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बजट : क्यों नहीं बदलती किसान की किस्मत?

देविंदर शर्मा
पिछले 25 सालों में लगभग हर वित्त मंत्री ने, अपने बजट की शुरुआत भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर देकर की है. ‘किसान की आजादी’ से लेकर ‘देश की अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा’ तक, बजट प्रस्तावों के मूल बिंदु को उजागर करने के लिए कई विशेषणों का इस्तेमाल किया गया है.

अरुण जेटली ने कृषि आय बढ़ाने की बात की थी और इसे सरकार की पांच प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा था.

निर्मला सीतारमण ने भी अपनी नौ प्राथमिकताओं में, कृषि को प्रमुख स्थान देकर इसे उचित मान्यता दी है.

ज़ाहिर है, लगभग हर बजट में कृषि को बढ़ावा देने से अब तक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बदलाव आ जाना चाहिए था. लेकिन कृषि पर इतना ध्यान देने के बावजूद एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि कृषि सुधार की राह पर है.

असल में ऐसा इसलिए है क्योंकि इस उम्मीद में कि किसान को बेहतर कीमतें और आय मिलेगी, हमारा पूरा ध्यान कृषि में अंतर्निहित जोर, फसल उत्पादकता बढ़ाने पर रहा है. लेकिन इस सोच के कारण कृषि संकट केवल बढ़ा ही है.

यदि सफल हरित क्रांति और तमाम बजटीय सहायता के बाद भी एक कृषक परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये के आसपास बनी हुई है, तो कृषि पर गंभीर संकट से इनकार नहीं किया जा सकता है.

यहां हम कुछ तथ्यों को एक बार देखते हैं- एक आधिकारिक अनुमान के अनुसार, कर्नाटक में पिछले 15 महीनों में 1,182 किसानों की आत्महत्या से मौत हो गई है. महाराष्ट्र में, इस साल जनवरी से जून के बीच 1,267 किसानों ने अपनी जान ले ली, जिसमें अकेले विदर्भ के अमरावती संभाग में 557 मामले सामने आए.

किसानों की आत्महत्या कोई नई घटना नहीं है.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी द्वारा संकलित आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले 27 वर्षों में किसानों की आत्महत्याओं की संख्या चौंका देने वाली है. यह अवधि कृषि के लिए 25 वर्षों की बढ़ी हुई बजटीय प्रतिबद्धताओं के साथ मेल खाती है.

1995 से 2014 के बीच, सीधे शब्दों में कहें तो 1995 से 2022 के बीच करीब चार लाख किसानों ने आत्महत्या की है और वह भी ऐसे समय में जब सालाना बजट में कृषि को बेहतर बनाने का वादा किया जा रहा है. बजटीय आवंटन और जारी कृषि संकट के बीच का अंतर साफ दिखाई दे रहा है.

तेलंगाना अब कृषि ऋण माफी के दूसरे चरण में है. यह 6.4 लाख किसानों के 6,198 करोड़ रुपये के बकाया ऋण माफ करने की प्रक्रिया में है, जिसमें प्रत्येक ऋणी किसान को 1.5 लाख रुपये की छूट दी जा रही है.

पहले चरण में 11.34 लाख किसानों को उनके बैंक खातों में 6,190 करोड़ रुपये मिले थे. इस महीने शुरू होने वाले तीसरे चरण में 17.75 लाख किसानों को 12,224 करोड़ रुपये की छूट मिलेगी. कुल मिलाकर राज्य के 35.5 लाख किसानों को ऋण माफी दी जा रही है.

हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे राज्यों में बढ़ता कृषि ऋण चिंता का विषय नहीं है. आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन ओईसीडी द्वारा किए गए नवीनतम वैश्विक विश्लेषण से पता चलता है कि जिन 54 प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के लिए इसने उत्पादक सब्सिडी सहायता तैयार की है, उनमें से केवल भारत के मामले में ही किसान घाटे की भरपाई के लिए पर्याप्त बजटीय सहायता से वंचित हैं.

रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय किसान वर्ष 2000 से हर साल घाटे में चल रहे हैं. क्या अर्थव्यवस्था का कोई अन्य क्षेत्र इस तरह के निरंतर घाटे से बच सकता था?

जबकि हम कार्यप्रणाली में दोष ढूंढ सकते हैं, तथ्य यह है कि उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रौद्योगिकी के लिए किसी भी तरह का समर्थन या अन्य योजनाओं में धन लगाने से किसानों की आय में वृद्धि नहीं होगी. ऐसा कहीं नहीं हुआ है. ओईसीडी अध्ययन इसका प्रमाण है.

इसे मैं ‘वाया बठिंडा’ दृष्टिकोण कहता हूं. इनपुट आपूर्तिकर्ताओं या प्रौद्योगिकी प्रदाताओं के माध्यम से इसे आगे बढ़ाने के बजाय कृषि आय बढ़ाने के लिए प्रत्यक्ष प्रयास क्यों नहीं किया जा सकता है?

यह अतीत में काम नहीं आया है, और यह भविष्य में भी काम नहीं करेगा. कई अध्ययनों से पता चला है कि इनपुट आपूर्तिकर्ता कैसे मुनाफा कमाते हैं जबकि किसान पिरामिड के निचले हिस्से में रहते हैं. आपूर्ति शृंखलाओं के मामले में भी, अंतिम लाभ में उत्पादकों की हिस्सेदारी बमुश्किल 5-10 प्रतिशत या उससे भी कम है.

यूके में हाल ही में हुए एक अध्ययन में कहा गया है कि 2021 में स्ट्रॉबेरी और रास्पबेरी के विपणन से खुदरा लाभ में 27 पेंस की वृद्धि हुई, जबकि किसानों का हिस्सा केवल 3.5 पेंस था. इससे पहले, कुछ अध्ययनों से पता चला था कि जिन छह दैनिक आवश्यकताओं पर उपभोक्ता निर्भर हैं, उनके लिए किसानों को खुदरा लाभ का केवल 1 प्रतिशत ही मिलता है.

इसलिए, जैसा कि नवीनतम बजट में कहा गया है, आपूर्ति शृंखलाओं को मजबूत करने पर जोर तभी मददगार होगा जब प्राथमिक उत्पादक की हिस्सेदारी की गारंटी होगी. कृषि के लिए कुल बजट का केवल 3.15 प्रतिशत आवंटन, और वह भी इस क्षेत्र में लगी देश की लगभग आधी आबादी के लिए, कुछ भी असाधारण की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

इस वर्ष 1.52 लाख करोड़ रुपये का परिव्यय, पिछले वर्ष से लगभग 26,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी, अनिवार्य रूप से गैर-योजना व्यय को कवर करता है, जैसा कि पहले संदर्भित किया गया था. यह देखते हुए कि कृषि के बजट में पीएम किसान योजना के लिए 60,000 करोड़ रुपये का परिव्यय भी शामिल है, जो प्रत्येक भूमि मालिक किसान को 500 रुपये की मासिक पात्रता प्रदान करता है, उसके बाद कृषि के लिए 92,000 करोड़ रुपये बचते हैं.

कोई आश्चर्य नहीं कि घरेलू उपभोग व्यय 2022-23 हमें बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति औसत मासिक उपभोग व्यय मात्र 3,268 रुपये है. यदि कृषि व्यवहार्य नहीं है, तो ग्रामीण खर्च कम रहेगा. इसलिए, कृषि पर गंभीरता से पुनर्विचार की जरूरत है. सबसे पहले आजीविका के मुद्दे पर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि समाज के अन्य वर्गों के साथ आय में समानता लाई जा सके.

मेरा सुझाव किसानों की आय और कल्याण के लिए एक राष्ट्रीय आयोग स्थापित करना है, जिसे एक निश्चित समय सीमा में कृषि आय बढ़ाने के लिए विशिष्ट तरीके पेश करने चाहिए. एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए एक कानूनी ढांचा सुनिश्चित करके इसकी शुरुआत की जा सकती है.

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