नुकसान हुआ है. अब समय आ गया है कि व्यापार संधियों पर फिर से विचार हो और घरेलू कृषि क्षेत्र की रक्षा की जाए, जिससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी जुड़ी है.
10 . निश्चित रुप से मौसम में होने वाले बदलाव का असर खेती पर पड़ेगा. बजाय इसके कि हम अपने किसानों को मौसम में होने वाले बदलावों से मुकाबला करने में सक्षम बनाएं, हमारी प्राथमिकता ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने की होनी चाहिए. चूंकि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में खेती का 25 फीसदी योगदान होता है, इसलिए खेती में रासायनिक खादों और कीटनाशकों का कम से कम प्रयोग होना चाहिए.
हमें आंध्र प्रदेश मॉडल की खेती अपनाने की जरुरत है जिसमें कीटनाशकों का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं होता. इसके अलावा फसल पद्धति में भी बदलाव की जरूरत है. मसलन, देश के सूखाग्रस्त इलाकों में ऐसी संकर फसलें उगाई जा रही हैं जिन्हें सामान्य किस्मों से दोगुने पानी की जरुरत होती है. यह तो साधारण समझ की बात है कि जिन क्षेत्रों में खेती बारिश पर आधारित होती है वहां ऐसी फसलें उगाई जानी चाहिए जो कम पानी में हो जाएं. ध्यान देने की बात है कि देश का 65 फीसदी खेती योग्य क्षेत्र ऐसा ही है. लेकिन वास्तविकता इसके उलट है इसलिए जब बारिश देर से होती है तो कृषि संकट और गंभीर हो जाता है.
यह बात मेरी समझ से बाहर है कि राजस्थान जैसे अर्द्ध मरूस्थल इलाकों में पानी का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने वाली गन्ना, कपास और चावल जैसी फसलें क्यों उगाई जा रही हैं. जब एक किलो मेंथा का तेल पाने के लिए 1.25 लाख लीटर पानी खर्च होता है तो बुंदेलखंड में मेंथा क्यों उगाया जाता है. राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्यों नहीं दालें, तिलहन और बाजारा उगाया जाता? सरकार किसानों को ऐसी फसलें उगाने के प्रोत्साहित क्यों नहीं करती? अगर वह इनकी ऊंची कीमत तय करे तो किसान अपनी मर्जी से इस फायदेमंद फसल पद्धति को अपनाने लगेंगे.
11. खाद्यान्नों की भंडारण व्यवस्था भयावह है. 1979 में सरकार ने वादा किया था कि वह देश में 50 जगहों पर अन्न के भंडार स्थापित करेगी. नई सरकार की यह प्राथमिकता होनी चाहिए. अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए.