खेती से ही मिलेगा रोजगार
देविंदर शर्मा
इसी महीने रेलवे भर्ती बोर्ड को टाइपिस्ट, स्टेनो, एकाउंट क्लर्क, टिकट कलेक्टर आदि के 35,000 पदों के लिए 1.6 करोड़ आवेदन मिले हैं. पंजाब में छह लाख से अधिक छात्रों ने इंटरनेशनल इंगलिश लैंग्वेज टेस्टिंग सिस्टम (आईईएलटीएस) में भाग लिया. यह ऐसी परीक्षा है, जिसे विदेश जाने के इच्छुक छात्रों को पहले पास करना होता है.
विदेश जाने की ऐसी लालसा है कि आईईएलटीएस कोचिंग एक बड़ा व्यवसाय बन गई है, जिसका कारोबार अनुमानित रूप से 1,100 करोड़ रुपये से अधिक है. खेती के आर्थिक रूप से गैर-लाभकारी होने और रोजगार की कोई संभावना न होने के कारण पंजाब के युवा तेजी से देश छोड़ने के इच्छुक हैं.
देश में बढ़ती बेरोजगारी के दीर्घकालीन प्रभाव अगर आपकी परेशानी का कारण है, तो आपको एक और झटका लग सकता है. बंगलूरू स्थित अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने अपने स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया-2019 की रिपोर्ट में कहा है कि वर्ष 2016 से 2018 के बीच 50 लाख लोगों को अपनी नौकरी खोनी पड़ी है.
एक महीने पहले नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस की पिरियोडिक लेबर फोर्स सर्विस 2017-18 की रिपोर्ट ने बताया कि 2011-12 से 2017-18 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में 3.2 करोड़ अनियमित श्रमिकों ने अपना रोजगार खोया. इनमें से मोटे तौर पर तीन करोड़ कृषि श्रमिक थे, यह कृषि श्रमिकों के लिए रोजगार की उपलब्धता में 40 प्रतिशत की गिरावट दिखाती है.
कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस रिपोर्ट का विश्लेषण करने पर पाया कि 2011-12 से 2015-16 के बीच अकेले विनिर्माण के क्षेत्र में रोजगार 580.6 लाख से घटकर 480.3 लाख रह गया, जो एक करोड़ से ज्यादा रोजगार के नुकसान को दर्शाता है.
अकुशल से लेकर कुशल, अशिक्षित से लेकर शिक्षित और यहां तक कि उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों के लिए रोजगार के अवसर सिमट रहे हैं. उत्तर प्रदेश में 3,700 डॉक्टरेट डिग्रीधारी, 28,000 पोस्ट ग्रेजुएट और 50,000 ग्रेजुएट ने चापरासी के मात्र 62 पदों के लिए आवेदन किया. इस नौकरी के लिए मूलतः न्यूनतम पांचवीं क्लास उत्तीर्ण और साइकिल चलाने की योग्यता होनी चाहिए. यह पहली बार नहीं है कि उच्च शिक्षित लोगों ने ऐसी छोटी नौकरी के लिए आवेदन किए हैं. इसलिए हैरानी नहीं कि अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अध्ययन ने दिखाया है कि उच्च शिक्षित, कम शिक्षित के साथ-साथ अनियोजित कार्यबल के लिए बेरोजगारी बढ़ी है और 2016 के बाद से रोजगार घटे हैं, जिस वर्ष नोटबंदी की घोषणा की गई थी.
जब शहरी क्षेत्रों में भारी बेरोजगारी व्याप्त है, तब कृषि क्षेत्र में भी श्रमिकों की संख्या 2004-05 से 2011-12 के बीच घटी है. मुख्यधारा के अर्थशास्त्री रोजगार के इस नुकसान को उज्ज्वल पक्ष के रूप में देख रहे हैं. उनका तर्क है कि शहरी क्षेत्रों में कृषि श्रमिकों का पलायन आर्थिक विकास का सूचक है और यह पहली बार है कि लोगों के गांव से पलायन करने को स्पष्ट रूप से देखा गया है. अपने पूर्ववर्ती की तरह नए मुख्य आर्थिक सलाहकार कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने भी लोगों से कृषि क्षेत्र से शहरी क्षेत्रों में आने का आह्वान किया है, जिन्हें सस्ते श्रम की आवश्यकता है.
मुझे यह तर्क प्रतिगामी लगता है. यह उसी दोषपूर्ण सोच से आता है, जिसे इन वर्षों में विश्व बैंक/अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रचारित किया जाता रहा है. चूंकि भारतीय अर्थशास्त्री और उच्च पदों पर काबिज ज्यादातर लोगों ने विदेशों में पढ़ाई की है, इसलिए यह दोषपूर्ण सोच अलिखित नीति बन गई है.
वर्ष 1996 में विश्व बैंक ने भारत को अगले बीस साल में ग्रामीण क्षेत्रों से 40 करोड़ लोगों को शहरी क्षेत्रों में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया था. हाल ही में राष्ट्रीय कौशल विकास नीति दस्तावेज ने वर्ष 2022 तक ग्रामीण कार्यबल को 57 फीसदी से घटाकर 38 प्रतिशत करने का वादा किया. यह इस सोच पर आधारित था कि शहरी क्षेत्रों को दिहाड़ी मजदूरों की जरूरत है और वे केवल कृषि क्षेत्र से आ सकते हैं.
यह उधार के आर्थिक नुस्खे को आंख मूंदकर लागू करने का एक दुखद प्रतिबिंब है. जिस देश में अब भी 70 फीसदी कार्यबल ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है, वहां एक बड़ी आबादी का शहरों में झुंड बनाकर काम की तलाश में भटकने की कल्पना भी क्षुब्ध करने वाली है. मुझे हमेशा हैरानी होती है कि हमारे अर्थशास्त्री और नीति निर्माता कृषि नीति को लाभदायक बनाने के लिए अपनी नीतियों में बदलाव क्यों नहीं करते? इस तरह ग्रामीण उद्योग को पुनर्जीवित किया जा सकता है. अगर ग्रामीण कार्यबल के हाथ में अधिक पैसा होगा, तो अधिक मांग पैदा होगी, जिससे आर्थिक विकास के पहिये तेजी से घूमेंगे.
भारतीय अर्थशास्त्री विश्व बैंक की सोच से बाहर निकलने में विफल रहे, जबकि चीन ने बेरोजगार श्रम बल का ध्यान रखने के लिए अब शहरीकरण के खिलाफ कार्यक्रम की शुरुआत की है. एक अनुमान के अनुसार, पिछले साल वहां उच्च शैक्षणिक योग्यता वाले 70 लाख लोग ग्रामीण इलाकों में गए, जिनमें से 60 फीसदी कृषि क्षेत्र में गए.
देश में कृषि को मजबूत करने और ग्रामीण क्षेत्रों में अधोसंरचना बनाने की तुलना में अधिक रोजगार पैदा करने का कोई दूसरा विकल्प नहीं है, और इसी के साथ सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के रूप में ज्यादा सामाजिक सुरक्षा देने की जरूरत है. पीएम-किसान योजना की शुरुआत के साथ किसानों को अतिरिक्त आय देने का पहला कदम पहले ही उठा लिया गया है.
जब अर्थशास्त्रियों ने बदलाव से इनकार कर दिया, तब राजनीतिक सोच ने परिपक्वता दिखाने की शुरुआत की. पहले राजग ने पीएम-किसान योजना की घोषणा की, उसके बाद कांग्रेस ने न्यूनतम आय योजना का चुनावी वादा किया, जो देश की सबसे निर्धन बीस फीसदी आबादी को छह हजार रुपये महीने देने का वादा करती है.
स्पष्ट है कि राजनीतिक नेतृत्व आगे आर्थिक विकास का जो मार्ग देख रहा है, वह ज्यादा समावेशी है. दोनों पार्टियों ने अब वह समझना शुरू कर दिया है, जो मैं लंबे समय से कह रहा हूं कि अकेले कृषि क्षेत्र में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की क्षमता है.