चार साल बाद भाजपा
हमें भारतीय जनता पार्टी के चार साल के शासनकाल को मानवीय और संस्थागत गरिमा की नजर से देखना चाहिए. हमें किसी भी पार्टी की सरकार का मूल्यांकन मानवीय सम्मान और संस्थागत सम्मान की नजर से करना चाहिए. हालांकि, भारतीय जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल के आकलन का काम संबंधित पार्टियों पर छोड़ देना चाहिए. यह काम आखिरी साल में आम तौर पर होता ही है. इस सरकार के कामकाज का आकलन सिर्फ पांच साल के दायरे में सीमित नहीं रखना चाहिए क्योंकि अगर संस्थाएं नहीं रहेंगी तो मानवीय सम्मान और सरकार की प्रतिष्ठा नहीं रहेगी. हमें अराजकतावादी रुख अपनाते यह नहीं कहना चाहिए कि कोई भी सरकार या कोई भी संस्था लोगों का कल्याण नहीं कर सकती.
आखिर क्यों यह ऐतिहासिक जरूरत पैदा हो गई है कि सरकार की प्रतिष्ठा पर सवाल उठाया जाए और खास तौर पर किसी एक सरकार के संदर्भ में? ऐसा इसलिए है क्योंकि पिछले चार साल के भाजपा सरकार के कार्यकाल में सरकार की गरिमा कम हुई है. गौ रक्षकों, सोशल मीडिया ट्रोल और नैतिकता के ठेकेदारों की समांतर सत्ता चल रही है.
सरकार की गरिमा उसकी इस विश्वसनीयता पर निर्भर करती है कि सत्ता उसके कितने काबू में है और वह जन कल्याण के लिए कितना इस्तेमाल होता है. ऐसा काम संस्थागत ताकतों की गोलबंदी से ही हो सकता है. इसलिए भाजपा सरकार के कार्यकाल में अभूतपूर्व विकास को लेकर दावा कर रहे प्रवक्ताओं पर सवाल उठाने की जरूरत है. यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि खुद भाजपा के कार्यकर्ताओं ने यह घोषित कर दिया है कि भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री अब तक के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री हैं.
सत्ता के ये समानांतर केंद्र कई जगह सक्रिय हैं. गुजरात के उना में इन लोगों ने दलितों को अपमानित किया. इन लोगों ने कुछ वर्गों को सांस्कृतिक स्तर पर कमतर दिखाने की कोशिश की और उनके खानपान पर भी सवाल उठाया. अस्तित्व की आजादी पर यह हमला शाकाहार को बढ़ावा देने वाले स्वघोषित ठेकेदारों ने किया. क्या भाजपा सरकार इन पर नकेल कसने में खुद को असहाय पा रही है? अगर ऐसा है तो क्या यह सरकार उस गरिमा को नहीं गिरा रही है जो उसे संविधान से मिला है? यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि पिछले चार साल में संविधानेत्तर शक्तियों का दखल बढ़ा है. चाहे वह सार्वजनिक तौर पर पीटने का मामला हो, ट्रोल करने का मामला हो या फिर जम्मू के कठुआ जैसे मामले में न्यायिक प्रक्रिया को बाधित करने का.
उदार लोकतंत्र की संस्थाओं से यह उम्मीद होती है कि वे लोगों के आत्मसम्मान की रक्षा करेंगी. हाशिये के समूहों के लोग ज्ञान की प्रक्रिया में शामिल होकर आत्मसम्मान हासिल कर सकते हैं. लेकिन पिछले चार साल में शैक्षणिक संस्थाएं अपने लक्ष्य से भटक गई हैं और समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को धता बता रही हैं. उच्च शैक्षणिक संस्थाओं के नैतिक पतन का एक उदाहरण रोहित वेमुला है.
सरकार की गरिमा इसमें होती है कि वह कड़वे सच का भी सामना करे. किसानों की आत्महत्या और उससे कृषकों में पैदा हो रही हताशा ऐसा ही एक कड़वा सच है. लेकिन समाधान के बजाए यह सरकार बड़े-बड़े दावे करने में ही लगी रहती है. भाजपा का ‘अच्छे दिन’ का दावा खोखला मालूम पड़ता है. उदाहरण के तौर पर नोटबंदी से आखिर ऐसा क्या फायदा है जिस निर्णय की वजह से 100 से अधिक लोगों की जान चली गई और लाखों लोगों को आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ा.
हालिया उपचुनावों में भाजपा की लगातार हार से यह पता चलता है कि बड़े-बड़े दावों का खोखलापन अब लोग समझने लगे हैं. ऐसे में भाजपा अब अपने नेता के निजी त्याग को मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है. निजी त्याग तो महत्वपूर्ण होता है लेकिन तब जब इसका इस्तेमाल किसी मानवीय कार्य के लिए लोगों को गोलबंद करने के लिए हो. लेकिन अगर इस बात का इस्तेमाल किसी पार्टी के मानव-विरोधी एजेंडे के तौर पर हो तो इसे कड़वा घूंट ही समझना चाहिए.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय