…और बचा न सके गजेंद्र को
नई दिल्ली | सुदीप ठाकुर: आप की किसान रैली में गजेन्द्र सिंह ने आत्महत्या कर ली. और गजेन्द्र को बचाया न जा सका. दौसा के किसान गजेंद्र सिंह की मौत इस देश में ढाई लाख के करीब किसानों की आत्महत्या की गिनती में सिर्फ एक और आंकड़ा भर नहीं है.
उसने देश की संसद से महज एक फर्लांग दूर जंतर मंतर में आम आदमी पार्टी की किसान रैली में करीब तीन हजार लोगों, दर्जनों खबरिया चैनलों के कैमरों और पांच सौ के करीब पुलिस कर्मियों की मौजूदगी में एक पेड़ पर चढ़कर फांसी लगाई. वह भी उस वक्त जब संसद का सत्र चल रहा है.
अब बहुत-सी कहानियां बाहर आ चुकी हैं. दौसा में उसके घर से लेकर उसके दिल्ली आने तक की. उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से लेकर सोशल मीडिया तक में उसके सक्रिय होने की.
वह खांटी राजस्थानी मिट्टी में रचा बसा था. साफा बांधने में उसे महारत हासिल थी. पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी से लेकर अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन और मौजूदा गृह मंत्री राजनाथ सिंह तक उसकी इस कला से रूबरू हो चुके थे. मगर उसकी पगड़ी की लाज नहीं बचाई जा सकी.
भारतीय मानकों में देखें, तो वह गरीब किसान नहीं था. उसके परिवार के पास करीब 25 बीघा जमीन थी, लेकिन यह भी सच है कि तीन बच्चों का पिता गजेंद्र खेती पर ही निर्भर था.
बेमौसम बारिश ने उसकी फसल भी बर्बाद कर दी थी. प्रधानमंत्री मोदी ने पचास फीसदी से घटाकर 33 फीसदी फसल बर्बाद होने पर भी मुआवाजा देने की घोषणा की है.
राजस्थान की भाजपा सरकार ने उसे इस दायरे से बाहर रखा, क्योंकि अधिकारियों के मुताबिक उसकी महज 22 फीसदी फसल को हो बारिश और ओले से नुक्सान पहुंचा था.
फसलों की इस बार जैसी बर्बादी हुई उसमें राजस्थान से भी अनेक किसानों की आत्महत्या की खबरें आ चुकी हैं. इससे पहले तक राजस्थान में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ या पंजाब के किसानों की तरह आत्महत्या करने के मामले सामने नहीं आए थे.
यह जांच से पता चलेगा कि क्या गजेंद्र वाकई आत्महत्या के इरादे से आम आदमी पार्टी की किसान रैली में हिस्सा लेने आया था,या वह अपनी ओर सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए पेड़ पर लटक गया.
या फिर उसने आत्महत्या के लिए प्रदर्शनकारियों के लिए संसद का मुहाना माने जाने वाले जंतर मंतर को ही क्यों चुना? कोई मनोविज्ञानी ही विश्लेषण कर सकता है कि आखिर दो दिन पहले दौसा से दिल्ली के लिए निकलते समय उसके भीतर क्या उथल-पुथल मची रही होगी?
सच सबके सामने है कि वह पेड़ पर चढ़ा और उसने देखते ही देखते अपने गमछे से फांसी लगा ली. किसी किसान की आत्महत्या का ऐसा लाइव दृश्य हतप्रभ करने वाला है. शर्मसार करने वाला है.
यह घटना उस देश में हुई है, जहां बच्चों को प्राथमिक स्कूल से ही पढ़ाया जाता है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है! आत्महत्या हताशा से बाहर निकलने का अंतिम विकल्प नहीं है.
क्या उसे बचाया जा सकता था, यह सवाल अब बेमानी है. मगर क्या उसे बचाने के प्रयास किए गए, इसका जरूर विश्लेषण किया जाना चाहिए. वह भी इस वृहत सवाल के साथ कि किसानों की आत्महत्या रोकने के क्या प्रयास किए जा रहे हैं.
जो लोग जंतर मंतर गए हैं, वे जानते हैं कि अमूमन प्रदर्शनों या सभाओं के लिए जहां मंच बनाया जाता है, उसके सामने दोनों ओर कतारों में पेड़ लगे हैं, कुछ बेतरतीबी के साथ. खाने पीने की कुछ स्थायी-अस्थायी दुकानें हैं. अपना रंग और असर छोड़ चुके प्रदर्शनकारियों के तंबू हैं.
यदि वहां तीन-चार हजार लोग इकट्ठा हो जाएं, तो भी काफी भीड़ हो जाती है. हाल के समय में वहां अधिकतम भीड़ तब देखी गई थी, जब अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां अनशन किया था.
यह वह जगह है, जिसने अरविंद केजरीवाल को आंदोलनकारी से नेता में और फिर दो बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में तब्दील कर दिया.
जिस वक्त यह हादसा हुआ दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल, उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और आम आदमी पार्टी के नेता मंच पर थे. उनके मंच से करीब सौ मीटर की दूरी पर एक पेड़ पर गजेंद्र सिंह चढ़ गया. उस वक्त मंच से आप नेता लगातार भाषण देते रहे.
हैरानी की बात यह है कि मंच से पुलिस से उसे बचाने की अपील तो की गई, लेकिन किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर गजेंद्र यह कदम क्यों उठा रहा है. यह हादसा बताता है कि उसे बचाने की ईमानदारी कोशिश नहीं की गई.
आखिर क्यों मंच से आप का कोई वरिष्ठ नेता महज सौ मीटर दूर स्थित उस पेड़ के नीचे नहीं पहुंच सका और गजेंद्र से नीचे उतरने की अपील नहीं कर सका?
सौ मीटर का फासला तय करने के लिए 9.88 सेकेंड का विश्व रिकॉर्ड बनाने वाले उसैन बोल्ट की जरूरत नहीं थी. उसके लिए मानवीय संवेदना की जरूरत थी. मंच से उससे यह अपील क्यों नहीं की गई कि भाई, पेड़ से नीचे उतर आओ और यहां मंच पर आकर अपनी बात कहो.
पेड़ पर चढ़कर उसे बचाने से कहीं ज्यादा जरूरी था कि उसे पेड़ से नीचे उतरने के लिए राजी किया जाता. आखिर यह रैली किसानों के लिए ही तो बुलाई गई थी.
* लेखक अमर उजाला दिल्ली के स्थानीय संपादक हैं.